चक्र अ के प्रवचन

चालीसे का पहला इतवार

पाठ: उत्पत्ति ग्रंथ 2:7-9,3:1-7; रोमियों 5:12-19; मत्ती 4:1-11

प्रवाचक: फादर माईकल सबास्टीन


प्रभु येसु के मानवीय जीवन को स्वीकार करना खीस्तीयों के जीवन में एक बड़ी कठिनाई थी यद्दपि पवित्र बाइबिल में येसु के मानवीय स्वरूप को प्रकट करने का भरसक प्रयास किया गया है। प्रभु येसु ने मानव की तरह भूख, प्यास, दुःख-दर्द और संकट का अनुभव किया। उन्हें भी गुस्सा आया और वे दुखित होकर रोये भी। यह हम सब समझते हैं। लेकिन बाइबिल हमें इससे भी बढ़कर सटीक रूप से प्रभु येसु के मानव होने का प्रमाण देती है। प्रभु येसु भी परीक्षित हुए, उन्हें भी प्रलोभन झेलना पड़ा जो सामान्यतः मनुष्य के जीवन का भाग है।

आज का सुसमाचार प्रभु येसु के अपने मिशन शुरू करने के पहले की परीक्षा का विस्तृत रूप प्रस्तुत करता है। मरुस्थल में शैतान ने प्रभु येसु की परीक्षा ली और उन्हें झूठे नबी की संज्ञा दी। उसने संसार का वैभव, शान और शक्ति दिखाकर प्रभु येसु को बहकावे में लाने का प्रयास किया। अतः इससे साफ़ नज़र आता है कि क्रूस पर मरण तक प्रलोभन उनके जीवन में भी आता रहा। सुसमाचार कहता है कि लोग उनसे ईश्वर होने का चिह्न माँगते, प्रभावशाली कार्य करने की आशा करते तथा उन्हें संसार का शक्तिशाली राजा बनाना चाहते हैं। वे यह कहते हैं कि वे तभी प्रभु पर विश्वास करेंगे जब प्रभु क्रूस पर से उतरकर स्वयं को बचायें। पर प्रभु येसु इन सभी बातों का विरोध करते हैं और हमेशा ईश्वर पिता की इच्छा पूरी करते हैं, अपने आपको ईश्वर की योजना के लिए समर्पित कर देते हैं। 

कभी-कभी यह प्रश्न उठता है कि इन सबकी ज़रूरत ही क्या थी। अर्थात प्रभु येसु को प्रलोभन में पड़ने की क्या आवश्यकता थी। वास्तव में मानवीय रूप की मिसाल छोड़ने के लिए ऐसा होना ज़रूरी था। इसके दो कारण थे। पहला, अगर प्रभु येसु को हम मानवों के जीवन में भागी होना था तो प्रलोभन तथा परीक्षा का अनुभव होना ज़रूरी था, जो मानव जीवन का शुरू से ही अभिन्न अंग रहा है। दूसरी बात यह है कि अगर वे हमारे मुक्तिदाता होते तो शैतान से लड़ना एवं बुराई की शक्ति को नष्ट करना ज़रूरी था। जिस तरह इब्रानियों के पत्र का लेखक कहता है ‘‘उनकी परीक्षा ली गई है और उन्होंने स्वयं दुःख भोगा है, इसलिए वह परीक्षा में दुःख भोगने वालों की सहायता कर सकते हैं।’’ (इब्रानियों 2:18) 

जिस बुराई की शक्ति का सामना प्रभु येसु ने किया वह आज भी संसार में विद्यमान है और हर पल क्रियाशील रहती है; हम कई बार इसकी पहचान नहीं कर सकते हैं। कुछ वर्ष पहले हवार्ड विश्वविद्यालय के कुलपति ने अपने एक वक्तव्य में कहा कि लोगों का विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने का प्रमुख कारण ख्याति पाना, वैभव और धन अर्जित करना था। यह प्रभु येसु के जीवन के प्रलोभन से मिलता-जुलता है। यही सब शैतान ने प्रभु येसु के समक्ष रखा जो मानव की चाहत है, पंसद की चीज है। आज समस्या की बात यह है कि मनुष्य अपनी सही पहचान नहीं कर पा रहा है कि वह किसका है ईश्वर का या संसार का और उसे किसके लिए जीना है। मानव जीवन में बुराई का रास्ता छल-कपट से अच्छा और आकर्षक रूप लेकर आता है। 

इसी तरह आज का पहला पाठ हेवा की परीक्षा और प्रलोभन में डाले जाने का मनोवैज्ञानिक चित्र प्रस्तुत करता है। हेवा के मन में बगीचे का सुन्दर पेड़ और उस पर लगे लुभावने फल को देखकर लालच उत्पन्न होता है और वह अपना संयम खो बैठती है। लालच ईश्वर प्रदत्त मार्ग के विपरीत ले जाने वाली चीज़ है और इसका मानव जीवन में आना निश्चित है क्योंकि यह उत्पत्ति से ही यह मानव जीवन से जुड़ा हुआ है। इसलिए सही निर्णय लेने के लिए सावधानी बरतना और अपने को संयम में रखना अतिआवश्यक है। यह सब जानते हुए भी क्या हम दुनिया का आकर्षण, वैभव, मोह-माया, प्रताप, महिमा इत्यादि को हमसे ईश्वरीय जीवन को छीनने दें? क्या हम इन सब पर विजय पा कर ईश्वर से हमारा रिश्ता मज़बूत नहीं कर सकते हैं? हाँ हमें इन सबके परे सच्चे ईश्वर को पाने की हमारी इच्छा को मज़बूत करना है। यही हमारे मानव जीवन की परीक्षा और संघर्ष है। 

प्रभु येसु ने स्वयं जीवन में कष्ट झेला है, संघर्ष का सामना किया है। इसलिए वे अपने शिष्यों को सतर्क और प्रार्थना में सजग रहने को कहते हैं। हम जानते हैं कि प्रभु येसु ने खुद हमें एक प्रार्थना सिखायी जिसमें यह अंश लिखा हुआ है- ’’हमें परीक्षा में न डाल, किन्तु बुराई से बचा’’। इस वाक्यांश से हमें यह नहीं समझना चाहिए कि ईश्वर हमारी परीक्षा लेते हैं हमारे जीवन में प्रलोभन भेजते हैं। ऐसा नहीं है। संत याकूब यह कहते हुए हमारी गलतफ़हमी को दूर करते हैं, ‘‘प्रलोभन में पड़ा हुआ कोई भी व्यक्ति यह न कहे कि ईश्वर मुझे प्रलोभन देता है। ईश्वर न तो बुराई के प्रलोभन में पड़ सकता है और न किसी को प्रलोभन देता है’’ (याकूब 1:13)। यह प्रलोभन से बचने की प्रार्थना नहीं है बल्कि प्रलोभन के समय ईश्वर में दृढ़ और मज़बूत बने रहने के लिए प्रार्थना है। संत याकूब के पत्र अध्याय 1 वाक्य 12 में प्रभु येसु कहते हैं ‘‘धन्य है वह जो विपत्ति में दृढ़ बना रहता है, परीक्षा में खरा उतरने पर उसे जीवन का वह मुकुट प्राप्त होगा, जिसे प्रभु ने अपने भक्तो को देने की प्रतिज्ञा की है।’’ आइए हम प्रार्थना करें कि प्रलोभनों में विजयी प्रभु परीक्षाओं में विजयी बनने के लिए हमारी मदद करें।


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