अप्रैल 22, 2024, सोमवार

पास्का का चौथा सप्ताह

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📒 पहला पाठ :प्रेरित-चरित 11:1-18

1) प्रेरितों तथा यहूदिया के भाइयों को यह पता चला कि गै़र-यदूदियों ने भी ईश्वर का वचन स्वीकार किया हैं।

2) जब पेत्रुस येरूसालेम पहुँचा, तो यहूदी विश्वासियों ने उसकी आलोचना करते हुए कहा,

3) "आपने गैर-यहूदियों के घर में प्रवेश किया और उनके साथ भोजन किया"।

4) इस पर पेत्रुस ने क्रम से सारी बातें समझाते हुए कहा,

5) "मैं योप्पे नगर में प्रार्थना करते समय आत्मा से आविष्ट हो गया। मैंने देखा कि लंबी-चैड़ी चादर-जैसी कोई चीज़ स्वर्ग से उतर रही है और उनके चारों कोने मेरे पास पृथ्वी पर रखे जा रहे हैं।

6) मैने उस पर दृष्टि गड़ा कर देखा कि उस में पृथ्वी के चैपाले, जंगली जानवर, रेंगने वाले जीव-जंतु और आकाश के पक्षी हैं।

7) मुझे एक वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ी ’पेत्रुस! उठो, मारो और खाओ।

8) मैंने कहा, ’प्रभु! कभी नहीं! मेरे मुँह में कभी कोई अपवित्र अथवा अशुद्ध वस्तु नहीं पड़ी।’

9) उत्तर में स्वर्ग से दूसरी बार यह वाणी सुनाई पड़ी, ’ईश्वर ने जिसे शुद्ध घोषित किया, तुम उसे अशुद्ध मत कहो’।

10) तीन बार ऐसा ही हुआ और इसके बाद वह चीज़ फिर स्वर्ग में ऊपर उठा ली गयी।

11) उसी समय कैसरिया से मेरे पास भेजे हुए तीन आदमी उस घर के सामने आ पहुँचे, जहाँ में ठहरा हुआ था

12) आत्मा ने मुझे आदेश दिया कि मैं बेखटके उनके साथ जाऊँ। ये छः भाई मेरे साथ हो लिये और हमने उस मनुष्य के घर में प्रवेश किया।

13) उसने हमें बताया कि उसने अपने यहाँ एक स्वर्गदूत को देखा, जिसमें उस से यह कहा, ’आदमियों को योप्पे भेजिए और सिमोन को, जो पेत्रुस कहलाते हैं, बुलाइए।

14) वह जो शिक्षा सुनायेगें उसके द्वारा आप को और आपके सारे परिवार को मुक्ति प्राप्त होगी।’

15) "मैंने बोलना आरंभ किया ही था कि पवित्र आत्मा उन लोगों पर उतरा जैसे की वह प्रारंभ में हम पर उतरा था

16) उस समय मुझे प्रभु का वह कथन याद आया- योहन जल का बपतिस्मा देता था, परन्तु तुम लोगों को पवित्र आत्मा का बपतिस्मा दिया जायेगा।

17) जब ईश्वर ने उन्हें वही वरदान दिया, जो हमें, प्रभु ईसा मसीह में विश्वास करने वालों को, मिला है, तो मैं कौन था जो ईश्वर के विधान में बाधा डालता?"

18) ये बातें सुनकर वे शांत हो गये और उन्होंने यह कहते हुए ईश्वर की स्तुति की, "ईश्वर ने गैर-यहूदियों को भी यह वरदान दिया कि वे उसकी ओर अभिमुख हो कर जीवन प्राप्त करें"।

📙 सुसमाचार : योहन 10:1-10

1) "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - जो फाटक से भेड़शाला में प्रवेश नहीं करता, बल्कि दूसरे रास्ते से चढ़ कर आता है, वह चोर और डाकू है।

2) जो फाटक से प्रवेश करता है, वही भेड़ों का गड़ेरिया है

3) और उसके लिए दरवान फाटक खोल देता है। भेड़ें उसकी आवाज पहचानती हैं। वह नाम ले-ले कर अपनी भेड़ों को बुलाता और बाहर ले जाता है।

4) अपनी भेड़ों को बाहर निकाल लेने के बाद वह उनके आगे-आगे चलता है और वे उसके पीछे-पीछे आती हैं, क्योंकि वे उसकी आवाज पहचानती हैं।

5) वे अपरिचित के पीछे-पीछे नहीं चलेंगी, बल्कि उस से भाग जायेंगी; क्योंकि वे अपरिचितों की आवाज नहीं पहचानतीं।"

