चक्र अ के प्रवचन

आगमन का चौथा इतवार

पाठ: इसायाह 7:10-14; रोमियों 1:1-7; मत्ती 1:18-24

प्रवाचक: फादर फादर सीबी जोसफ


आज हम आगमन काल के अंतिम सप्ताह में पहुँच चुके हैं। आज के पाठ हमें मनुष्य जाति के लिये ईश्वर के महान प्यार के बारे में बताते हैं। पहले पाठ में हम सुनते हैं कि यूदा का राजा आहाज़ प्रभु से चिह्न माँगने से इंकार कर देता है। क्योंकि उसके अनुसार यह ईश्वर की परीक्षा लेने के बराबर है। ईश्वर उसे अपने प्यार और दयाभाव का परिचय देते हुये स्वयं ही एक चिह्न देते हैं। वह चिह्न यह था कि एक कुँवारी गर्भवति है, वह एक पुत्र प्रसव करेगी और उसका नाम ‘इम्मानुएल‘ रखा जाएगा जिसका अर्थ है ‘‘ईश्वर हमारे साथ हैं‘‘। ईश्वर आहाज़ को यह यकीन दिलाना चाहते हैं कि ईश्वर अपने भक्तों के साथ रहने वाले हैं और भक्तों की आशा इसी सत्य पर आधारित है। 

आहाज़ ईश्वर के द्वारा दिये हुये वचन पर भरोसा नहीं करता क्योंकि उसे डर था कि अरामियों का राजा उनपर कभी भी आक्रमण कर सकता था। ईश्वर हमेशा हमारे साथ हैं क्योंकि उन्होंने हमें अपने ही प्रतिरूप बनाया है, धरती का संचालक बनाया, पूरी स्वतंत्रता भी दी। इसके बदले में मनुष्य ने ईश्वर को क्या दिया? अपना गिरा हुआ, पाप में फंसा हुआ जीवन! पर ईश्वर ने कभी हमें अकेले नहीं छोड़ा।

यदि हम अपने गिरे हुए जीवन को देखें तो हमने बहुत बार प्रभु की परीक्षा ली है, जब हमने उन पर विश्वास नहीं किया, प्रार्थना में अपने स्वार्थ के लिये दुआ माँगी, हमने दूसरों को कुछ दिया ताकि हमें भी कुछ मिले। पर ईश्वर हमारी सभी ज़रूरतों को जानते हैं और सही समय पर अपने प्रेम के खातिर उन्हें पूरा करते हैं।

आज के दूसरे पाठ में संत पौलुस यह दर्शाते हैं कि ईश्वर की प्रतिज्ञा प्रभु येसु के जन्म में पूरी होती है। संत पौलुस के जीवन में हमें एक महत्वपूर्ण गुण देखने को मिलता है और वह है अपनी बुलाहट के प्रति सर्मपण। अपना मन परिवर्तन होने के बाद सुसमाचार के प्रचार के लिये वे अपने को एक दास या सेवक कहते हैं। वे एक महान प्रेरित बनने नहीं पर एक महान कार्य के लिये बुलाये जाते हैं वे गैर-यहूदियों के बीच में सुसमाचार प्रचार के लिये चुने जाते हैं।

खीस्तीय जीवन हमारे लिये एक बुलाहट है और हमारा यही फर्ज़ है कि अपने जीवन द्वारा हम सुसमाचार फैलाएं। संत पौलुस के अनुसार सुसमाचार का सार विश्वास की अधीनता है। हम सभी मनुष्य बपतिस्मा द्वारा ईश्वर की प्रजा बन चुके हैं। खीस्तान होने के नाते हमारे उत्तरदायित्व को हम अपने सच्चे खीस्तीय जीवन के ज़रिये ही निभा सकते हैं। यह खीस्तीय जीवन क्या है? यह दया, प्रेम, क्षमा का जीवन है। ये तो वे पद चिह्न हैं जिन पर प्रभु मसीह स्वयं चले थे।

आज का सुसमाचार हमें मुक्ति कार्य के एक महत्वपूर्ण मोड़ के बारे में बताता है। ईश्वर के इस कार्य में संत यूसुफ की महान भूमिका दिखाई गयी है। एक साधारण मनुष्य के लिये किसी गर्भवती महिला से शादी करना कोई साधारण बात नहीं है। हर कोई चाहता है कि अपना जीवन अपनी ही इच्छा के अनुसार जीये और शायद यूसुफ ने भी यही चाहा था। उन्हें मरियम के जैसे ईश-दर्शन प्राप्त नहीं हुआ, पर एक स्वप्न के ज़रिये संदेश मिलता है। स्वप्न हमारे लिये सच्चाई नहीं होता पर यूसुफ उसे ईश्वर का आदेश मानकर पालन करते हैं।

संत मत्ती यह दर्शाते हैं कि प्रभु येसु का जन्म ईश्वर की प्रतिज्ञा का कार्यान्वयन है। येसु के आने से पहले पवित्र आत्मा की एक अलग पहचान थी, वे ईश्वर की सच्चाई मनुष्यों के लिये लाते थे, नबियों को बोलने की वाणी देते थे और लोगों को सच्चाई की राह दिखाते थे। और अब उनको एक नया कार्य सौंपा गया है। 

ईसा के स्वर्गारोहण के बाद अब वे हमेशा हमारे साथ हैं। इसलिये हम खीस्तीयों को पवित्र आत्मा से प्रेरित होकर हर परिस्थिति में ईश्वर की इच्छा का पालन करना चाहिये। ईश्वर हर समय, हर परिस्थिति में अपना संदेश हमको देते रहते हैं। उसे हमें पहचानना है, उसपर मनन् चिंतन करना है और उसी के आधार पर जीवन जीना है।


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