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25. खजूर इतवार

इसायाह 50:4-7; फि़लिप्पियों 2:6-11; जुलूसः मारकुस 11:1-10 या योहन 12:12-16; मिस्साः मारकुस 14:1-15, 47

(फादर ईश्वरदास मिंज)


आज इस खजूर इतवार के साथ हम प्रभु के दुख भोग के सप्ताह में प्रवेश कर रहे हैं। यह इतवार एक तरह से हमारे लिए खुशी लाता है और एक तरह से दुख। खुशी इस बात की कि प्रभु अपने येरुसालेम प्रवेश से हमारे लिए ईश्वर का मुक्ति विधान पूरा करने जा रहे हैं। दुख इस बात का है कि इस प्रवेश के द्वारा येसु दुःखभोग में प्रवेश कर रहे हैं, उस भयानक मृत्यु में जिसकी इस संसार के इतिहास में कोई तुलना संभव नहीं है। सुसमाचार में हमको सम्पूर्ण दुःखभोग की घटना सुनाई गयी।

एक राजा का राजत्व उसकी ताकत में है। वह पुराने जमाने में रथ या घोड़े पर सवार होकर ही कहीं जाता था। वह उसकी शान होती थी। किन्तु ख्रीस्त राजा (सच्चा राजा) नम्र और दीन बनकर येरुसालेम शहर में प्रवेश करते हैं। गधे पर सवारी करना नम्रता का प्रतीक है। यह दुनिया की दृष्टि में गरीबी का प्रतीक है और रथ पर सवार होना दुनिया की दृष्टि में धनवान होने का प्रतीक है। इस दुनिया के राजा दूसरे मुल्क के राजा और उसके मुल्क को जीतने जाते हैं। किन्तु येसु ख्रीस्त की लड़ाई किसी राजा से नहीं बल्कि हमारे वास्तविक दुश्मन से है। जिसको न इस दुनिया का कोई राजा जीत सकता है और न ही कोई तलवार या बंदूक हरा सकती है। यह वह दुष्मन है जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से लड़ाता है। एक राजा से दूसरे राजा पर हमला करवाता है। वह ईश्वर का एकमात्र दुश्मन शैतान है। उसने येसु ख्रीस्त पर तीन बार विजय पाने की कोशिश की। किन्तु वह उन्हें झुका न सका। फिर भी शैतान ने हार नहीं मानी। अब वह धर्म गुरूओं, शास्त्रियों एवं फरीसियों को उन्हें फँसाने और जीतने के लिये इस्तेमाल करता है। किन्तु इन धर्म नेताओं का फंदा प्रभु को फँसाने में कामयाब नहीं हुआ। अब भी शैतान हार नहीं मानता है। वह प्रभु के लिये घिनौनी मृत्यु दण्ड की बात सोचता है। इस कार्य के लिए येसु के चेलों में से ही एक को इस्तेमाल करता है। शैतान यूदस इसकारियोती के मन में धन का लालच पैदा कर चुका था और येसु को सौदे के मुताबिक महायाजकों के हाथों तीस सिक्कों में बेचकर पकड़वाने का अवसर ढूँढने लगा। धन शैतान का तुरूप का पत्ता है। धन से वह सब प्रकार की चालाकी हमारे जीवन में चलता है। इसलिये प्रभु अपने उपदेश में कहते हैं, ’’सुई के नाके से होकर ऊँट का निकलना अधिक सहज़ है, किन्तु धनी का ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना कठिन है।’’ (मत्ती 19:24) उन्होंने अपने प्रेरितों को भी धन से हमेश में दूर रहने की हिदायत दी। क्रूस पर मार डालने के बाद येसु का वर्चस्व खत्म हो जायेगा। ऐसा सोचना शैतान की बहुत बड़ी भूल थी। शैतान को यह मालूम नहीं था कि क्रूस मरण में ही मानव जाति की मुक्ति और ख्रीस्त की विजय थी। शक्तिविहीन होकर भी उन्होंने इस दुनिया की शक्ति को चकनाचूर कर दिया। क्रूस मरण द्वारा हम सबको उन्होंने विजय दिलायी। क्रूस ही हमारी विजय है, क्रूस ही हमारा गौरव है। दाढ़ी नौचनेवालों के सामने अपना मुँह नहीं खोला। उन्होंने सबकुछ अपने पिता की इच्छा पर छोड़ दिया। वे थोड़ा भी अपनी मर्जी के अनुसार न बोले और न ही कुछ किया। उन्होंने अपने जीवन द्वारा परमेश्वर के प्यार को दिखाया। ईष पुत्र का ईश्वर के रास्ते पर चलना इतना कठिन हो गया तो हम मानवों को कितनी कठिनाईयाँ महसूस होगी। यानि ईश्वर का रास्ता कलवारी का रास्ता है। इसमें हमें ताज़ुब होने की कोई ज़रूरत नहीं है कि एक अच्छे ख्रीस्तीय को दुख झेलना पड़ता है। ईश्वर के रास्तों पर चलना कठिन किन्तु सुखद है। ईशपुत्र को ही अपने पिता के कार्य को पूरा करना कठिन लगा। इसलिये वे गेथसमनी की बारी में प्रार्थना करते हुए कहते हैं, ’’मेरे पिता यदि यह प्याला मेरे पीये बिना नहीं टल सकता, तो तेरी इच्छा ही पूरी हो’’। (मत्ती 26:42)