6) ईसा ने उन्हें यह दृष्टान्त सुनाया, किन्तु वे नहीं समझे कि वे उन से क्या कह रहे हैं।

7) ईसा ने फिर उन से कहा, "मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - भेड़शाला का द्वार मैं हूँ।

8) जो मुझ से पहले आये, वे सब चोर और डाकू हैं; किन्तु भेड़ों ने उनकी नहीं सुनी।

9) मैं ही द्वार हूँ। यदि कोई मुझ से हो कर प्रवेश करेगा, तो उसे मुक्ति प्राप्त होगी। वह भीतर-बाहर आया-जाया करेगा और उसे चरागाह मिलेगा।

10) "चोर केवल चुराने, मारने और नष्ट करने आता है। मैं इसलिए आया हूँ कि वे जीवन प्राप्त करें- बल्कि परिपूर्ण जीवन प्राप्त करें।

📚 मनन-चिंतन

आज का पहला पाठ गैर- यहूदियों के बपतिस्मा की खबर पर येरूसालेम में ईसाई नेताओं की प्रतिक्रिया को दर्शाता है। पेत्रुस के विरुद्ध आरोप साधारण थे कि वह एक वफादार यहूदी के रूप में गैर- यहूदियों से जुड़ा था और उनके साथ भोजन भी किया था। उल्लेखनीय है कि पेत्रुस यहां अपना उपदेश नहीं दोहराते। वह अपना बचाव इस पर नहीं करता कि उसने क्या कहा, बल्कि इस पर निर्भर करता है कि ईश्वर ने क्या किया। त्रुस के मन और हृदय में परिवर्तन येरूसालेम में कलीसिया के लिए गैर-यहूदी धर्मान्तरित लोगों के प्रति उसके दृष्टिकोण और कार्यों में एक महत्वपूर्ण मोड़ बन गया। ईश्वर ने उस दरवाजे को खोल दिया है जिसने पूरे यहूदी इतिहास में गैर- यहूदियों को बंद कर दिया था। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि, पेत्रुस की दृष्टि और कलीसिया में गैर- यहूदियों की स्वीकृति के साथ, ईश्वर ने पृथ्वी के सभी हिस्सों में सुसमाचार के विस्तार के लिए रास्ता तैयार किया है। यह अधिनियमों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो गैर- यहूदियों के लिए मिशन की शुरुवात का वर्णन करता है। इसमें कलीसिया की अपनी पहचान के बारे में जागरूकता के विकास में एक बड़ी सफलता शामिल है।

- फादर संजय कुजूर, एसवीडी


📚 REFLECTION

What we see in today’s reading is the reaction of the Christian leaders in Jerusalem to the news of a Gentile’s baptism. The charges against Peter were simple that he as a faithful Jew associated with Gentiles and even ate with them. It is noteworthy that Peter does not here repeat his sermon. He rests his defence, not on what he said, but on what God did. Peter’s change of mind and heart becomes a turning point for the church in Jerusalem in its attitudes and actions toward Gentile converts. God has unbarred the door that locked out Gentiles throughout Jewish history. Most significantly, with Peter’s vision and the acceptance of Gentiles into the church, God has prepared the way for the expansion of the Gospel to the uttermost parts of the earth. This is a momentous part of the Acts which describes the inauguration of the mission to the Gentiles. It involves a major breakthrough in the development of the Church’s awareness of its identity.

-Fr. Sanjay Kujur SVD

📚 मनन-चिंतन

आज माता कलिसिया सभी श्रमिकों और मजदूरों के संरक्षक सन्त योसफ़ का पर्व मनाती है। सन्त योसफ न केवल संसार भर की कलिसिया के संरक्षक हैं, बल्कि संसार भर के श्रमिकों को भी प्रभु ने उनके संरक्षण में रखा है। सन्त योसफ़ में ऐसे कई गुण और विशेषताएं हैं जिनके कारण ईश्वर ने उन्हें हमारे मुक्तिदाता के संरक्षण एवं लालन-पालन के लिए सांसारिक पिता के रूप में चुना। उनके कुछ गुणों को हम भी अपने जीवन में अपना सकते हैं। उनका सबसे महान गुण था कि वे खामोशी से प्रभु की इच्छा और योजना को अपने जीवन में पूरा करने में लगे रहते थे, फिर भले ही शुरू में प्रभु की योजना उनकी समझ में नहीं आई हो (मत्ती 1:19)।

