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चक्र स -20. चालीसे का पहला इतवार

विधि-विवरण 26:4-10; रोमियों 10:8-13; लूकस 4:1-13

(फादर शैलमोन एंटोनी)


संसार के प्रारंभ से ही प्रलोभन और परीक्षायें मनुष्य के जीवन के अभिन्न अंग रहे हैं। प्रभु येसु ने स्वयं कहा है प्रलोभन अनिवार्य है . . . (लूकस 17:1)। प्रलोभन वह स्थिति है जब मनुष्य दो ताकतों के बीच दो विपरीत दिशाओ में खींचा जाता है, एक अच्छी व दूसरी बुरी। ईश्वर द्वारा प्रदत्त स्वतंत्र इच्छा शक्ति के कारण मनुष्य को इस परेशानी से प्रतिदिन जूझना पड़ता है। ईश्वर चाहते हैं कि हर मनुष्य परीक्षा के समय स्वतंत्र रूप से ईश्वर के पक्ष में खड़े होने का निर्णय ले। इसके लिये ईश्वर ने उसे विवेक दिया है। इसी गुण की सहायता से मनुष्य अच्छाई और बुराई में भेद कर पाता है। हम जानते हैं कि प्रारंभ से मनुष्य ईश्वर के पक्ष में खडे़ होने का निर्णय लेने में असफल रहा है। परन्तु ईश्वर उसके प्रति उदार हैं। इसलिये उन्होंने नबियों और धर्मात्माओं को मनुष्य को ईश्वर की ओर आकर्षित करने और अपनी योजना के लिए हाँ कहना सिखलाने के लिए भेजा। इसके बावजूद मनुष्य ने ईश्वर के विरुद्ध जाना पसंद किया। इस पर ईश्वर ने अपने परमप्रिय एकलौते पुत्र को संसार में भेजा। ईश्वर का पुत्र संसार में इसलिये नहीं आया कि वह प्रलोभनों और परीक्षाओं की घड़ियों को खत्म करें परन्तु इसलिये कि वह मनुष्य के पाप के प्रति झुकाव की मनोवृति को सुधारे। हाँ वह सिखलाने आया कि परीक्षा और प्रलोभन के समय हम कैसे ईश्वर के पक्ष में खडे़ हो सकते हैं।

