मई 01, 2024, बुधवार

पास्का का पाँचवाँ सप्ताह

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

📒 पहला पाठ : प्रेरित-चरित 15:1-6

1) कुछ लोग यहूदिया से अन्ताखि़या आये और भाइयों को यह शिक्षा देते रहे कि यदि मूसा से चली आयी हुई प्रथा के अनुसार आप लोगों का ख़तना नहीं होगा, तो आप को मुक्ति नहीं मिलेगी।

2) इस विषय पर पौलुस और बरनाबस तथा उन लोगों के बीच तीव्र मतभेद और वाद-विवाद छिड़ गया, और यह निश्चय किया गया कि पौलुस तथा बरनाबस अन्ताखि़या के कुछ लोगों के साथ येरुसालेम जायेंगे और इस समस्या पर प्रेरितों तथा अध्यक्षों से परामर्श करेंगे।

3) अन्ताखि़या की कलीसिया ने उन्हें विदा किया। वे फ़ेनिसिया तथा समरिया हो कर यात्रा करते हुए वहाँ के सब भाइयों को ग़ैर-यहूदियों के धर्म-परिवर्तन के विषय में बता कर बड़ा आनन्द प्रदान करते थे।

4) जब वे येरुसालेम पहुँचे, तो कलीसिया, प्रेरितों तथा अध्यक्षों ने उनका स्वागत किया और उन्होंने बताया कि ईश्वर ने उनके द्वारा क्या-क्या कर दिखाया है।

5 फ़रीसी सम्प्रदाय के कुछ सदस्य, जो विश्वासी हो गये थे, यह कहते हुए उठ खड़े हुए कि ऐसे लोगों का ख़तना करना चाहिए और उन्हें आदेश देना चाहिए कि वे मूसा-संहिता का पालन करें।

6) प्रेरित और अध्यक्ष इस समस्या पर विचार करने के लिए एकत्र हुए।

📙 सुसमाचार : योहन 15:1-8

1) मैं सच्ची दाखलता हूँ और मेरा पिता बागवान है।

2) वह उस डाली को, जो मुझ में नहीं फलती, काट देता है और उस डाली को जो फलती है, छाँटता है। जिससे वह और भी अधिक फल उत्पन्न करें।

3) मैंने तुम लोगो को जो शिक्षा दी है, उसके कारण तुम शुद्ध हो गये हो।

4) तुम मुझ में रहो और मैं तुम में रहूँगा। जिस तरह दाखलता में रहे बिना डाली स्वयं नहीं फल सकती, उसी तरह मुझ में रहे बिना तुम भी नहीं फल सकते।

5) मैं दाखलता हूँ और तुम डालियाँ हो। जो मुझ में रहता है और मैं जिसमें रहता हूँ वही फलता है क्योंकि मुझ से अलग रहकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते।

6) यदि कोई मुझ में नहीं रहता तो वह सूखी डाली की तरह फेंक दिया जाता है। लोग ऐसी डालियाँ बटोर लेते हैं और आग में झोंक कर जला देते हैं।

7) यदि तुम मुझ में रहो और तुम में मेरी शिक्षा बनी रहती है तो चाहे जो माँगो, वह तुम्हें दिया जायेगा।

8) मेरे पिता की महिमा इस से प्रकट होगी कि तुम लोग बहुत फल उत्पन्न करो और मेरे शिष्य बने रहो।

📚 मनन-चिंतन

क्या कोई भी व्यक्ति ईश्वर के विरुद्ध चलकर अपने जीवन में तरक्की कर सकता है? अगर ईश्वर ही सब प्रकार के वरदानों के दाता हैं, सब कृपाओं के स्रोत हैं, तो हम ईश्वर से दूर रहकर हम कुछ भी नहीं कर सकते। आज प्रभु येसु हमें याद दिलाते हैं कि वह दाखलता हैं और हम उसकी डालियाँ हैं। जब तक हम उनसे जुड़े रहेंगे तब तक हम खूब फल देंगे, लेकिन अगर हम उनसे जुड़े नहीं रहेंगे तो सूख जाएंगे। हमारे जीवन की सफलताएं ही हमारे फल हैं। ईश्वर की संतान होने के कारण हमें दुनिया को ईश्वर का साक्ष्य देना है, लेकिन यदि हम ईश्वर जुड़े नहीं रहेंगे तो ऐसा कैसे कर सकते हैं?