सन्त योसफ़ ने अपनी जिम्मेदारी को इतनी सादगी एवं विनम्रता से पूरा किया कि बाद में जब प्रभु येसु पुनः अपने नगर आते हैं तो लोग उनकी बातों में विश्वास नहीं करते। क्योंकि शायद जब प्रभु येसु अपने परिवार के साथ रहते थे तो लोगों ने उनमें कुछ भी असाधारण नहीं देखा, लेकिन अब प्रभु येसु की शिक्षाएं एवं चमत्कारपूर्ण कार्य उनके लिए असाधारण लगे। शायद ही उन्हें मालूम था कि उन असाधारण कार्यों की नींव प्रभु के भले और वफादार सेवक सन्त योसफ़ द्वारा रखी गई थी। हम भी उन्ही सन्त योसफ़ से प्रार्थना करें कि हम भी प्रभु के भले और वफादार सेवक बनें।

- फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Today , the Church celebrates the feast of St. Joseph the Worker. St. Joseph is not only patron of the universal church but also the universal patron of the workers all over. St. Joseph has many special and unique qualities, because of which God chose him to be the care taker and foster father of our Saviour. Some of those qualities can be ours as well. The most striking quality of St. Joseph was that he was obedient and docile to God’s will and plan, even though he might have not understood it in the beginning (ref. Matt 1:19).

St. Joseph executed his responsibilities given by God with such humility and simplicity that when Jesus returned to his hometown and began to preach, the people could not believe in him. It was so, perhaps, because when Jesus was with his family, people did not notice anything extra ordinary about this family, but now they noticed something extraordinary in the teachings and works of Jesus. Little did they know that the foundation for all this was prepared by the good and faithful servant of God, St. Joseph. We pray to St. Joseph that we also be blessed with the same qualities and blessings as St. Joseph.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)

📚 मनन-चिंतन- 2

यीशु इसलिए आया कि मैं जीवन पाऊं और पूरी तरह से जीवन पाऊं; सम्पूर्ण; मैं अक्सर इन शब्दों पर विचार करता हूं: मेरे जीवन में 'पूर्णता' या ' सम्पूर्ण ' कैसा दिखता है? मेरा जीवन पूर्ण और प्रचुर मात्रा में है जब मैं अपने हृदय में परमेश्वर के प्रेम का अनुभव करता हूं, जो मेरे अस्तित्व का स्रोत है। मैं अपने परिवार और दोस्तों, काम के सहयोगियों, पड़ोसियों और कभी-कभी एक अजनबी के बीच प्यार और रिश्तों में प्रचुरता का अनुभव करता हूं, जो एक साधारण लहर, मुस्कान या गर्मजोशी से मेरे दिल को जीवंत कर सकता है। मैं सुंदरता, रचनात्मकता और अच्छाई की उपस्थिति में जीवित और पवित्र आत्मा से भरा हुआ महसूस करता हूं। एक शानदार सूर्यास्त देखने पर या जब सूरज के नीचे साफ पानी में तैरते हुए मेरा दिल स्तुति और खुशी में गा सकता है। इन मुहूर्तों में, मेरा हृदय, जीवन आश्चर्य और विस्मय के साथ जीवित है, सच मानो तो जीवन का उपहार, जो ईश्वर और अन्य लोगों के साथ संबंध में मौजूद है। यही मेरी परिपूर्णता का सार है।तुम्हें सम्पूर्णता कहाँ मिलती है?

- फादर पायस लकड़ा


📚 REFLECTION

In the gospel passage today Jesus Christ calls His followers as sheep and to Himself as the shepherd. The image of the good shepherd is very important to us. It is because this image refers to those who take care of the Christian community, the pastor. Our bishops and priests are called pastors because they take care and guide the Christian community called diocese and the parish. And so the important word in today’s gospel is the word, ‘shepherd.’ This is a word of frequent occurrence in the Bible. It contains within it the meaning of a ‘guardian.’ Sometimes the word ‘pastor’ is used instead of the ‘shepherd’ (Jer. 2:8; 3:15). Figuratively this word is used to represent the relation of rulers to their subjects and of God to His people (John 10:11, 14; 1Pet. 2:25; 5:4).

But whether, figurative or literal, there are so many kinds of shepherds around us today and not all of them are good. Jesus is the true Good Shepherd and true Good Shepherd does not work for remuneration or commission but for mission.

I will invite you to reflect on the word ‘shepherd.’ First, we are called to be good shepherds for others just like our Lord Jesus Christ.

Second is we are called to feed the sheep entrusted to us. Somebody said that we are called especially to strengthen the weak, to heal the sick, to bind up the injured. Our Lord Jesus Christ did precisely that throughout His life on earth. At the Last Supper, after washing the feet of the apostles, He said, “I have given you example, so that you may do what I have done.”

