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चक्र स - 11. ख्रीस्त जयन्ती का दूसरा इतवार

प्रवक्ता ग्रंथ 24:1-4, 12-16; एफेसियों 1:3-6, 15-18; योहन 1:1-18 या 1:1-5, 9-14

(फादर दिलीप मिंज)


हम सभी मनुष्य अपना जीवन संवारने के लिये दूसरों पर निर्भर होते हैं, कई सारे वादें करते हैं, कसमें खाते हैं। अतः सबकी कसमें और वादें भिन्न होते हैं। कोई किसी से निश्चित समय सीमा में कुछ करने की, कोई किसी जगह विशेष पर मिलने की, कोई कुछ विशेष जिन्दगी जीने की, तो कोई समाज सेवा करने की कसम खाता है। इस तरह से हम अपने आपको किसी लक्ष्य योजना के लिये समर्पित करते हैं। कुछ वादों को निभाना सहज होता है और इस कारण वे ज्यादा महत्व भी नहीं रखते हंै। कुछ ऐसे वादें एवं कसमें हैं जिन्हें निभाने में या पूरा करने में सारा जीवन गुजर जाता है।

सांसारिक जीवन के महत्वपूर्ण पल में हम अपने भविष्य को संवारने के लिये शब्दों का उपयोग करते हैं। शुरूआत में साधारणतः जब हम कुछ भी कहते या घोषणा करते हैं तब बड़ी सावधानी से शब्दों का प्रयोग करते हैं ताकि उसमें कोई त्रुटि न हो जाये। जब हम भारी सभा में कुछ महत्वपूर्ण बात की घोषणा करते हैं तो आस-पास में गवाह इसकी पुष्टि के लिये उपस्थित रहते हैं। अर्थात जो शब्द बोला जाता है वह किसी न किसी रूप में मानव जीवन में महत्व रखता है। इसलिये अंग्रेजी कवि इमिली डिकिनसन कहते हैं, ‘‘शब्द अपने आप में निर्जीव होता है जब तक किसी के द्वारा बोला नहीं जाता, पर जब शब्द किसी के द्वारा बोला जाता है ठीक उसी वक्त वह जीवित हो जाता है, क्रियाशील हो जाता है और बढ़ने लगता है’’।

हम यह भी जानते हैं कि हमारे शब्द में जादू नहीं है, कोई करिश्मा दिखाने की क्षमता नहीं है। शब्द रात या दिन की तरह निश्चित नहीं है कि जो बोलते हैं वह अवश्य पूरा होगा। हम अपने शब्दों के अनुसार जीने और वादों को पूरा करने की कोशिश करते हैं। हम अपनी प्रतिज्ञाओं को पूरा करने में बहुत समय लगाते हैं। बहुधा हम पीछे रह जाते हैं, कभी आगे चले जाते हैं, तो कभी असमर्थ रह जाते हैं। जब हम अपने अच्छे शब्दों जैसा आचरण नहीं कर पाते हैं, उस तरह का कार्य नही करते हैं, तो लोगों को हमारी वाणी, हमारे अच्छे शब्दों पर संदेह होने लगता है।

हम आज के सुसमाचार में संत योहन के प्रतापी और भव्य राजसी घोषणा के बारे में सुनते हैं। संत योहन प्रस्तावना में कहते हैं, ‘‘आदि में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था और शब्द ईश्वर था। उसके द्वारा सब कुछ उत्पन्न हुआ’’ (योहन 1:1-3)। जब संत योहन प्रभु येसु के विषय में कहते हैं तो हमें यह देखने को मिलता है कि किस तरह से वह सृष्टि और आदिकाल से प्रभु येसु के संबंध के बारे में सोचते है। गर्भधारण के समय से हजारों वर्ष पूर्व वे प्रभु येसु को शब्द के रूप में देखते हैं जो ईश्वर के साथ सदा विद्यमान था। वह शब्द मात्र नहीं, स्वयं ईश्वर था। यह अनादि शब्द न केवल ईश्वर के साथ था बल्कि यह सृष्टि का स्रोत बना अर्थात ईश्वर का शब्द क्रियाशील है।

ईश्वर के लिये कहने का अर्थ पूरा करना, वादा करने का अर्थ निभाना होता है। ईश्वर सदैव अपने शब्दों के प्रति वचनबद्ध रहते है। जिस तरह ईश्वर का वचन सच्चा, अच्छा और मीठा है, उसी तरह ईश्वर भी है। इसलिये सुसमाचार में संत योहन खुशी का इजहार करते हुये कहते हैं कि वही शब्द जो सृष्टि का साधन था वह आज इस धरा पर मानव रूप में आया है। शब्द ने शरीर धारण कर हमारे बीच निवास किया (योहन 1:14)। शब्द न केवल एक महान शक्ति है जो सभी चीज़ों को बनाता है, बल्कि शब्द एक इंसान है, मानव है, जो समय और सीमा में बंध जाता है।

क्रिसमस के दिन हम ईश्वर के मानव रूप में हमारे बीच आने के महान रहस्य का त्योहार मनाते है। वास्तव में यह हमारे समझ के परे लगता है, हमें समझना कठिन लगता है कि ईश्वर अपने को प्रभु येसु के रूप में किस तरह दे सकत हैं। सचमुच ईश्वर ने अपने आप को प्रभु येसु के जीवन एवं मरण में वास्तविक रूप से प्रकट कर दिया हैं।

अतः हम प्रति दिन के यूखारिस्तीय बलिदान में प्रार्थना करें कि वही शब्द हमारे जीवन में बढे़, हमारे वचन, कर्म और आचरण को प्र्रभावित करें, जिससे हमारा श्ब्द वचन की तरह शुद्ध और अच्छा रहें। अगर हम ऐसा कर पाते हैं तो हमारे शब्द और ईश्वर के शब्द में समन्वय होगा, एक बनेगा। इस तरह हमारा शब्द भी ईश्वर की वाणी की तरह प्रभावशाली होगा।


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