चक्र अ के प्रवचन

खीस्त राजा का पर्व_2017

पाठ: एज़ेकिएल 34:11-12,15-17; 1कुरिन्थियों 15:20-26,28; मत्ती 25:31-46

प्रवाचक: फादर रोनाल्ड वॉन


आज माता कलीसिया ख्रीस्त राजा का महोत्सव मना रही है। आज के दिन कलीसिया प्रभु येसु को एक आदर्श राजा के रूप में प्रस्तुत करती है तथा उनकी प्रजा अथार्त कलीसिया को उनका अनुसरण करना सिखाती है। हरेक राजा का जीवन, उसके सिद्धांत तथा कार्यप्रणाली उसकी प्रजा की मार्गदर्शिका होती है। तथा जो भी राजा के सिद्धांतों एवं कार्यप्रणाली पर चलता है वह राजा की योग्य प्रजा मानी जाती है।

राजा शब्द हमारे मन में सांसारिक राजाओं की छबि प्रकट करता है। राजा शब्द शक्ति, सामर्थ्य, सम्प्रभुता की प्रतिमूर्ति है। इन शक्तियों का प्रयोग अनेक शोषण एवं दमनकारी कार्यों में भी होता है। संसार के राजा अपने वैभव तथा ऐशोआराम के लिए लोगों का शोषण करने से भी नहीं कतराते हैं। अनेक बार वे निरंकुशता के हथियार द्वारा अपने मनमाने कार्यों को पूरा करना चाहते हैं। राजा की योजनाओं के खातिर किसी भी प्रकार का बलिदान या हानि उठायी जा सकती है। इसलिए सत्ता, असीमित शक्ति और निरकुशता के प्रतीक राजा की छबि मन में भय उत्पन्न करती है।

किन्तु प्रभु येसु ख्रीस्त, राजाओं के राजा- सांसारिक राजाओं के चरित्र एवं कार्यों से अलग हटकर एकदम विपरीत उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। प्रभु के जन्म का समाचार तीन ज्योतिषियों को प्रदान किया गया था। वे भी राजा की खोज में निकलते है किन्तु क्या वे उस राजा को राजमहलों एवं राजसी वस्त्रों में पाते हैं? इसके विपरीत वे नवजात राजा को चरनी में पाते हैं। “’...ज्योतिषी पूर्व से येरुसालेम आये। और यह बोले, ’’ यहूदियों के नवजात राजा कहाँ हैं? हमने उनका तारा उदित होते देखा। हम उन्हें दण्डवत् करने आये हैं।’’....उन्होंने जिस तारे को उदित होते देखा था, वह उनके आगे आगे चलता रहा, और जहाँ बालक था उस जगह के ऊपर पहुँचने पर ठहर गया। घर में प्रवेश कर उन्होंने बालक को उसकी माता मरियम के साथ देखा और उसे साष्टांग प्रणाम किया। फिर अपना-अपना सन्दूक खोलकर उन्होंने उसे सोना, लोबान और गंधरस की भेट चढ़ायी। (मत्ती 2:1-2,9,11) अपने जन्म से ही प्रभु येसु के इस संसार के राजाओं से विपरीत थे। उनका जन्म राजसी वैभव के बजाय गरीबी तथा एक अंजान पशुओं की गौषाला में हुआ।

येसु राजा का शासन भी सांसारिक राजाओं के समान नहीं था। उन्होंने अपने राजकाल का उद्देश्य सेवा को बताया, “मानव पुत्र सेवा कराने नहीं बल्कि सेवा करने आया है”। (मत्ती 20:28) तथा “जो खो गया था उसी को बचाने मानव पुत्र आया है।” (मत्ती 18:11) अपने शिष्य को उन्होंने राजधर्म का मूलसिद्धांत सत्ता, अधिकार और शासन नहीं बल्कि विनम्रता एवं सेवा बताया। “संसार के अधिपति अपनी प्रजा पर निंरकुश शासन करते हैं और सत्ताधारी लोगों पर अधिकार जताते हैं। तुम लोगों में ऐसी बात नहीं होगी। जो तुम लोगों में बडा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने और जो प्रधान होना चाहता है, वह तुम्हारा दास बने...” (मत्ती 20:25-27) इसी विनम्रता और सेवा को अपने जीवन में दिखलाते हुए उन्होंने अपने शिष्यों के पैर धौए तथा उन्हें भी ऐसा ही करने की आज्ञा प्रदान की। “तुम मुझे गुरु और प्रभु कहते हो और ठीक ही कहते हो, क्योंकि मैं वही हूँ। इसलिये यदि मैं- तुम्हारे प्रभु और गुरु- ने तुम्हारे पैर धोये है तो तुम्हें भी एक दूसरे के पैर धोने चाहिये। मैंने तुम्हें उदाहरण दिया है, जिससे जैसा मैंने तुम्हारे साथ किया वैसा ही तुम भी किया करो। (योहन 13:15-17)

सांसारिक राजा अपने राज्य के विस्तार तथा वैभव के लिए शौर्य-वीर से परिपूर्ण योद्धाओं को चुनते हैं। वे ऐसे चालाक एवं कुटिल सलाहकारों को नियुक्त करते हैं जो उनकी रक्षा कर सकें और अधिक से अधिक शत्रुओं या लोगों को मार सके। इन योद्धाओं का व्यक्तिगत जीवन एवं चरित्र का उतना महत्व नहीं जितना उनकी उनके राजा के प्रति वफादारी का है। किन्तु येसु ने अपने राज्य के प्रतीक के रूप में नन्हें-अबोध बालकों को प्रस्तुत किया। येसु के राज्य में शारारिक शूरवीरता एवं युद्धकला में निपुर्णता नहीं बल्कि व्यक्ति का ईश्वर की नजरों में धन्य बनना उपयोगी माना गया है। उनके राज्य के लिए शूर-वीर नहीं बल्कि निश्चल-निर्दोष बालकों जैसे गुणों से संपन्न होना ही योग्यता माना गया है। “मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- यदि तुम फिर छोटे बालकों-जैसे नहीं बन जाओगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करोगे। इसलिए जो अपने को इस बालक-जैसा छोटा समझता है, वह स्वर्ग के राज्य में सबसे बड़ा है। (मत्ती 18:3-4)

