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37 पेंतेकोस्त का इतवार (जागरण)

उत्पत्ति 11:1-9 या निर्गमन 19:3-8अ, 16-20ब या निर्गमन 37:1-14 या योएल 3:1-5; रोमियों 8:22-27; योहन 7:37-39

(फादर अंथोनी आक्कानाथ)


आज हम पेंतेकोस्त का पर्व मना रहे हैं, एक ऐसा पर्व जिसका हम ख्रीस्तीयों के लिये बहुत महत्व है। आज हमारा पूरा ध्यान पवित्र त्रित्व के तीसरे व्यक्ति पर केन्द्रित है- पवित्र आत्मा। धर्म-शिक्षा में हम बच्चों से पूछते हैं पवित्र आत्मा कौन हैं? और वे उत्तर देते हैं, ’पवित्र आत्मा पवित्र त्रित्व के तीसरे व्यक्ति है’। पवित्र बाइबिल में पवित्र आत्मा को अलग-अलग नामों से पुकारा गया है जैसे - प्रेम का आत्मा, सत्य का आत्मा, ईश्वर का आत्मा, सहायक, परामर्शदाता आदि। काथलिक कलीसिया शिक्षा देती है कि पवित्र आत्मा पिता और पुत्र ईश्वर से प्रसृत होता है। पवित्र आत्मा पिता और पुत्र ईश्वर से आध्यात्मिक पीढ़ी के रुप में उत्पन्न नहीं होता, केवल पुत्र ईश्वर पिता से उत्पन्न हुआ है। पवित्र आत्मा पिता और पुत्र ईश्वर के समान हैं क्योंकि वे ईश्वर हैं। पवित्र आत्मा को संत अम्ब्रोस ने इस तरह परिभाषित किया -पवित्र आत्मा एक झरना है, ऐसा उमड़ता हुआ झरना जो प्रभु येसु के द्वारा इस भूमि पर बहता है जैसा कि नबी इसायाह ने भविष्यवाणी की है। यह महान झरना है जो निरंतर बहता रहता है और कभी खत्म नहीं होता। न केवल एक झरना बल्कि ऐसी नदी जिससे ईश्वर की महिमा बहती है। जैसे राजा दाऊद भी कहते हैं- वह नदी जो ईश्वर के नगर को आनंद प्रदान करती है।

अतः आज हम उस दिन पर मनन् करते हैं जब पवित्र आत्मा प्रेरितों पर उतरे और उन्हें सभी कृपाओं और वरदानों से भर दिया जो प्रभु येसु के राज्य को संसार में स्थापित करने के लिये अत्यंत आवश्यक थे। कृपा हमारे लिये ईश्वर का वरदान है। कृपा के मुख्यतः दो रुप हैं - पवित्रकारक और करिश्माई।

पवित्रीकरण की कृपा वह है जो उसे ग्रहण करने वालों को पवित्र करती है। इसमें सम्मिलित है वह कृपा, जो ईश्वर अभी इस घड़ी मुझे देता है, जो मुझे भले कर्म करने के लिये प्रेरित करती है। यह कृपा मेरी व्यक्तिगत आध्यात्मिक उन्नति के लिये मुझे दी जाती है। यह आत्माओं को ईश्वर को प्राप्त करने के योग्य बनने की शक्ति देती है। पवित्रीकरण की कृपा में बढ़ोत्तरी का अर्थ है उस योग्यता में वृद्धि क्योंकि हमारी योग्यता तो सदा अपूर्ण है और ईश्वर प्राप्ति का दिव्य दर्शन असीमित। पवित्रीकरण के रूप में पवित्र आत्मा के सात वरदान हैं जो पवित्रीकरण की नित्य कृपा के साथ-साथ प्राप्त होती है।

कृपा का दूसरा रूप है करिश्माई। यह कृपा उसे ग्रहण करने वालों के पवित्रीकरण के लिये ही नहीं अपितु सामाजिक और व्यक्तिगत उन्नति और भलाई के लिये मिलती है। पवित्र आत्मा की कृपा करिश्माई रूप में साधारण और असाधारण दोनों कृपायें हैं, जैसे साधारण वरदान में एक अच्छे माता-पिता या कुशल शिक्षक होने की कृपा। असाधारण कृपा में वरदान चमत्कारिक प्रतीत होते हैं, जैसे चंगाई का वरदान, अन्य भाषाओं का ज्ञान या चमत्कार का वरदान।

