मई 24, 2024, शुक्रवार

सामान्य काल का सातवाँ सप्ताह

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पहला पाठ : याकूब का पत्र 5:9-12

9) भाइयो! एक दूसरे की शिकायत न करें, जिससे आप पर दोष न लगाया जाये। देखिए, न्यायकर्ता द्वार पर खड़े हैं।

10) भाइयो! जो नबी प्रभु के नाम पर बोले हैं, उन्हें सहिष्णुता तथा धैर्य का अपना आदर्श समझें।

11) हम उन्हें धन्य समझते हैं जो दृढ़ बने रहे। आप लोगों ने योब के धैर्य के विषय में सुना है और आप जानते हैं कि प्रभु ने अन्त में उसके साथ कैसा व्यवहार किया; क्योंकि प्रभु दया और अनुकम्पा से परिपूर्ण है।

12) मेरे भाइयो! सब से बड़ी बात यह है कि आप शपथ नहीं खायें- न तो स्वर्ग की, न पृथ्वी की ओर न किसी अन्य वस्तु की। आपकी बात इतनी हो - हाँ की हाँ, नहीं की नहीं। कहीं ऐसा न हो कि आप दण्ड के योग्य हो जायें।

सुसमाचार : सन्त मारकुस का सुसमाचार 10:1-12

1) वहाँ से विदा हो कर ईसा यहूदिया और यर्दन के पार के प्रदेश पहुँचे। एक विशाल जनसमूह फिर उनके पास एकत्र हो गया और वे अपनी आदत के अनुसार लोगों को शिक्षा देते रहे।

2 फ़रीसी ईसा के पास आये और उनकी परीक्षा लेते हुए उन्होंने प्रश्न किया, “क्या अपनी पत्नी का परित्याग करना पुरुष के लिए उचित है?“

3) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया? ’’मूसा ने तुम्हें क्या आदेश दिया?’’

4) उन्होंने कहा, “मूसा ने तो त्यागपत्र लिख कर पत्नी का परित्याग करने की अनुमति दी’’।

5) ईसा ने उन से कहा, ’’उन्होंने तुम्हारे हृदय की कठोरता के कारण ही यह आदेश लिखा।

6) किन्तु सृष्टि के प्रारम्भ ही से ईश्वर ने उन्हें नर-नारी बनाया;

7) इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोड़ेगा और दोनों एक शरीर हो जायेंगे।

8) इस तरह अब वे दो नहीं, बल्कि एक शरीर हैं।

9) इसलिए जिसे ईश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग नहीं करे।’’

10) शिष्यों ने, घर पहुँच कर, इस सम्बन्ध में ईसा से फिर प्रश्न किया

11) और उन्होंने यह उत्तर दिया, ’’जो अपनी पत्नी का परित्याग करता और किसी दूसरी स्त्री से विवाह करता है, वह पहली के विरुद्ध व्यभिचार करता है

12) और यदि पत्नी अपने पति का त्याग करती और किसी दूसरे पुरुष से विवाह करती है, तो वह व्यभिचार करती है’’।

📚 मनन-चिंतन

आज का सुसमाचार ईश्वर द्वारा स्थापित एक मिलन के रूप में विवाह संस्कार को लेकर प्रभु येसु के मन में उनके उच्च सम्मान को दर्शाता है, जहाँ दो इन्सान एक शारीर बन जाते हैं। यह शिक्षा सामाजिक मानदंडों को चुनौती देती है और विवाह में प्रतिबद्धता और निष्ठा के महत्व को पुष्ट करती है। आज का वचन विवाह के विधान अथवा वादों की गम्भीरता की याद दिलाता है, तथा दम्पतियों को चुनौतियों के दौरान दृढ़ बने रहने और किसी भी प्रकार से विघटन के बजाय सुलह की तलाश करने के लिए प्रोत्साहित करता है।

इसके अलावा, प्रभु येसु आपसी रिश्तों में विनम्रता और निःस्वार्थता की आवश्यकता पर जोर देते हैं , क्योंकि हृदय की कठोरता वैवाहिक कलह और तलाक की ओर ले जाती है। कैथोलिक दृष्टिकोण से, आज का वचन, आपसी प्रेम को गहरा करने, क्षमा करने और मेल-मिलाप बनाये रखने का आह्वान करता है, जो कि कलीसिया के प्रति मसीह के बलिदानी प्रेम को दर्शाता है। कुल मिलाकर, आज का वचन विवाह की पवित्रता, प्रतिबद्धता, प्रेम और निष्ठा के माध्यम से इसकी पवित्रता को बनाए रखने के आह्वान के गहन अनुस्मारक के रूप में कार्य करता है, जो विवाह के संस्कार पर कलीसिया की शिक्षाओं को प्रतिध्वनित करता है।

- फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांत


📚 REFLECTION

The Gospel passage reflects Jesus’ high regard for marriage as a union instituted by God, where two become one flesh. This teaching challenges societal norms and reinforces the importance of commitment and fidelity within marriage. It also serves as a reminder of the gravity of the marriage covenant, encouraging couples to persevere through challenges and to seek reconciliation rather than dissolution.

Furthermore, Jesus’ teaching in this passage highlights the need for humility and selflessness within relationships, as he points to the hardness of heart that leads to marital discord and divorce. From a Catholic perspective, this passage calls for a deepening of love and a willingness to forgive and reconcile, mirroring the sacrificial love of Christ for his Church. Overall, Mark 10:1-12 serves as a profound reminder of the sacredness of marriage and the call to uphold its sanctity through commitment, love, and fidelity, echoing the teachings of the Church on the sacrament of marriage.

-Fr. Fr. Preetam Vasuniya - Indore Diocese