आज के पाठ में हमने उन परिस्थितियों के बारे में सुना जहाँ येसु को हमारी ही तरह परीक्षा और प्रलोभनों का सामना करना पडा। ईश्वर के पुत्र को भी प्रलोभनों से संघर्ष करना पड़ा। पवित्र सुसमाचार में हम पढ़ते हैं कि सार्वजनिक जीवन प्रारंभ करने के पूर्व पवित्र आत्मा प्रभु येसु को मरुभूमि में ले गये। वहाँ प्रभु येसु ने विभिन्न प्रकार के प्रलोभनों पर विजय पाई जो प्रथम मानव, आदम नहीं कर पाया था। हमने पढ़ा है आदम ने फल खाया और परिणामस्वरूप अदन की वाटिका को खो दिया। परन्तु प्रभु येसु ने पत्थर को रोटी में परिवर्तित करके उसे खाने से इंकार किया और इस प्रकार उन्होंने अदन की वाटिका को हमें वापस दिलाने का कार्य प्रारंभ किया। अगर आदम के खाने के कारण स्वर्ग का द्वार बंद हुआ था तो प्रभु येसु रोटी खाने से इंकार करके उसी द्वार को फिर से खुलवाने का दृढ़ संकल्प करते है। प्रभु येसु ने उन सभी प्रलोभनों पर विजय प्राप्त की जिन्हें इस्राएली मरुभूमि में नहीं कर पाये थे। ईश्वर ने इस्राएल को विशेष उद्देश्य के लिये चुना था। ईश्वर इस्राएल के द्वारा सारे संसार को बचाना चाहते थे, परन्तु बार-बार प्रलोभनों में पड़ कर इस्राएल ने साबित कर दिया कि वह इस कार्य के योग्य नहीं है। परन्तु नये इस्राएल के अगुआ प्रभु येसु ने मरुभूमि की परीक्षाओं पर विजय पाकर यह साबित किया कि वे पिता द्वारा सौंपे गये कार्य को पूर्ण करने के योग्य है। प्रभु येसु ने तीनों परीक्षाओं के साथ-साथ भविष्य की सभी परीक्षाओं और शैतान के प्रलोभनों को ठुकरा दिया। यह शैतान के प्रति तीन तरफा बहिष्कार था और पिता ईश्वर के प्रति समर्पण। ईश्वर को हाँ कहने और शैतान को नहीं कहने के लिये प्रभु येसु को अपार शक्ति की आवश्यकता पड़ी थी। यह शक्ति प्रभु येसु को उनके चालीस दिन और रात की प्रार्थना के फलस्वरूप प्राप्त हुई थी। इस तरह की परिस्थिति हर एक मनुष्य के विश्वास को परखने के लिये अनिवार्य है। साथ ही इस तरह के अनुभव से ही मनुष्य परिपक्व बनता है। अपने पहले पत्र में संत पेत्रुस लिखते हैं, ‘‘यह आप लोगों के लिये आनंद का विषय है, हालाँकि अभी, थोड़े समय के लिये, आपको अनेक प्रकार के कष्ट सहने पड़ रहे हैं। यह इसलिये होता है कि आपका विश्वास परीक्षा में खरा निकले। सोना भी तो आग में तपाया जाता है और आपका विश्वास नश्वर सोने से कहीं अधिक मूल्यवान है। इस प्रकार ईसा मसीह के प्रकट होने के दिन आप लोगों को प्रशंसा, सम्मान तथा महिमा प्राप्त होगी।’’ (1 पेत्रुस 1:6-7)। इस प्रकार हम लोगों को भी प्रभु येसु के मरुभूमि के अनुभव से गुजरने के लिये हमेशा तैयार रहना चाहिए। जिस प्रकार नौकरी के लिये प्रवेश परीक्षा देनी पड़ती है, लाइसेंस प्राप्त करने के लिये परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है, उसी प्रकार अनंत जीवन का लाइसेंस प्राप्त करने के लिये हमें भी कठिनाईयों और प्रलोभनों को पार करना ही पडे़गा। इस विषय में संत याकूब लिखते हैं, ‘‘धन्य है वह जो विपत्ति में दृढ़ बना रहता है, परीक्षा में खरा उतरने पर उसे जीवन का वह मुकुट प्राप्त होगा, जिसे प्रभु येसु ने अपने भक्तों को देने की प्रतिज्ञा की है’’ (याकूब 1:12)।

पवित्र ग्रंथ में मुख्यतः हम दो प्रकार के लोगों को पाते हैं- एक वे जो प्रतिदिन के जीवन में प्रलोभानों पर विजय पाते हैं, दूसरे वे जो इन प्रलाभनों में पड़ जाते हैं। इब्राहिम विश्वासियों के पिता इसलिये कहलाये कि उन्होंने अपने पुत्र इसहाक को बलि स्वरूप अर्पित करने की आज्ञा का पालन किया। माता मरियम को प्रभु येसु की माता के रूप में कई प्रलोभनों और परीक्षाओं से हो कर गुजरना पडा़। पुराने विधान में राजा दाऊद के बारे में वर्णन है जो शारीरिक वासनाओं के प्रलोभनों में पड़ गया। नये विधान में यूदस इस्कारियोति के बारे में लिखा है जिसने चाँदी के तीस सिक्कों के प्रलोभन में पड़कर प्रभु येसु को पकड़वा दिया। पवित्र वचन में और कलीसिया के इतिहास में इस प्रकार के अनेक उदाहरण हैं।

मरुभूमि में प्रभु येसु को पत्थरों को रोटी में बदलने के लिये प्रलोभन दिया गया। प्रश्न पूछा जा सकता है- क्या पत्थरों को रोटी में परिवर्तित करना पाप है? क्या ईश्वर ने ऐसा करने से मना किया है? स्पष्टतः इसका उत्तर है ‘नहीं’। इस प्रकार की परिस्थितियों में हमें ईश्वर की इच्छा खोजना चाहिए, यह परिस्थति किस ओर से प्रेरित है उसका पता लगाना चाहिए। यदि ऐसी परिस्थितियाँ शैतान से प्रेरित प्रतीत होती हैं तो हमें दृढ़तापूर्वक कहना चाहिए- ‘‘हट जाओ शैतान’’ (मत्ती 16:23) और यदि ईश्वर से प्रेरित हो तो कहना चाहिए- ‘‘तेरी ही इच्छा पूरी हो’’ (मत्ती 26:42)।