आइए, हम देखें कि पवित्र आत्मा के सात वरदान कौन से हैं? वे हैं प्रज्ञा, समझ, ज्ञान, परामर्श, धैर्य, निष्ठा और ईश्वर का भय। प्रत्येक वरदान अलग-अलग गुणों को बल प्रदान करता है। चार वरदान बुद्धि से संबंधित गुणों को बढ़ाते हैं। समझ का वरदान हमें सत्य की गहराई तक ले जाता है। प्रज्ञा हमें उदार बनाती है और बहुत सी बातों में हमारा मार्गदर्शन करती है। ज्ञान हमारी आशा को पूर्णता तक ले जाता है। परामर्श का वरदान हमें सर्तकता सिखाता है। अन्य तीन वरदान हमारी इच्छा-शक्ति और प्रवृत्ति को मजबूत करते हंै। धैर्य हमें न्यायी बनाता है और दूसरों के मान-सम्मान और उनके अधिकारों के प्रति हमें सचेत करता है। इस प्रकार हम ईश्वर के प्रति भी समर्पित बनना सीखते हैं। निष्ठा का वरदान हमें खतरों का सामना करने का बल देता है। ईश्वर का भय, हमारे पापों के प्रति झुकाव को नियंत्रित करता और उनसे हमारी रक्षा करता है।

पवित्र आत्मा के वरदानों और साधारण गुणों के द्वारा कार्य सम्पन्न करने या निर्णय लेने में अंतर जानने के लिये एक उदाहरण लेते हैं। वस्तुतः एक व्यक्ति तीन प्रकार से निर्णय लेता हैः

1. क्षणिक निर्णय:ऐसा निर्णय जो पशुओं पर लागू होता है, क्योंकि पशु जो चाहता है वही करता है।

2. तर्क-वितर्क द्वारा निर्णय: इसमें व्यक्ति अपनी बुद्धि का प्रयोग कर निर्णय लेता है। किसी निर्णय पर पहुँचने के पहले उस बात के अच्छे और बुरे दोनों पहलुओं पर विचार करता है। उदाहरण के लिये यदि मुझे अपने पापों के लिये पश्चात्ताप स्वरुप कुछ त्याग-तपस्या करना है तो मैं यह सोचूँगा, मैंने कितने पाप किये हैं ताकि मैं उस माप से त्याग करूँ? मेरे स्वास्थ्य के हिसाब से मुझे कौन सा त्याग करना है। इस प्रकार एक के बाद एक पहलुओं पर सोच विचार के पश्चात् ही व्यक्ति किसी निर्णय पर पहुँचता है। यह अप्रासंगिक तरीका कहलाता है।

3. माता मरियम का तरीका: निर्णय लेने का यह उच्चत्तम तरीका अप्रासंगिक तरीके से भिन्न है। इसमें आत्मा किसी निर्णय पर पहुँचने के लिये एक-एक पहलुओं पर सोच-विचार नहीं करती बल्कि यूँ कहा जाये पवित्र आत्मा के वरदानों की शक्ति से एक बार में तटस्थ और अंतिम निर्णय लेती है। इसका उदाहरण हमारी पवित्र माता मरियम है जो दूत-संदेश के समय अप्रासंगिक तरीके से तर्क-वितर्क नहीं करती। महादूत गब्रिएल ने संदेश दिया कि मसीह दाऊद के घराने पर सदा सर्वदा राज्य करेंगे, मरियम सोच सकती थी कि इस्राएली जनता सदियों से जिस मसीह की राह देख रही थी, वह मसीह मेरे द्वारा आने वाले हैं, इसलिये मुझे इसकी खबर अन्य लोगों को तथा येरुसालेम के शासकों को देनी चाहिये! मेरे पति यूसुफ क्या सोचेंगे? वे मेरे प्रति नकारात्मक सोच रख सकते हैं। परन्तु सुसमाचार हमें बताता है कि उन्होंने ऐसा कोई कार्य नहीं किया, बल्कि ईश्वर को ही एक दूत भेजकर संत यूसुफ को यह समाचार देना पड़ा। इस प्रकार पवित्र आत्मा के वरदान हमारी आत्माओं को तर्क-वितर्क से ऊपर, हमारी बुद्धि से परे महानतम निर्णय लेने की कृपा देते हैं। क्रूस के संत योहन लिखते हैं, ’’माता मरियम के जैसी आत्माओं को ईश्वर स्वयं ही अपनी योजना के अनुसार महान कार्यों के लिये मार्गदर्शन करते हैं। माता मरियम का जीवन प्रारंभ से ही ईश्वर के लिये समर्पित था। ऐसे जीवन पवित्र आत्मा द्वारा संचालित होते हैं।’’