प्रभु येसु से हम कैसे जुड़े रह सकते हैं ताकि हम खूब फल उत्पन्न करें। कलिसिया बहुत सारी आध्यात्मिक गतिविधियों का आयोजन करती है, उनमें भाग लेकर हम ईश्वर से और अधिक गहराई से जुड़ सकते हैं। जब हम मिस्सा बलिदान में प्रभु येसु के शरीर और रक्त को ग्रहण करते हैं तो हम उनके साथ एक हो जाते हैं। जब हम पापस्वीकार संस्कार में ईश्वर से मेल-मिलाप करते हैं तो हम उनके साथ एक हो जाते हैं। जब हम अपने परिवार में एक साथ मिलकर पारिवारिक प्रार्थना करते हैं तो न केवल पूरा परिवार एकसूत्र में बँधता है बल्कि पूरा परिवार ईश्वर से भी जुड़ता है। पवित्र माला विनती भी माता मरियम के द्वारा ईश्वर से जुडने का एक साधन है।

- फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Can anyone flourish in his life by going against God? If God is the giver of all gifts and sources of all blessings, then by living away from God we can do nothing in our life. Today Jesus reminds us that he is the vine and we are the branches . As long as we are attached with him will will bear more fruit , but if we are cut off from him then we will whither away. Our fruits are the daily small achievements of our life. If we are the children of God then we need to be witnesses of God before the world , but if we are not connected with God then how can we bear witness to him?

How do we remain in the Lord and produce more fruit? Mother church offers us various spiritual activities , and invites us to participate in them, thus we can strengthen our relationship with God and enrich our soul. When we receive the body and blood of Jesus in the holy Eucharist, we become one with him, when we reconcile with God in the sacrament of confession, then we become one with God. When we pray together in the family, not only the family unites with God but also the family members unite with one another . We can also be united with God through mother Mary by means of reciting the holy rosary daily.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)

📚 मनन-चिंतन- 2

जीवन में नवीनता के लिए साफ सफाई जरुरी है । मैं अलमारी से, या अलमारियों से सब कुछ खींचता हूं कि क्या मुझे अभी भी वास्तव में जरूरत है ये चीजें, उन वस्तुओं को चाहिए जो अब फर्श पर पड़ी हैं। जैसे ही मैं प्रत्येक चीज़ को पकड़ता हूं, मैं पूछता हूं: क्या मुझे यह पसंद है? क्या मुझे इसकी आवश्यकता है? क्या यह वस्तु जीवन या आनंद लाती है? क्या मुझे इस कपड़े अच्छा लग रहा है? उसी तरह, प्रभु वचन मुझे अपने दिल की सफाई या ऑडिट करने के लिए आमंत्रित कर रहा है कि मैं क्या कर रहा हूं और मैं कौन हूं। शायद मुझे अपने काम पर पुनर्विचार करने के लिए बुलाया गया है: क्या यह काम मुझे जीवन और आनंद दे रहा है, और ऐसा करने से, दूसरों के लिए जीवन और आनंद लाया जा सकता है? क्या यह व्यवहार मेरे हृदय में मसीह के प्रेम और आनंद को प्रतिबिंबित करता है, या क्या मैं मुरझाती हुई डाली की तरह मृत और बेजान हूं? यीशु हमें याद दिला रहे हैं कि ईश्वर हमारी मुख्य है, वह नींव जिससे अच्छाई, जीवन और प्रेम बहता है। उन शाखाओं को रखें जो इसे दर्शाती हैं और जो शाखाएं मृत और बेजान हैं उन्हें त्याग दें। ऐसा करने में, हम नए विकास के लिए अवसर प्रदान करते हैं, जीवन जो फल दे सकता है।

- फादर पायस लकड़ा


📚 REFLECTION

In today’s gospel Jesus says of Himself as the true vine and we are the branches (v. 5). For the Jews, the vine figure is rich in meaning because the land of Israel is covered with numerous vineyards. It has religious connotations too.

