अप्रैल 20, 2024, शनिवार

पास्का का तीसरा सप्ताह

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📒 पहला पाठ :प्रेरित-चरित . 9:31-42

31) उस समय समस्त यहूदिया, गलीलिया तथा समारिया में कलीसिया को शान्ति मिली। उसका विकास होता जा रहा था और वह, प्रभु पर श्रद्धा रखती हुई और पवित्र आत्मा की सान्त्वना द्वारा बल प्राप्त करती हुई, बराबर बढ़ती जाती थी।

32) पेत्रुस, चारों ओर दौरा करते हुए, किसी दिन लुद्दा में रहने वाली ईश्वर की प्रजा के यहाँ भी पहुँचा।

33) वहाँ उसे ऐनेयस नामक अद्र्धांगरोगी मिला, जो आठ वर्षों से बिस्तर पर पड़ा हुआ था।

34) पेत्रुस ने उस से कहा, "ऐनेयस! ईसा मसीह तुम को स्वस्थ करते हैं। उठो और अपना बिस्तर स्वयं ठीक करो।" और वह उसी क्षण उठ खड़ा हुआ।

35) लुद्दा और सरोन के सब निवासियों ने उसे देखा और वे प्रभु की ओर अभिमुख हो गये।

36) योप्पे में तबिया नामक शिष्या रहती थी। तबिथा का यूनानी अनुवाद दोरकास (अर्थात् हरिणी) है। वह बहुत अधिक परोपकारी और दानी थी।

37) उन्हीं दिनों वह बीमार पड़ी और चल बसी। लोगों ने उसे नहला कर अटारी पर लिटा दिया।

38) लुद्दा योप्पे से दूर नहीं है और शिष्यों ने सुना था कि पेत्रुस वहाँ है। इसलिए उन्होंने दो आदमियों को भेज कर उस से यह अनुरोध किया कि आप तुरन्त हमारे यहाँ आइए।

39) पेत्रुस उसी समय उनके साथ चल दिया। जब वह योप्पे पहुँचा, तो लोग उसे उस अटारी पर ले गये। वहाँ सब विधवाएं रोती हुई उसके चारों ओर आ खड़ी हुई और वे कुरते और कपड़े दिखाने लगीं, जिन्हें दोरकास ने उनके साथ रहते समय बनाया था।

40) पेत्रुस ने सबों को बाहर किया और घुटने टेक कर प्रार्थना की। इसके बाद वह शव की ओर मुड़ कर बोला, "तबिथा, उठो! उसने आँखे खोल दीं और पेत्रुस को देख कर वह उठ बैठी।

41) पेत्रुस ने हाथ बढ़ा कर उसे उठाया और विश्वासियों तथा विधवाओं को बुला कर उसे जीता-जागता उनके सामने उपस्थित कर दिया।

42) यह बात योप्पे में फैल गयी और बहुत-से लोगों ने प्रभु में विश्वास किया।

📚 सुसमाचार : योहन 6:60-69

60) उनके बहुत-से शिष्यों ने सुना और कहा, "यह तो कठोर शिक्षा है। इसे कौन मान सकता है?"

61) यह जान कर कि मेरे शिष्य इस पर भुनभुना रहे हैं, ईसा ने उन से कहा, "क्या तुम इसी से विचलित हो रहे हो?

62) जब तुम मानव पूत्र को वहाँ आरोहण करते देखोगे, जहाँ वह पहले था, तो क्या कहोगे?

63) आत्मा ही जीवन प्रदान करता है, मांस से कुछ लाभ नहीं होता। मैंने तुम्हे जो शिक्षा दी है, वह आत्मा और जीवन है।

64) फिर भी तुम लोगों में से अनेक विश्वास नहीं करते।" ईसा तो प्रारम्भ से ही यह जानते थे कि कौन विश्वास नहीं करते और कौन मेरे साथ विश्वासघात करेगा।

65) उन्होंने कहा, "इसलिए मैंने तुम लोगों से यह कहा कि कोई मेरे पास तब तक नहीं आ सकता, जब तक उसे पिता से यह बरदान न मिला हो"।

66) इसके बाद बहुत-से शिष्य अलग हो गये और उन्होंने उनका साथ छोड़ दिया।

67) इसलिए ईसा ने बारहों से कहा, "कया तुम लोग भी चले जाना चाहते हो?"