परन्तु, एक खतरे की संभावना है। कोई भी अपने निर्णय को पवित्र आत्मा के वरदानों से लिया गया निर्णय समझ सकता है। यहाँ दो बातों का ध्यान रखना है। एक, जब तक व्यक्ति का आध्यात्मिक जीवन बहुत ऊँचाई तक अग्रसर नहीं हुआ हो तब तक यह वरदान प्रत्यक्ष प्रकट नहीं होता; इस वरदान की पूर्वानुभूति अवश्य होती है। दो, साधारणतः इस वरदान की प्रेरणा पूर्ण सुनिश्चितता नहीं छोड़ती, यानि निर्णय लेने के पूर्व परामर्श की आवश्यकता महसूस होती है, फिर भी आत्मा तुरन्त निर्णय लेने की परिस्थिति में पड़ जाती है।

पवित्र आत्मा की कृपा से जब कोई निर्णय लेता है तो वहाँ ईश्वर स्वयं कार्य करते हैं, परन्तु फिर भी उस कृपा को दिशा निर्धारित करने में व्यक्ति विशेष की बहुत बड़ी भूमिका होती है। अतः उस व्यक्ति को उस महान कार्य का श्रेय दिया जा सकता है। परन्तु हकीकत में, इन वरदानों द्वारा कार्य सम्पन्न करने में व्यक्ति अपने को निष्क्रिय बना लेता है, वह अपने आप को ईश्वर के हाथों में छोड़ देता है।

साधारणतः हम सबों को हमारे कत्र्तव्यों को पूरा करने के लिये पवित्र आत्मा अपने वरदान देते रहते हैं। असाधारण वरदानों के विषय में कुरिन्थियों के नाम पहले पत्र 12:11 में संत पौलुस लिखते हैं, ’’पवित्र आत्मा अपनी इच्छा के अनुसार प्रत्येक को अलग-अलग वरदान देता है’’। आज ये वरदान उतने दिखाई नहीं पड़ते जितने वे प्रारंभिक कलीसिया के दिनों में अनुभव होते थे।

असाधारण वरदानों के विषय में द्वितीय वतिकान महासभा ’लूमन जेन्सियम’ नामक कलीसिया के दस्तावेज़ में कहती है, ’’इन वरदानों की प्राप्ति के लिये अत्याधिक उतावलापन नहीं होना चाहिये, न ही इन्हें अनिवार्य रूप से प्रेरितिक कार्यों का फल माना जाये। इन वरदानों की वास्तविकता का फैसला वहाँ की कलीसिया के अधिकारियों द्वारा किया जाना चाहिये। जब इन वरदानों को परख कर आज्ञाकारिता के साथ उपयोग किया जाता है तभी वे कलीसिया के योग्य और फलप्रद बनते हैं।

ख्रीस्त के प्रेरित ईश्वर की ज्योति में चलते थे। उनके ईश्वर के समक्ष खुलेपन और समर्पण ने कलीसिया को सबों के सामने प्रकट किया। पेंतेकोस्त के अनुभव ने उन्हें साहसी प्रचारक, उससे भी कहीं अधिक ख्रीस्त का दूत बनाया।

आज हम पवित्र आत्मा के सारे वरदानों के लिये प्रार्थना करें। ये वरदान हमें प्रभु येसु के साहसी प्रचारक एवं शिष्य बनने में सहायता करेंगे।


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