यदि प्रभु येसु की भांति शैतान हमें भी पर्वत की ऊँचाई पर से संसार के राज्य के वैभव को दिखाये तो हम क्या करेंगे? यदि वह हमें बहलाकर धीरे से आपके कान में कहें- ‘‘यह सब कुछ मैं तुम्हें दूँगा यदि तुम ईश्वर को छोड़कर उसकी आज्ञाओं का उल्लंघन कर मेरी सेवा करोगे, मेरे मार्ग पर चलोगे’’, तो हमें क्या करना चाहिये? साथ ही प्रभु येसु भी पर्वत के दूसरी ओर इशारा करके आसमान की ओर इंगित करके स्वर्ग के राज्य और अनंत जीवन के वैभव का अहसास करायें तो हम क्या करेंगे? क्या हम सांसारिक लाभ के लिये अनंत जीवन को ठुकरा देंगे? अनंत जीवन की तुलना में संसार का 70 या 80 वर्ष का जीवन बहुत छोटा है। क्षणिक सांसारिक आनंद की तुलना स्वर्गराज्य के समाप्त न होने वाले आनंद से हम कैसे कर पायेंगे? निश्चय ही आप अपने को ठगा सा और स्वप्न से जागा हुआ पायेंगे (स्त्रोत 73:20)।

जो नींद में रहता है उसपर स्वप्न का प्रभाव ज्यादा रहता है। जिस प्रकार जागने पर स्वप्न मिट जाते हैं उसी प्रकार हमारे जीवन के अंतिम क्षणों में भी होगा। यदि हमने अपनी इंद्रियों की पापपूर्ण संतुष्टि में जीवन बिताया हो तो हमारे पाप पूर्ण आनंद का स्वप्न मिट जायेगा और हम होश में आयेंगे। ‘‘जीवन और मृत्यु मनुष्य के हाथ में है। वह जो चाहे चुन सकता है’’ (प्रवक्ता ग्रंथ15:17)। उत्पत्ति ग्रंथ में हम पाते हैं पिता ईश्वर ने कहा- यदि तुम उस पेड़ का फल खाओगे तो तुम मर जाओगे। ईश्वर ने उस पेड़ को नहीं काटा। पानी को पीने से रोकने के लिये पानी के स्रोत को रोकना ज़रूरी नहीं है। उत्पत्ति ग्रंथ में हम पढ़ते हैं कि शैतान ने फल तोड़कर हेवा को नहीं दिया बल्कि हेवा ने स्वयं वह फल तोड़ा और खाया। नये विधान में प्रभु येसु भी न केवल मरुभूमि में बल्कि गेथसेमनी बारी में पिता ईश्वर को ‘हाँ’ या ‘नहीं’ कहने के लिये स्वतंत्र थे। फिर भी प्रभु येसु ने पिता की इच्छा को पूर्ण करने का निर्णय लिया और अपने आप को सम्पूर्ण बलि के रूप में अर्पित किया। क्या हम भी प्रभु येसु की तरह अपने जीवन में पिता की इच्छा पूरी करना नहीं चाहेंगे? जैसे कि हमने दूसरे पाठ में सुना, इसके लिये हमें अपने होठों और हृदयों में शब्द को धारण करना चाहिये (रोमियो 10:8)। क्योंकि प्रभु येसु, ईश्वर का शब्द ही वह शस्त्र है जो प्रलोभनों पर विजय दिलाता है। ईश्वर के शब्द को कैसे धारण करें- पवित्र ग्रंथ के निरंतर अध्ययन द्वारा और प्रभु येसु की तरह पिता के साथ समय बिताकर। इस दुःखभोग काल में हम ईश्वर की इच्छा खोजें और हमारे जीवन को अर्थपूर्ण बनायें।


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