68) सिमोन पेत्रुस ने उन्हें उत्तर दिया, "प्रभु! हम किसके पास जायें! आपके ही शब्दों में अनन्त जीवन का सन्देश है।

69) हम विश्वास करते और जानते हैं कि आप ईश्वर के भेजे हुए परमपावन पुरुष हैं।"

📚 मनन-चिंतन

आज हम जीवन की रोटी के रूप में येसु की व्याख्या समाप्त करते हैं। न केवल उन्हें सुनने वाले यहूदियों को, बल्कि येसु के अपने शिष्यों को भी जीवन के मार्ग के रूप में उनके शरीर ग्रहण करने और उनके रक्त पान करने की उस आह्वान को स्वीकार करने में बड़ी कठिनाइयाँ हुईं। बहुत से अनुयायी पीछे हट गये और उनका अनुसरण नहीं किया। येसु जानते थे कि कुछ लोग न केवल उन्हें और उनके वचन को अस्वीकार करेंगे, बल्कि उन्हें उनके शत्रुओं के हाथों पकड़वा देंगे। पेत्रुस की वफ़ादारी का निष्ठां येसु के साथ व्यक्तिगत संबंध पर आधारित था। विश्वास के उपहार के माध्यम से पेत्रुस जानता था कि येसु मसीहा, ईश्वर का पवित्र पुरुष थे, और वे उनके शब्दों पर विश्वास करते थे। ईश्वर हमें उनके सच्चाई और बुद्धिमत्ता को समझने के लिए हमारे मन की आँखों को प्रबुद्ध करने के लिए पवित्र आत्मा की सहायता देता है। विश्वास ईश्वर के रहस्योद्घाटन की प्रतिक्रिया है। यह ईश्वर को हमारे जीवन में शक्ति के साथ कार्य करते हुए देखने की कुंजी है। येसु के पास अनन्त जीवन के शब्द हैं और वे मेरा जीवन बदल सकते है, क्या मुझे यह विश्वास?

- फादर संजय कुजूर, एसवीडी


📚 REFLECTION

Today we conclude the discussion of Jesus as the Bread of Life. Not only the Jews who heard him, but Jesus’ own disciples had great difficulties accepting his call to eat his flesh and drink his blood as a way to life. Many followers turned back and no longer followed him. Jesus knew that some would not only reject him and his word, but even betraying him to his enemies. Peter’s profession of loyalty was based on a personal relationship with Jesus. Through the gift of faith Peter knew that Jesus was the Messiah, the Holy One of God, and he believed in his words. God gives us the help of the Holy Spirit to enlighten the eyes of our mind to understand his truth and wisdom. Faith is a response to God's revelation. It's the key to seeing God work in our lives with power. Do I believe that Jesus can change my life because he has the words of eternal life?

-Fr. Sanjay Kujur SVD

📚 मनन-चिंतन

प्रेरितों के प्रचार-कार्य से वचन फैलता गया। अधिक से अधिक लोगों ने विश्वास किया और उनकी श्रद्धा दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। पेत्रुस चारों ओर जा कर लोगों को सुसमाचार सुनाते एवं विभिन्न बीमारियों से पिड़ीत लोगों के लिए प्रार्थना करते थे। इन कार्यों को देख लोगों का विश्वास बढ़ने लगा, ज्यादा से ज्यादा लोग विश्वास मे जुड़ने लगे।

यूखारिस्त के रहस्य पर प्रभु येसु की शिक्षा बहुत से शिष्यों को कठोर लगी। बहुत से शिष्यों ने उनका साथ छोड़ दिया। प्रभु येसु बारहों से पुछते हैं, “क्या तुम भी चले जाना चाहते हो? सिमोन प्रेत्रुस ने उत्तर दिया, “प्रभु हम किसके पास जायें? आपके शब्दों मे ही अनन्त जीवन का संदेश है।” प्रभु की शिक्षा आत्मा और जीवन देने वाली शिक्षा है। हमें विश्वास पूर्वक उनकी शिक्षा को ग्रहण करना चाहिए।

आइये, हम प्रभु की शिक्षा को ग्रहण कर, उस के अनुसार आचरण करें।

- फादर साइमन मोहता (इंदौर धर्मप्रांत)


📚 REFLECTION

The word spread through the preaching work of the apostles. More and more people believed and their faith was increasing day by day. Peter went around preaching the gospel to people and praying for people suffering from various ailments. Seeing these works, people's faith started increasing, more and more people started joining the faith.

The teaching of the Lord Jesus on the mystery of the Eucharist was harsh to many of the disciples. Many disciples left him. Lord Jesus asks the twelve, “Do you also want to leave? Simon Peter answered, "Lord, to whom shall we go? You have words of eternal life." The teaching of the Lord is soul and life-giving teaching. We must accept his teaching with faith.

Come, let us accept the teachings of the Lord and act accordingly.