When Jesus calls Himself the ‘true vine’ and we are ‘the branches,’ He teaches us that our spiritual inheritance and spiritual nourishment comes from Him alone and not from our association with anyone or any group although they can help us. We receive our spiritual life of grace from our connection with Him. We cannot be saved unless we establish an intimate living relationship with Him. If we disconnect ourselves from Him we are spiritually worthless for He says, “without me you can do nothing,’ (v. 5).

Jesus shows us an example of spiritual connection because, in His public ministry, Jesus remains connected to God which becomes the source of His strength. We find Him praying to the Father because He finds union and fidelity to His mission in prayer..

This connection with Him must results in great fruitfulness. For we cannot be saved by simply claiming we are Christians and then doing something contrary. Our life must bear fruit because uselessness invites disaster. How does the vine become fruitful? It is by carefully pruning the non-bearing branches in order for the vine to conserve its strength for bearing good fruit. Jesus uses this image to describe the kind of fruit and life He produces in those who are united with Him. And it is the fruit of “righteousness, peace, and joy in the Holy Spirit,” (Rom 14:17).

“We cut ourselves off from Christ by our sins, but above all by the sin of pride. Beware of pride!”

-Fr. Pius Lakra

📚 मनन-चिंतन -3

आज हमारे समक्ष मनन चिंतन के लिए दाखलता और डालियॉं का विवरण है। जहॉं प्रभु हम सबको दाखलता और डालियॉं का संबंध बताते हुए उनमें बने रहनें के लिए आहवान कर रहे है। प्रभु में बने रहने से क्या फायदा है? प्रभु में बने रहने से हम कभी नहीं मुरझायेंगे, हम जो कुछ प्रभु से प्रार्थना में मॉंगेंगे वह हमें मिल जायेगी तथा हमारे लिए कुछ भी असंभव नहीं होगा, जिस प्रकार संत पौलुस कहते है, ‘‘जो मुझे बल प्रदान करते हैं, मै उनकी सहायता से सब कुछ कर सकता हॅूं’’ (फिल्लपि. 4:13)।

प्रभु में बने रहने का तात्पर्य क्या है? प्रभु में बने रहने का तात्पर्य है कि उनकी शिक्षा में बने रहना यह हमें बताता है कि हम केवल उनके वचनों को पढ़े, सुने या याद ही नहीं करें परंतु उन वचनों को जिये, उन वचनों को हमारे जीवन में झलकने दे जिससे जो कोई हमें देंखे या सम्पर्क करें तो उन्हे जीता जागता, चलता फिरता सुसमाचार के दर्शन हो या अनुभव हो। जिस प्रकार संत याकूब अपने पत्र 1ः27-25 में कहते है, ‘‘वचन के श्रोता ही नहीं, बल्कि उसके पालनकर्ता भी बनें। जो व्यक्ति वचन सुनता है, किन्तु उसके अनुसार आचरण नही करता, उस मनुष्य के सदृश है, जो दर्पण में अपना चेहरा देखता है। वह अपने को देख कर चला जाता है और उसे याद नहीं रहता कि उसका अपना स्वरूप कैसा है। किन्तु जो व्यक्ति उस संहिता को, जो पूर्ण है और हमें स्वतन्त्रता प्रदान करती है, ध्यान से देखता और उसका पालन करता है। वह उस श्रोता के सदृश नहीं, जो तुरंत भूल जाता है, बल्कि वह कर्ता बन जाता और उस संहिता को अपने जीवन में चरितार्थ करता है।’’