संसार के अधिपति अपने राज्य की सीमाओं को अधिकाधिक रूप से विस्तारित करना चाहते हैं। इस विस्तारवादी कार्य के लिए उनके योद्धा एवं सैनिक लडते तथा लूटपाट करते हैं। वे खाते-पीते और मौजमस्ती के साथ आनन्द का जीवन बिताते है। कीमती हीरे जवाहरात, बहुमूल्य मोती और वस्तुयें इन राज्यों की सुंदरता और शोभा बढाती है। लेकिन प्रभु के राज्य की विशेषताएं अलग प्रकार की है। जैसा कि संत पौलुस लिखते हैं, “....ईश्वर का राज्य खाने पीने का नहीं, बल्कि वह न्याय, शान्ति और पवित्र आत्मा द्वारा प्रदत्त आनन्द का विषय हैं।” (रोमियों 14:17) येसु स्वयं कहते हैं, “मेरा राज्य इस संसार का नहीं है। यदि मेरा राज्य इस संसार का होता तो मेरे अनुयायी लडते और मैं यहूदियों के हवाले नहीं किया जाता। परन्तु मेरा राज्य यहाँ का नहीं है।” (योहन 18:36) येसु का राज्य सचमुच में सांसारिक न होकर स्वर्गिक था तथा उनकी प्रजा सांसारिक आभूषणों से अलंकृत न होकर स्वर्गिक गुणों से अपने जीवन का सौंदर्य करती है। वे स्वर्गिक गुणों - सत्य, न्याय, दया, क्षमा, प्रेम, विनम्रता, दान, धैर्य आदि से सुसज्जित होकर अपने स्थायी आवास की ओर प्रस्थान करती हैं। इसी सच्चाई को दोहराते हुए संत पौलुस कहते हैं, “हम जानते हैं कि जब यह तम्बू, पृथ्वी पर हमारा यह घर, गिरा दिया जायेगा, तो हमें ईश्वर द्वारा निर्मित एक निवास मिलेगा। वह एक ऐसा घर है, जो हाथ का बना नहीं है और अनन्त काल तक स्वर्ग में बना रहेगा। इसलिए हम इस शरीर में कराहते रहते और उसके ऊपर अपना स्वर्गिक निवास धारण करने की तीव्र अभिलाषा करते हैं, ..... ईश्वर ने स्वयं उस उद्देश्य के लिए हमें गढ़ा है.....हम यह जानते हैं, कि हम जब तक इस शरीर में हैं, तब तक हम प्रभु से दूर, परदेश में निवास करते हैं। हम शरीर का घर छोड़ कर प्रभु के यहाँ बसना अधिक पसन्द करते हैं।” (2 कुरिन्थियों 5:1-2,5,8-9)

लोग सांसारिक राजाओं को खुश करना चाहते हैं। उनकी खुशी के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। वे इस उद्देश्य हेतु ’साम-दाम-दण्ड-भेद’ आदि कुटिलता का सहारा लेते हैं इसके विपरीत ईश्वरीय प्रजा केवल ईश्वर को खुष करना चाहती है। ’’इसलिए हम चाहे घर में हों चाहे परदेश में, हमारी एकमात्र अभिलाषा यह है कि हम प्रभु को अच्छे लगे’’। (2 कुरिन्थियों 5:9) ईश्वरीय प्रजा सांसारिक सम्मान एवं प्रशंसा को तुच्छ मानकर केवल ईश्वरीय योजनाओं के अनुसार सत्य का जीवन बिताती है। “जो सत्य के पक्ष में है, वह मेरी सुनता है।”

सांसारिक राजा बडे-बडे सिहांसनों पर बैठकर, अपने सिरों पर राजसी मुकुट धारणकर अपने राज्य कर न्याय करते हैं किन्तु येसु का सिंहासन तो क्रूस तथा मुकुट कांटो से भरा था जिस पर से उन्होंने मानवता को अंनत मुक्ति का मार्ग दिखलाया। क्रूस-रूपी सिंहासन से राजा येसु ने मानवता को क्षमा महानत्तम उदाहरण देते हुये अपने हत्यारों को क्षमा प्रदान की। “ईसा ने कहा, ‘‘पिता! इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये नहीं जानते कि क्या कर रहे हैं”। (लूकस 23:34) ऐसा था राजेश्वर येसु का सिंहासन, मुकुट एवं न्याय।

हम ऐसे राजा की प्रजा है जो उनके बतायी शिक्षाओं पर चलती है। येसु जिन्होंने दया से प्रेरित होकर सभी के कल्याण एवं मुक्ति के कार्य किये हम से भी यही आशा रखते हैं उनकी सेवा अपने दूसरे बदकिस्मत भाई-बहनों की जरूरतों की पूर्ति के कार्यों द्वारा कर सके।

हम भी “जैसा राजा वैसी प्रजा” के सिद्वांत के अनुसार सीधा, सरल, सत्यवान तथा दया से प्रेरित जीवन बिताने का प्रण ले।


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Praise the Lord!