We are called to lay down our lives for the sheep. And so let us pray to God that we will be another Christ for others today.

-Fr. Pius Lakra

📚 मनन-चिंतन -2

पेत्रस एक परंपरावादी तथा रूढीवादी यहूदी था। वह भी यहूदी विश्वास और परंपरा की द्रष्टिसे गैर-यहूदियों की मुक्ति को देखता था। हालांकि पेंतेकोस्त के दिन पवित्र आत्मा से पूर्ण होकर वह प्रचार तथा चमत्कार दिखा कर मिशन के विस्तार में महान कार्य कर रहा था किन्तु वह गैर-यहूदियों के प्रति अपनी पैदायशी यहूदी पूर्वाग्रहों से अभी भी ग्रसित था। गैर-यहूदियों की मुक्ति का प्रश्न उसके मिशन कार्यों में एक ज्वलंत प्रश्न था। अपनी परम्परागत तथा रूढिवादी पालन-पोषण के कारण वह अपनी सोच को उनके प्रति उदार और व्यापक नहीं बना पा रहा था।

जब पेत्रुस एक दिन प्रार्थना कर रहा था तब प्रभु ने उसके जीवन तथा सोच को मूल-भूत रूप से बदलने वाले दिव्य दर्शन दिये। यदि पेत्रुस ने अपने प्रार्थना के समय का पाबंदी के साथ पालन नहीं किया होता तो शायद वह ईश्वर के इस दिव्य दर्शन को ग्रहण नहीं कर पाता। हम प्रार्थना में ईश्वर के साथ अपना समय बिताते तथा उन्हें सुनते हैं। यदि हम उनके साथ प्रार्थना में समय नहीं बिताये तो ईश्वर हमारी सोचसमझ को शायद ही बदले। इसलिये हमारे संघर्षों एवं संदेह में ही हमें सदैव प्रार्थना करते रहना चाहिये।

ईश्वर हमें असुविधाजनक परिस्थितियों के अनुभवों के द्वारा झकझोरते तथा हमें बदलाव की ओर ले जाते हैं। ईश्वर अपने दर्शन के द्वारा पेत्रुस के जीवन में हस्तक्षेप करते तथा उन्हें अपने विचारों तथा योजना से अवगत कराते हैं। ईश्वर का यह प्रकटीकरण पेत्रुस को हिला देता है जैसा कि उसके आरंभिक प्रतिक्रियाओं से पता चलता है, जब वह कहता है, ’प्रभु कभी नहीं’। ईश्वर ने पेत्रुस के परंपरावादी सोच को झाकझोर दिया था। कई बार ईश्वर को हमें बदलने के लिये झकझोरना तथा झटका देना पडता है। यदि हम आरामदायक स्थिति में रहते हैं तो हमें बदलने की आवश्यकता नहीं पडती किन्तु यदि हम अचानक नयी और विकट परिस्थिति में पड जाते हैं तो पाते हैं कि हमारे पुराने तौर-तरीके नयी परिस्थितियों में कारगर सिद्ध नहीं होगें। पेत्रुस के जीवन की इस घटना से हमें सिखना चाहिये कि हमें हर परिस्थिति में ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिये तथा उनके बताये मार्गों पर चलना चाहिये।

फादर रोनाल्ड वाँन

📚 REFLECTION


Peter was a traditional and a staunch Jew. He too looked at the salvation of the non-Jews through the prism of Jewish traditions and belief system. Although at the Pentecost he was filled with Holy Spirit and was moving about doing an extensive ministry of preaching and healing. Yet he was not freed from the prejudices that were inbuilt in him. The question about the salvation of the gentiles must have been a burning issue in his ministry. however knowing his traditional upbringing, it was hard for him to think broadly and inclusively.

It was while Peter was praying that the Lord gave him this life-changing vision. If Peter had skipped his prayer time, he might have missed what God wanted to do through him. It is in prayer we spent our time with God and listen to him. God will not change your thinking if you rarely spend time alone with Him.

Secondly God changes us by shaking and shocking us through uncomfortable circumstances. God through the vision intervened in Peter’s life with his ideas and His agenda! And God’s revelation and agenda shocked Peter, as seen by his surprised reply, “By no means, Lord!” It was Lord who had shaken Peter’s traditional mindset.

The Lord often has to shock and shake us to get us to change. If we’re comfortable, we don’t feel any need to change. But if we’re suddenly hit with a new situation that’s outside our comfort zone, we realize that our old ways of thinking will not work anymore. We have to listen to the Lord and trust Him to do something we can’t do in our own strength.

-Fr. Ronald Vaughan