इसलिए हम श्रोता ही नहीं परंतु वचन के पालनकर्ता के लिए बुलाये गये है। अगर येसु का वचन कहता है कि हमें अपने पड़ोसियों को अपने समान प्रेम करना चाहिए तो ‘‘हम वचन से नहीं, कर्म से, मुख से नहीं, ह्दय सेे एक दूसरे को प्यार करें’’ (1योहन 3:18)।

प्रभु में बने रहने से प्रभु का जीवन हमारे जीवन में संचार होने लग जाता है और हम प्रभु में एक हो जाते है और जो कार्य प्रभु इस संसार में करना चाहता है वह हमारे जीवन द्वारा पूर्ण होता है। प्रभु इस संसार में बहुत फल उत्पन्न करना चाहता है परंतु उसको पूर्ण होने के लिए हम सभी को उनसे जुड़े रहने की जरूरत है। आईये आज के दिन हम प्रार्थना करें कि हम निरंतर प्रभु से जुड़े जिस प्रकार संत पौलुस जुड़े हुए थे। वे रोमियों के नाम पत्र में कहते हैं, ‘‘कौन हम को मसीह के प्रेम से वंचित कर सकता है? मुझे दृढ़ विश्वास है कि न तो मरण या जीवन, न स्वर्गदूत या नरकदूत, न वर्तमान या भविष्य, न आकाश या पाताल की कोई शक्ति और न समस्त सृष्टि में कोई या कुछ हमें ईश्वर के उस प्रेम से वंचित कर सकता है, जो हमें हमारे प्रभु ईश्वर मसीह द्वारा मिला है’’ (रोमियो 8ः35,38-39)।

फ़ादर डेनिस तिग्गा

📚 REFLECTION


In the entire bible we find God trying to establish a relationship with the humans and for this time to time God makes a covenant with the peope so that He may be our Lord and we be his people. Today’s Gospel tells us about the connection about that relationship.

In today’s gospel Jesus with a beautiful parable sets before us the connection between God and human.

Today we have the description of vine and the branches for our reflection, where telling the connection between vine and the branches Lord invites us to remain or abide in him. Let’s see what are the benefits of remaining or abiding in him- By Remaining in the Lord we will never fade, what ever we ask Lord in prayer we will receive, all the more nothing will be impossible for us as St. Paul says, “I can do all things with the help of him who strengthens me.” (Philipp.4:13).

What is the meaning of abiding in the Lord? It means to remain/abide in his teachings which tells us that we not only have to read, listen and memorize his words but to live those words, those words should reflect in our lives so that whoever comes in contact with us they may experience the living gospel. As St. James says in his letter 1:22-25, “Be doers of the word, andnotmeely hearers who deceive themselves. For if any are hearers of the word and not doers, they are like those wholook at themselvesin a mirror; for they look at themselves and, on going away, immediately forget what they were like. But those who look into the perfect law, the law of liberty, and persevere, become not hearers who forget but doers who act.”

That’s why we are called not merely for hearers but to be the doers of the word. If the word of God says love your neibhours as yourself then “let us love, not in word or speech, but in truth and action.” (1Jn 3:18)

By abiding in God, the life of God start generating in us and we become one in the Lord; and the work that God wants in this world reaches to its fulfillment through our lives. God wants to bear much fruits in this world but for that to happen in its fulfillment we all need to remain in him. Let’s pray today that we may always remain united with him as St. Paul remained. St. Paul says in his letter, “Who will separate us from the love of Christ? Will hardship, or distress, or persecution, or famine, or nakedness, or peril, or sword? For I am convinced that neither death, nor life, nor angels, nor rulers, nor things present, nor things to come, nor powers, nor height, nor depth, nor anything else in all creation, will be able to separate us from the love of God in Christ Jesus our Lord. (Romans 8:35, 38-39).

