चक्र अ के प्रवचन

वर्ष का नौवाँ इतवार

पाठ: विधि-विवरण 11:18, 26-28,32; रोमियों 3:21-25,28; मत्ती 7:21-27

प्रवाचक: फ़ादर अंथोनी आक्कानाथ


कई साल पहले एक गांव में एक बुढ़िया रहती थी जो धार्मिक कार्यों का ऐसा दिखावा करती थी मानो उससे बढ़कर कोई प्रभुभक्त वह प्रभु नाम सदा अपने मुँह पर लेती थी, लेकिन कभी भी किसी की थोड़ी भी मदद या सहायता नहीं करती थी। सहायता माँगने वालों से वह दूर भागती थी। वह एक ऐसे घर में रहती थी जिसमें सब प्रकार की सुविधायें थी। एक दिन उसे एक ऐसा स्वप्न दिखाई दिया जिसके कारण उसके जीवन में परिवर्तन आया। स्वप्न में उसने देखा कि उसके स्वर्गवास होने के बाद जब वह स्वर्ग पहुँची तो एक स्वर्गदूत उसे रहने का घर दिखाने ले गये। जब जब उसने बडे़-बडे़ बंगले देखे तो सोचा स्वर्गदूत उसे वह घर देंगे। लेकिन स्वर्गदूत ने उसे एक ऐसी झोपड़ी दी जहाँ किसी प्रकार की सुविधा नहीं थी। वह स्वर्गदूत से यह कहकर वाद-विवाद करने लगी कि उसने पूरा जीवन प्रभु भक्त एवं प्रार्थना में बिताया है। लेकिन स्वर्गदूत ने उसे यह बताया कि जो माल पृथ्वी से उसने स्वर्ग भेजा, उससे एक ऐसी ही झोपड़ी ही बन पायी।

कुछ लोग अक्सर यह सोचते हैं कि केवल हर समय प्रार्थना करते हुए प्रभु का नाम लेने से ही वे स्वर्ग राज्य में प्रवेश के लायक बन जाएंगे। लेकिन आज का पवित्र वचन हमसे कहता है कि ऐसा नहीं है, केवल वह व्यक्ति ही स्वर्ग राज्य में प्रवेश कर पायेगा जो हर समय स्वर्गीक पिता की इच्छा पूरी करेगा।

स्वर्ग राज्य में प्रवेश का सही मतलब है हमारी मुक्ति। जिस व्यक्ति की कथनी और करनी में समानता नहीं होती है, वह जीवन में अपने आपको ही धोखा देता रहता है।

प्रभु येसु का सच्चा शिष्य वह है जो अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी शक्ति और अपनी सारी बुद्धि से प्यार करता है और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करता है। (देखिये लूकस 10:27) 

आज हम अपने आपसे यह सवाल पूछें कि क्या मैं प्रभु का वास्तविक शिष्य बनने की यह शर्त पूरा करता हूँ? प्रभु के राज्य के सदस्य फादर बनने, सिस्टर बनने, धर्मप्रचारक बनने या धार्मिक कार्यों में सहभागी होने से ही नहीं होता है। ये सब बातें हमें कोई गारंटी नहीं देती कि हम स्वर्ग में प्रवेश पायेंगे। प्रभु भक्त बनने का और उनके राज्य का सदस्य बनने का केवल एक ही उपाय है जो आज का वचन हमसे कहता है। ‘‘प्रभु की बातें सुनना और उन पर चलना’’। ईश्वर का वचन एक निमंत्रण है और एक चुनौती भी। वचन सुनने और समझने से उनका निमंत्रण हम तक पहुँच जाता है। वचन के अध्ययन से, उसके मनन-चिंतन से, उसके संदेषों से यह निमंत्रण और गहरा बन जाता है। वचन जितना भी प्रेरणादायक क्यों न हो, फिर भी वह चुनौती तब देता है, जब हम उसके अनुसार अपना जीवन जीने का प्रयास करते हैं। इस बात को समझाने के लिये आज प्रभु एक दृष्टांत सुनाते हैं। वचन सुनना-समझना, बालू पर घर बनाने के समान है। जीवन के संघर्षों के समय दिमागी कसरत ज्यादा काम नहीं आती। पर वचन के अनुसार जीवन को ढ़ालना चट्टान पर घर बनाने के सदृश है। कोई भी संकट उस जीवन को हिला नहीं सकता, जो वचन की नींव पर खड़ा हो। विष्वास का प्रमाण जीवन है, धर्मसार के शब्द नहीं। हमको वचन सुनना बहुत पसंद है लेकिन जीवन में उसको सार्थक बनाने से हम पीछे हटते हैं।

