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चक्र स -22. चालीसा का तीसरा इतवार

निर्गमन 3:1-8अ,13-15; 1 कुरुन्थियों 10:1-6,10-12; लूकस 13:1-9

फादर रोनाल्ड मेलकम वॉन


ईश्वर की इच्छा किसी को भी नष्ट करने की नहीं है। वे सभी से प्रेम करते हैं तथा उन्हें बचाना चाहते हैं क्योंकि सबकुछ का सृष्टिकर्ता ईश्वर ही है। किन्तु यदि मनुष्य अपने पाप के मार्ग पर हठी बन जाता है और अपने जीवन को ईश्वर के इच्छानुसार नहीं सुधार पाता है तो उसका विनाश निश्चित हो जाता है। किन्तु उसके अंत से पहले ईश्वर सभी को सुधरने या सकारात्मक बदलाव लाने का अवसर देते हैं।

आज के सुसमाचार में ईसा विभिन्न घटनाओं द्वारा ईश्वर की चेतावनी तथा बचने के अवसरों को बताते हैं। पिलातुस ने कुछ गलीलियों का रक्त बलि-पशुओं के रक्त के साथ मिला दिया था। इस घटना ने यहूदियों को हिला दिया था। यहूदियों में यह धारणा थी कि यदि किसी के जीवन में कुछ बीमारी, असमय या आकस्मिक मृत्यु, विपत्ति आती थी तो इसका कारण उसके या उसके पूर्वजों के पाप रहे होंगे। यहूदियों की सोच की इस पृष्ठभूमि को समझ कर प्रभु उनसे पूछते हैं, “क्या तुम समझते हो कि ये गलीली अन्य सब गलीलियों से अधिक पापी थे, क्योंकि उन पर ही ऐसी विपत्ति पड़ी? मैं तुम से कहता हूँ, ऐसा नहीं है लेकिन यदि तुम पश्चात्ताप नहीं करोगे, तो सब-के-सब उसी तरह नष्ट हो जाओगे।” इसका तात्पर्य है उन मरे गलीलियों से अधिक पापी लोग भी वहाँ जीवित थे जिन्हें ईश्वर बदलने का अवसर प्रदान करते हैं। अपने इसी सिद्धांत को अधिक स्पष्ट करते हुये येसु आगे सिलोआम की मीनार गिरने की दुर्घटना जिसमें दबकर अठारह व्यक्ति मर गये थे का जिक्र करते हुये भी इसी सच्चाई को दोहराते हैं कि जो मर गये वे अधिक पापी नहीं थे और जो जीवित हैं वे अधिक नेक लोग नहीं है। जीवितों को पश्चाताप का मार्ग अपनाते हुये जीवन बदलना चाहिए अन्यथा उनका अंत भी बुरा होगा। हरेक व्यक्ति अपने जीवन के प्रति उत्तरदायी है तथा उसके कर्मों का परिणाम उसे भी भुगतना पडेगा। संत पौलुस हमें समझाते हैं – “हम सबों को मसीह के न्यायासन के सामने पेश किया जायेगा। प्रत्येक व्यक्ति ने शरीर में रहते समय जो कुछ किया है, चाहे वह भलाई हो या बुराई, उसे उसका बदला चुकाया जायेगा।” (2 कुरिन्थियों 5:10)

कई बार हम भ्रष्ट, अन्यायी, कुकर्मी व्यक्तियों को फलते-फूलते देखते हैं तो सोचते हैं जो वे कर रहे हैं उसका परिणाम उन्हें भुगतना नहीं पडेगा। उनके फलते-फूलते दिन वास्तव में ईश्वर द्वारा प्रदान वह अवधि है जिसमें वे चाहे तो अपने कुकर्मों को त्याग कर सच्चाई का मार्ग अपना सकते हैं। यदि वे ऐसा नहीं करते तो अचानक ही विपति एवं मृत्यु का दिन उन पर आ पडता है और वे नष्ट हो जाते हैं।

कई बार हम दूसरों के जीवन की विपत्ति को देखकर सोचते हैं कि वे अपने कर्मों का फल भोग रहे हैं। यह शायद सच भी हो लेकिन इसी दौरान हमें भी अपने जीवन का अवलोकन करना चाहिये तथा दूसरों की विपत्ति से सीख लेकर अपने जीवन की बुराईयों को हटाना चाहिये।

फलहीन अंजीर को काटने के आदेश पर माली कहता है, “मालिक! इस वर्ष भी इसे रहने दीजिए। मैं इसके चारों ओर खोद कर खाद दूँगा। यदि यह अगले वर्ष फल दे, तो अच्छा, नहीं तो इसे काट डालिएगा’।” माली की इस प्रकार अंजीर के पेड को बचाने की गुहार वास्तव में ईश्वर की सोच है, हर उस व्यक्ति के लिए है जो अपने जीवन को व्यर्थ ही जी रहा है।

यदि हम भी अपने फलहीन जीवन में फल उत्पन्न करना चाहते हैं तो माली के समान हमें भी जीवन को उपजाऊ बनाने के लिये विभिन्न प्रयत्न करने चाहिये। फलदायी बनने के लिए येसु के कहते हैं, “मैं दाखलता हूँ और तुम डालियाँ हो। जो मुझ में रहता है और मैं जिसमें रहता हूँ वही फलता है क्योंकि मुझ से अलग रहकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते।” (योहन 15:5) येसु के साथ एक हो जाने से तात्पर्य है हमें येसु की शिक्षाओं से एकमत होकर उनके अनुसार जीवन जीना चाहिये। जो व्यक्ति अपने जीवन को ईश्वचन के अनुसार ढालता है वह अधिक फलताफूलता है। प्रभु स्वयं यह वादा करते हैं – “यदि तुम मुझ में रहो और तुम में मेरी शिक्षा बनी रहती है तो चाहे जो माँगो, वह तुम्हें दिया जायेगा।” आइये हम भी अपने जीवन को फलदायी बनाये तथा येसु की शिक्षा को अपनाये।


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