Smiley face

चक्र स -15. वर्ष का तीसरा इतवार

नेहम्या 8:2-4अ,5-6,8-10; कुरिन्थियों 12:12-30 या 12:12-14,27; लूकस 1:1-4,4:14-21

(फादर दिलीप मिंज)


इस्राएली लोग प्रभु की चुनी हुई प्रजा थे। नबियों और पुरोहितों के द्वारा प्रभु ईश्वर ने उनका मार्गदर्षन किया। लेकिन एक मोड़ ऐसा आया जब इस्राएल में नबियों का समय समाप्त हो गया। ऐज़ऱा यह समझता है कि अगर अब यहूदी जनता नबियों की वाणी उनके मुँह से प्रत्यक्ष रूप से सुन नहीं पाती है तो कम से कम पवित्र ग्रंथ को पढ़कर उसपर मनन् चिंतन करके तथा उसकी व्याखा करके वे अपने जीवन के लिये कुछ प्रमुख शिक्षा प्राप्त करेंगे। इसलिये पुरोहित ऐज़रा जल द्वार के सामने समस्त इस्राएलियों को एकत्र कर मूसा की संहिता के ग्रंथ में से पवित्र वचन की घोषणा करते हैं। इस घोषणा समारोह के लिये उन्होंने विशेष रूप से एक लकड़ी का मंच तैयार किया था। इस प्रकार पुरोहित ऐज़रा लोगों से ऊँची जगह पर खड़े होकर सबके सामने ग्रंथ खोल देते हैं और ऐसा करते ही सारी जनता उठ खड़ी हो जाती है। लोगों के सामने ऐज़रा ने प्रभु ईश्वर का स्तुति गान किया और लोगों ने आमेन्-आमेन् कहकर उत्तर दिया। इसके बाद सब लोगों ने प्रभु को दण्डवत किया। तत्पष्चात कुछ लेवियों ने लोगों को संहिता का ग्रन्थ पढ़कर, उसका अनुवाद किया और उसका अर्थ समझाया। लोग खड़े होकर सुनते रहे आौर सुनकर वे रो रहें थे। ऐज़रा ने लोगों को समझाया कि उन्हें प्रभु में आनन्द मनाना चाहिये क्योंकि प्रभु के आनन्द में ही उनका बल है। घोषणा की यह घड़ी यहूदी लोगों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण समय था।

आज के सुसमाचार में सर्वप्रथम संत लूकस हमें यह समझाते हैं कि कई लोगों ने प्रभु येसु की जीवनी तथा कार्यों के बारे में लिखा है, लेकिन उन्होंने खुद सुसमाचार में एक ऐसा विवरण तैयार किया है जो विश्वसनीय है। जिस प्रकार पुरोहित ऐज़रा ने विशेषरूप से तैयार किये मंच पर खड़े होकर मूसा की संहिता की घोषणा की उसी प्रकार प्रभु येसु नाज़रेत आकर, जहाँ उनका पालन पोषण हुआ था, विश्राम के दिन सभागृह में लोगों के सामने नबी इसायाह की पुस्तक में से पवित्र वचन पढ़ते हैं। उन्होंने वह स्थान निकाला जहाँ लिखा है ‘‘प्रभु का आत्मा मुझपर छाया रहता है क्योंकि उसने मेरा अभिषेक किया है। उसने मुझे भेजा है जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ और बंदियों को मुक्ति और अंधों को दृष्टि दान दूँ। दलितों को स्वतंत्र करूँ और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ।’’ ईसा ने पुस्तक बंद करने के बाद कहा, ‘‘धर्मग्रंथ का यह कथन आज तुम लोगों के सामने पूरा हो गया है’’।