-Fr. Simon Mohta (Indore Diocese)

📚 मनन-चिंतन- 2

बहुत से लोग यीशु की ओर आकर्षित होते हैं क्योंकि वह उन्हें कुछ अनोखा प्रदान करता है: परमेश्वर की प्रेममयी दया और अनुकंपा। परन्तु जब यीशु "अपना मांस खाने और उसका लहू पीने" के बारे में प्रवचन देता है (यूहन्ना 6:51-59), और वे अपमानित हो जाते और स्वीकार नहीं करते है। वे यूखरिस्त के वादे को नहीं समझ सकते। और इसलिए उन्होंने उसका अनुसरण करना छोड़ दिया। उन्होंने उसे छोड़ दिया। वह अपने प्रेरितों को भी चुनौती देता है: "क्या तुम भी जाना चाहते हो?" सेंट पीटर प्रेरित, कहते हैं: "गुरु, हम किसके पास जाएं? आपके शब्दों में तो अनंत जीवन का सन्देश है," (पद 67-68)।

हम दूसरों को खुशखबरी लाने में मदद कर सकते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमें दूसरा मसीह बनने के लिए बुलाया गया है। हम कई तरह से परमेश्वर के वचन को पूरा कर रहे हैं जैसे:

सबसे पहले, हमें अपने अध्ययन और ध्यान के आधार के रूप में पवित्रशास्त्र का उपयोग करना चाहिए। उन्हें पवित्रशास्त्र को अपने स्वयं के प्रार्थना जीवन के केंद्र के रूप में देखें । दूसरा यह है कि हम जो उपदेश देते हैं उसका अभ्यास करें। यीशु के वचनों के कारण है जो हमारी आंखें खोलते हैं और इसलिए हम यहां हैं। उसके शब्द वास्तव में 'आत्मा और जीवन' हैं।

- फादर पायस लकड़ा


📚 REFLECTION

Many people are attracted to Jesus because He offers them something irresistible: God’s loving kindness and mercy that were shown in His wonderful works of healing, deliverance and miraculous feeding of the five thousand. But when Jesus’ discourses on “eating his flesh and drinking his blood” (John 6:51-59), which points to the Last Supper and this causes them offence and hard to accept. They cannot understand the promise of the Eucharist. It is because they were thinking that He is promoting cannibalism, and they found it very difficult to accept. And so they stopped following Him. They abandoned Him. But this abandonment does not give Jesus even the lightest thought to discontinue His Eucharistic teaching in order to be more acceptable to them. He even challenges His apostles: “Do you also want to leave?” St. Peter seemed inspired, says: “Master, to whom shall we go to? You have the words of eternal life,” (v. 67-68).

We can help bring about the Good News to others.

First, we should use the Scripture as a basis for our study and meditation.

Second is to practice what we preach. In Matthew 23: 1-12 Jesus says to observe all that the Pharisees teach but not to follow their example. It is because they do not do what they preach.

And so the reason why we are here, it’s because of the words of Jesus that open our eyes. His words are indeed ‘spirit and life.’

-Fr. Pius Lakra

📚 मनन-चिंतन -2

जब हम ईश्वर में विश्वास करते हैं तो ज़रूरी नहीं है कि हमारे जीवन में सब कुछ समान्य रहेगा। कई बार असामान्य और असाधारण बातें भी होती हैं जिन्हें हमारा मानव स्वभाव नहीं समझ पाता है। जो बातें हमें अपनी सोच-समझ के अनुसार असम्भव सी लगती हैं वे बातें ईश्वर के साथ सम्भव हो जाती हैं। कुछ लोगों को प्रभु येसु की कुछ बातें समझने में कठिन और स्वीकार करने में असम्भव सी लगती हैं। वे बिना कोशिश किए ही प्रभु येसु से दूर हो जाते हैं। प्रभु येसु के अनुसरण का मार्ग कठिन है, इस पर बिना प्रयास किये चलना असम्भव है। अगर हम दुर्गम रास्ता चुनते हैं, कठिन डगर चुनते हैं तो हमें पूरे दिल से प्रयास करना पड़ेगा। प्रभु येसु का अनुसरण करना साइकिल से पहाड़ पर चढ़ने के समान है, जहाँ हमने पैडल मारना बन्द किया वहीं नीचे की ओर फिसलना शुरू। आख़िर प्रभु येसु के जीवनदायी वचन इतने आसान थोड़े ही हैं। क्या हम अनंत जीवन के संदेश को समझने का कठिन प्रयास करते हैं या कठिनाई आने पर अपना रास्ता बदल लेते हैं?

- फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

When we decide to welcome the Lord in our life, it is not necessary that things will continue to be normal. May times Gods acts in our lives in strange ways, which seem beyond our human understanding. What seems impossible with our human capabilities, becomes possible with God. The teachings of Jesus to some seem difficult to understand and impossible to accept. They desert Jesus without making any effort to understand him. We cannot follow Jesus without making sufficient effort. If we choose to walk a difficult and challenging path, then whole-hearted effort is what is needed most. Following Jesus is like paddling a bicycle to a steep and high mountain, where stopping to paddle results in destroying the efforts so far made. If the words of Jesus are the Words of Life eternal, then they must not be so easy to grasp or follow. Do we try hard and make whole-hearted effort to understand and accept God’s words or prefer to change our course when faced with difficulties and challenges?

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)