ईश्वर कभी भी हमारे द्वारा अपने पड़ोसियों के प्रति किये उपकारों या सहायताओं की अनदेखी नहीं करते हैं। उदारता, सरलता, स्वार्थहीनता, प्रेम एवं दिल से दिये गये दान ये सब केवल प्रभु के वचन का पालनकर्ता ही करता है। शरीर की सफाई जिस प्रकार अत्यावष्यक होती हैं वैसे ही हमारे अंतरतम को भी हमें शुद्ध रखना चाहिए। प्रभु कहते हैं कि लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए हम अपने धर्मकार्यों का प्रदर्षन न करें।

आज का पवित्र वचन यह भी बताता है कि मनुष्य की ईमानदारी इस बात पर टिकी है कि वह कैसे अपनी बातों को कर्मों में बदल सकता है।

हर एक मनुष्य को ईश्वरीय राज्य के मूल्यों को अपने जीवन में सार्थक बनाना चाहिए। ईश्वरीय राज्य के मूल्य जैसे न्याय, दया, ईमानदारी आदि हमारे जीवन को प्रभु के निकट ले जाते हैं।

प्रभु येसु को हम हमेषा यहूदी नेताओं को फटकारते हुए देखते हैं क्योंकि उनकी कथनी और करनी में बहुत फ़र्क़ दिखता था।

आज हम यह भी अपने दिल से पूछें कि मैंने अपने विष्वास एवं भक्ति की नींव कैसे डाली है। क्या हमारी नींव मज़बूत है या नहीं? हमारे विष्वास को दूसरों के सामने दोहराना या प्रकट करना आसान है लेकिन सच्चे कर्मों से उस विष्वास को जीना कठिन काम है। उपवास, प्रार्थना, त्याग-तपस्या ये सब बातें हमारे अंतरतम की शुद्धीकरण के प्रभावी उपाय तो हैं लेकिन जब हम इन बातों का अनुपालन दूसरों को दिखाने के लिए या कुछ पाने के लिए करते हैं तो हम उस बुढ़िया की तरह बन जाते हैं।

अक्सर हमें यह सोचना चाहिए कि मैं कैसे एक अच्छा खीस्तीय जीवन जी सकता हूँ। हमें दूसरों को वचन का पालनकर्ता बनाने में बहुत दिलचस्पी होती है लेकिन खुद बनना नहीं चाहते हैं। आजकल के नौजवान, नवयुवक हमेषा यही बोलते हैं कि हमारे माता-पिता हमें सुधारने की कोशिश करते हैं लेकिन खुद ऐसे कार्य नहीं करते हैं। जब मैं दूसरों को बदलने की अपेक्षा खुद को बदलने की कोशिश करूँगा तब मैं प्रभु के सच्चे शिष्य और वचन के सच्चे पालनकर्ता बन पाऊँगा।

आज इन वचनों पर मनन् चिंतन करते वक्त हम ईश्वर से यही प्रार्थना करें कि हम सेवा, उदारता, दीनता, नम्रता आदि गुणों को अपनाकर चट्टान पर घर बनाने वाले उस व्यक्ति की तरह हो जायें।


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