आज का वचन-समारोह हमें यह बताना चाहता है कि सारी संहिता प्रभु येसु में पूरी होती है। बाइबिल को हम मुक्ति का इतिहास कहते हैं क्योंकि उसमें इस बात का विवरण कि किस प्रकार ईश्वर मानवीय जीवन में अपनी मुक्ति योजना को क्रियांवित करते हैं। इस मुक्ति योजना का साक्षात् रूप हम प्रभु येसु ख्रीस्त में पाते हैं। प्रभु स्वयं मुक्तिदाता एवं मुक्ति हैं। इस्राएली लोग ईश वचन की घोषणा सुनकर रो रहे थे। वास्तव में ईश वचन सुनने से उन्हें ईश्वरीय प्रेम का एहसास हुआ था। हम बार-बार मिस्सा बलिदान में भाग लेते हैं, कई दफ़ा प्रभु की वाणी सुनते हैं। हमें सोचना चाहिए की क्या प्रभु वचन की घोषणा का हमारे उपर कोई प्रभाव है या नहीं? क्या हमें भी प्रभु की उपस्थिति का एहसास होता है या नहीं?

कभी-कभी अच्छे प्रवचन सुनने से शायद हम भी रो पड़ते हैं। हमें भी प्रभु के प्राणदंड तथा प्राण पीड़ा के बारे में सुनकर दर्द महसूस होता होगा! हम भी शायद कभी-कभी आँसू बहाते होंगे। लेकिन अकसर यह देखने को मिलता है कि आँसू सूखने के बाद व्यक्ति में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं देता है। सवाल यह उठता है कि सुसमाचार को ग्रहण करने वालों में किस प्रकार का परिवर्तन आना चाहिए। आज का पाठ हमें यह सीखने को बाध्य करता है कि प्रभु येसु नबी इसायाह के कथन की घोषणा अपने मुँह से तो करते ही है, लेकिन साथ-साथ हमें यह भी देखने को मिलता है कि इस कथन को प्रभु अपने जीवन में अमल में भी लाते है। हमें यह बराबर मालूम है कि किस प्रकार प्रभु येसु ने दरिद्रों को सुसमाचार सुनाया, अंधों को दृष्टि दान दिया और प्रभु के अनुग्रह के वर्ष की घोषणा की।

जो कोई विश्वास के साथ सुसमाचार सुनता और पढ़ता है तो उसे उस संदेश को अपने जीवन में कार्यान्वित करना चाहिये। जब हम इस प्रकार सुसमाचार की शिक्षा को अपने जीवन में कार्यान्वित करते हैं तो हमारा जीवन ही एक घोषणा बन जाता है। ख्रीस्तीयों की एकता इस घोषणा का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसी कारण आज के दूसरे पाठ में संत पौलुस कुरिन्थियों को लिखते हुए कहते हैं, ‘‘हम यहूदी हों या यूनानी, दास हों स्वतंत्र हम-सबके-सब एक ही आत्मा का बपतिस्मा ग्रहण कर एक ही शरीर बन गये हैं। हम सभी को एक ही आत्मा का पान कराया गया है।’’ संत पौलुस हमें यह भी याद दिलाते हैं कि विश्वासी समुदाय में सबका अपना, हरेक का अपना कर्त्तव्य तथा स्थान होता है और सभी कर्त्तव्य तथा स्थान महत्वपूर्ण हैं। विश्वासी लोगों को अपने समुदाय में एक-दूसरे से इस प्रकार से जुड़े रहना चाहिए जिस प्रकार जब एक अंग को पीड़ा होती है तो उस के साथ सभी अंग पीड़ा महसूस करते हैं और यदि एक अंग का सम्मान किया जाता है तो उसके साथ सभी अंग आनन्द मनाते हैं।

जब हम मिस्सा बलिदान के लिये यहाँ पर एकत्र हुए हैं तो हमें अपने आप से पूछना चाहिए कि मेरा प्रभु वचन सुनने पर क्या अनुभव है और मेरे इस समुदाय के अन्य सदस्यों के साथ क्या संबंध है? आईये हम इस मिस्सा बलिदान में अपने आप को तथा एक दूसरे को ईश्वर के समक्ष समर्पित करते हुए ख्रीस्तीय अनुभवों से भरे जीवन जीने की कृपा परम पिता ईश्वर से माँगें।


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Praise the Lord!