-Fr. Dennis Tigga

श्रमिक संत यूसुफ़

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

📒 पहला पाठ: उत्पत्ति 1:26-2:3

26) ईश्वर ने कहा, ''हम मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनायें, यह हमारे सदृश हो। वह समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों घरेलू और जंगली जानवरों और जमीन पर रेंगने वाले सब जीवजन्तुओं पर शासन करें।''

27) ईश्वर ने मनुष्य को अपना प्रतिरूप बनाया; उसने उसे ईश्वर का प्रतिरूप बनाया; उसने नर और नारी के रूप में उनकी सृष्टि की।

28) ईश्वर ने यह कह कर उन्हें आशीर्वाद दिया, ''फलोफूलो। पृथ्वी पर फैल जाओ और उसे अपने अधीन कर लो। समुद्र की मछलियों, आकाश के पक्षियों और पृथ्वी पर विचरने वाले सब जीवजन्तुओं पर शासन करो।''

29) ईश्वर ने कहा, मैं तुम को पृथ्वी भर के बीज पैदा करने वाले सब पौधे और बीजदार फल देने वाले सब पेड़ देता हूँ। वह तुम्हारा भोजन होगा। मैं सब जंगली जानवरों को, आकाश के सब पक्षियों को,

30) पृथ्वी पर विचरने वाले जीवजन्तुओं को उनके भोजन के लिए पौधों की हरियाली देता हूँ'' और ऐसा ही हुआ।

31) ईश्वर ने अपने द्वारा बनाया हुआ सब कुछ देखा और यह उसको अच्छा लगा। सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ यह छठा दिन था।

1) ईश्वर ने जिन जंगली जीव-जन्तुओं को बनाया था, उन में साँप सब से धूर्त था। उसने स्त्री से कहा, ''क्या ईश्वर ने सचमुच तुम को मना किया कि वाटिका के किसी वृक्ष का फल मत खाना''?

2) स्त्री ने साँप को उत्तर दिया, ''हम वाटिका के वृक्षों के फल खा सकते हैं।

3) परन्तु वाटिका के बीचोंबीच वाले वृक्ष के फलों के विषय में ईश्वर ने यह कहा - तुम उन्हें नहीं खाना। उनका स्पर्श तक नहीं करना, नहीं तो मर जाओगे।''

अथवा - पहला पाठ: कलोसियों 3:14-15, 17, 23-24

14) इसके अतिरिक्त, आपस में प्रेम-भाव बनाये रखें। वह सब कुछ एकता में बाँध कर पूर्णता तक पहुँचा देता है।

15) मसीह की शान्ति आपके हृदय में राज्य करे। इसी शान्ति के लिए आप लोग, एक शरीर के अंग बन कर, बुलाये गये हैं। आप लोग कृतज्ञ बने रहें।

17) आप जो भी कहें या करें, वह सब प्रभु ईसा के नाम पर किया करें। आप लोग उन्हीं के द्वारा पिता-परमेश्वर को धन्यवाद देते रहें।

23) आप लोग जो भी काम करें, मन लगा कर करें, मानों मनुष्यों के लिए नहीं, बल्कि प्रभु के लिए काम कर रहे हों;

24) क्योंकि आप जानते हैं कि प्रभु पुरस्कार के रूप में आप को विरासत प्रदान करेगा। आप लोग प्रभु के दास हैं।

📙 सुसमाचार : मत्ती 13:54-58

54) वे अपने नगर आये, जहाँ वे लोगों को उनके सभागृह में शिक्षा देते थे। वे अचम्भे में पड़ कर कहते थे, "इसे यह ज्ञान और यह सामर्थ्य कहाँ से मिला?

55) क्या यह बढ़ई का बेटा नहीं है? क्या मरियम इसकी माँ नहीं? क्या याकूब, यूसुफ़, सिमोन और यूदस इसके भाई नहीं?