प्रार्थना के समय उनका खून पसीना बनकर टपकता था। तत्पश्चात उनकी गिरफ्तारी हो गयी। सब येसु ख्रीस्त के विरुद्ध थे। वह अंधकार का शासन था। किन्तु प्रभु में विश्वास करने वालो के लिए प्रभु ने उस अंधकार को सदा के मिटा दिया। लोगों ने प्रभु का होसान्ना एवं अल्लेलूया गाकर उनका स्वागत किया। लोगो ने ईमानदारी एवं खुशी से उनका जयजयकार किया। इसलिये प्रभु ने उनका जयकार स्वीकार किया। क्योंकि वे कभी भी ईमानदारी से चढ़ाये हुये चढ़ावे का तिरस्कार नहीं करते हैं चाहे वह चढ़ावा कितना भी तुच्छ क्यों न हो। यदि हम अच्छा कार्य करते हैं और हमारी जयजयकार होती है तो हमारे पैर धरती पर बराबर नहीं टिक पाते हैं। हम में घमण्ड प्रवेश कर जाता है। अतः विजय अक्सर लोगों को घमंडी बनाती है। प्रभु भी राजा के समान रथ या घोड़े पर सवार होकर येरुसालेम में प्रवेश कर सकते थे। गधे पर सवार होकर उन्होंने यह उपदेश दिया कि, ’’मैं स्वभाव से नम्र और विनीत हूँ’’। (मत्ती 11:29) इसी नम्रता रूपी हथियार से येसु ने अपने शत्रु शैतान के घमंड रूपी हथियार को तोड़ डाला। इस नम्रता के द्वारा प्रभु येसु ने अपने आप को पूर्ण रूप से अपने पिता के हाथों में सौंप दिया। उन्हें थप्पड़ मारकर उनके मुँह पर थूक कर, उनकी दाढ़ी नौंचकर उन्हें उकसाया गया। ये उनके वास्तविक दुश्मन शैतान की चाल थी। जिसने उन सिपाहियों के द्वारा यह घिनौने काम करवाये ताकि प्रभु येसु आह भरकर जीवन की भीख माँगे। जीवन की भीख माँगना यानि अपने वचन से मुकर जाना, सत्य का जो उन्होंने प्रचार किया है उस संदेश को विलुप्त करना। उनसे यह कहलवाना कि मैं ईश्वर का पुत्र नहीं हूँ। क्योंकि धार्मिक नेताओं शास्त्रियों, फ़रीसियों को पूरी तरह से और अच्छी तरह से यह पता नहीं था कि येसु कौन है? किन्तु शैतान को बहुत अच्छी तरह से यह मालूम था कि येसु ईश्वर के पुत्र थे। वह अपदूतग्रस्त व्यक्ति के मुँह से कहता है, ’’. . . उन्हें दण्डवत कर ऊँचे स्वर से चिल्लाया, ’ईसा सर्वोच्च ईश्वर के पुत्र मुझ से आपको क्या?‘‘ (मारकुस 5:6-7)

इस दुःखभोग की घड़ी में ऐसा प्रतीत होता है कि प्रभु इस दुनिया की किसी भी ताकत के सामने नहीं झुके और न ही किसी की बात सुनी। इतना उकसाये जाने पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं की बल्कि पूर्ण रूप से अपने पिता पर न्यौछावर हो गये थे। उस घड़ी उन्होंने किसी दुनियावी ताकत से मदद नहीं माँगी। उनके लिए रोने वाले बहुत थे। पेत्रुस उनका चेला प्रभु के लिए जान देने तक तैयार था। इन लोगों से प्रभु मदद की माँग कर सकते थे। किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। क्योंकि वे अच्छी तरह से जानते थे कि उनका दुश्मन इस दुनिया की हर ताकत और व्यक्ति को अपने चुंगल में कर सकता है। उसने पहले से ही राज्यपाल पिलातुस, राजा हेरोद, उसके सिपाहियों और धर्म-पंण्डतों को अपने वश में कर लिया था। यही वज़ह है कि प्रभु येसु अपने हत्यारों के लिए अपने पिता से प्रार्थना करते हैं, ’’हे पिता इन्हें क्षमा कर क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहें’’। इससे साफ ज़ाहिर होता है कि येसु के हत्यारों ने अपने से उनकी हत्या नहीं की, किन्तु उनसे करवाई गयी। वह करवाने वाला ईश्वर का दुश्मन शैतान ही था। इस घड़ी वे नम्र एवं दीन बनकर अपने पिता पर न्यौछावर एवं केन्द्रित रहे। यदि उनका ध्यान इधर-उधर थोड़ा भी भटका तो इतना ही भर के लिए भटका कि उन हत्यारों को कैसे बचाया जाए क्योंकि पिता ने उन्हें इसलिए इस दुनिया में भेजा कि सबकी मुक्ति हो जाए। प्रभु ने अपने प्राण त्यागने से पहले अपने को घिनौनी मृत्यु दिलवाने वाले के शिकार हुए लोगों को बचा दिया। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि अपने जीवनकाल में येसु दुःख एवं मृत्यु के समय अपने पिता के सबसे करीब रहे। हमें भी दुःख से नहीं भागना चाहिए। दुःख एवं परीक्षा के क्षण ही हमें ईश्वर के अधिक करीब लाते हैं।


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