56) क्या इसकी सब बहनें हमारे बीच नहीं रहतीं? तो यह सब इसे कहाँ से मिला?"

57) पर वे ईसा में विश्वास नहीं कर सके। ईसा ने उन से कहा, "अपने नगर और अपने घर में नबी का आदर नहीं होता।"

58) लोगों के अविश्वास के कारण उन्होंने वहाँ बहुत कम चमत्कार दिखाये।

📚 मनन-चिंतन

आज श्रमिक संत जोसफ का पर्व है, जो श्रमिकों के संरक्षक संत और श्रम की गरिमा का सम्मान करते हैं। संत पिता पियुष XII ने मानव श्रम के मूल्य को पहचानने के लिए 1955 में श्रमिक संत जोसफ के पर्व की स्थापना की। द्वितीय वाटिकन परिषद ने समाज की सेवा और ईश्वर की योजना में अपना योगदान देने हेतु काम अर्थात श्रम के महत्व पर जोर दिया। संत पापा फ्राँसिस ने जोर देकर कहा कि मनुष्य की गरिमा काम से आती है, शक्ति या धन से नहीं। एक विनम्र बढ़ई, संत जोसेफ ने, पवित्र परिवार के लिए दैनिक ज़रूरतों को अपने श्रम से कमाया और ईश्वर दिव्य योजना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस पर्व के दिन, हमें काम की पवित्रता और ईश्वर की दृष्टि में उसके मूल्य की याद दिलाई जाती है। चाहे हमारा काम शारीरिक हो या बौद्धिक, छोटा या प्रतिष्ठित, हमें समर्पण और सेवा की भावना के साथ इसे गले लगाने के लिए आह्वान किया जाता है जैसा संत जोसफ ने किया।

संत जोसेफ का यह पर्व हमें श्रमिकों के अधिकारों और गरिमा का सम्मान करते हुए विश्व स्तर पर समान कामकाजी परिस्थितियों का समर्थन करने के लिए प्रेरित करता है। आइए हम अपने कार्यों में संत जोसेफ के मूल्यों का अनुकरण करें, उत्कृष्टता, अखंडता और करुणा के लिए सदा प्रयास करते रहें। श्रमिक संत जोसेफ का पर्व हमें प्रोत्साहित करता है कि हम अपने कामों को ईश्वर के सृष्टि और मुक्ति के सतत कार्यों में सहभागिता मानते हुए हमारे विश्वास को अपने रोजमर्रा के जीवन में साकार करें। हमारा श्रम, जब प्रेम से और ईश्वर की इच्छा के अनुसार होता है, तो वह पवित्रता का स्रोत और पृथ्वी पर ईश्वर के राज्य की स्थापना का एक साधन बन सकता है।

- फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांत


📚 REFLECTION

Today we celebrate the Feast of St. Joseph the Worker, honouring the patron saint of workers and the dignity of labour. In 1955, Pope Pius XII established this Feast to acknowledge the significance of human labour. The Second Vatican Council emphasized that work has a crucial role in serving society and contributing to God’s plan. Pope Francis has emphasized that the dignity of man comes from work, not from power or money.

On this feast day, we are reminded of the sanctity of work and the value it holds in God's eyes. Whether our work is manual or intellectual, menial or prestigious, we are called to approach it with the same spirit of dedication and service that St. Joseph demonstrated. St. Joseph the Worker's Feast prompts us to champion equitable working conditions globally, respecting workers' rights and dignity. Let's emulate St. Joseph's values in our work, striving for excellence, integrity, and compassion.

The Feast of St. Joseph the Worker encourages us to bring our faith into our everyday lives by treating our work as a way to join in God's continuous work of creation and redemption. It reminds us that our labor, when performed with love and in accordance with God's will, can become a source of holiness and a means of creating the Kingdom of God on earth.

-Fr. Fr. Preetam Vasuniya - Indore Diocese