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चक्र स - 28. पास्का इतवार (जागरण)

प्रेरित-चरित 10:34अ,37-43; कलोसियों 3:1-4; योहन 20:1-9

(फादर एब्रहाम वी.पी.)


प्रभु येसु एक ऐसे व्यक्ति थे जिनके बारे में काफी लोग यह प्रतीक्षा कर रहे थे कि वह दुनिया को मुक्ति देने वाले मसीह हैं एवं एक ऐसे राजा है जो पूरी दुनिया पर राज्य करेंगे। लेकिन उनका बेबस अंत सारी प्रतीक्षा के विपरीत रहा। प्रभु येसु काफी दुःख सहकर एक मुजरिम के समान क्रूसित किये गये। ज़िन्दगी भर उन्होंने दूसरों की मदद की और अनेकों के दुःखों को दूर किया लेकिन अपने आप को बचा नहीं पाये। कई लोगों की सोच यह थी कि उनका दुःख भोग एवं मरण उन्हें पूरी तरह खत्म कर चुका है। उनके शिष्य एवं दुष्मन शायद यह सोच रहे थे कि प्रभु येसु की मृत्यु ही उनका अंत है और उसके आगे कुछ भी नहीं है।

लेकिन तीन दिन के बाद हुआ कुछ और। उनके दुष्मनों का विजयी जष्न समाप्त हो गया। उनके शिष्यों के सोच-विचार में परिवर्तन आया। भयभीत मन में एक नई आशा जागी। कुछ नहीं स्थिति से सब कुछ पाने की एक अनोखी तृप्ति। पेत्रुस जिसने पहले यहूदियों के भय से प्रभु येसु को तीन बार अस्वीकार किया था, अब उन्हीं लोगों के सामने जिनसे वे डरते थे, हिम्मत के साथ प्रभु येसु का सुसमाचार घोषित करते हैं। इसके विषय में आज के पहले पाठ में हम सुनते हैं।

लोग जो अब तक स्वार्थ एवं लोभ भावना से भरे थे, अपनी सारी संपत्ति को सार्वजनिक करने लगते हैं। इसलिए प्रेरित-चरित अध्याय 2 वचन संख्या 42 में हम पढ़ते हैं कि नये विष्वासी दत्तचित्त हो कर प्रेरितों की शिक्षा सुना करते थे, भ्रातृत्व के निर्वाह में ईमानदार थे और प्रभु-भोज तथा सामूहिक प्रार्थनाओं में नियमित रूप से शामिल हुआ करते थे। प्रभु येसु के पुनरूत्थान के बाद शिष्यों का जीवन सम्पूर्ण रूप ऐसे बदल जाता है जैसे कि मरुभूमि में बाढ़ आ गई हो या एक अंधे की आँखों में ज्योति आ गई हो। अपने जीवन के इस परिवर्तन को शिष्यों ने दूसरों को बताया और जो उनकी बातें सुनते थे वे भी अपने जीवन में एक अनोखा परिवर्तन महसूस करने लगे।

प्रभु येसु की दयनीय मौत देखकर शिष्य निराश हो गये थे। वे अपने मन के अंधकार में भटक रहे थे। ऐसे हताश जीवन बिताने वाले शिष्यों को ज़िन्दगी में एक नई आशा मिली। प्रभु येसु पुनर्जीवित हुए और मरण पर हमेशा के लिए विजय प्राप्त की।

प्रभु येसु का पुनरूत्थान खीस्तीय जीवन का केन्द्र बिन्दु है। हरेक खीस्तान उस पुनरूत्थान की आशा में अपना जीवन बिताता है। हम में वही आत्मा जीवित है जिस ने प्रभु येसु को मृत्यु से पुनर्जीवित किया। जो कोई इस पुनरूत्थान को अपने जीवन में महसूस नहीं करता है वह कभी भी एक सच्चा खीस्तान नहीं बन सकता है। इसलिए संत पौलुस कुरिन्थियें के नाम लिखे पहले पत्र में अध्याय 15, वाक्य 14 में कहते हैं, ‘‘यदि मसीह नहीं जी उठे तो हमारा धर्म प्रचार व्यर्थ है’’। हमारे जीवन में कठिनाईयाँ आ सकती हैं और हम हमेशा दुःखमय जीवन बिताते होंगे। लेकिन पुनरूत्थान की आशा हम में खुशियाँ लाती है। जो कोई ईष्वर की योजना के अनुसार जीवन बिताता है उसके ऊपर मृत्यु का कोई असर नहीं हो सकता। ऐसे लोग मरने पर भी कभी मौत का अनुभव नहीं करते हैं। इसलिए संत पौलुस सवाल करते हैं, ‘‘मृत्यु कहाँ है तेरी विजय? मृत्यु कहाँ है तेरा दंश’’? (1 कुरिन्थियों 15:55)।

प्रभु येसु के पुनरूत्थान से हमें क्या मिलता है? इस ऐतिहासिक घटना से हमें क्या सीखना चाहिए? सब से पहले, प्रभु येसु का पुनरूत्थान हमें यह सिखाता है कि हमें उनके सच्चे शिष्य बनना है जो दरिद्रों को सुसमाचार सुना सकें, बन्दियों को मुक्ति दें और दलितों को स्वतन्त्र कर सकें। अपने ही सुखों लीन रहने की अपेक्षा दूसरों के दुःखों को दूर करने में अपना जीवन बिता सकें। इस में ही हम प्रभु येसु के पुनरूत्थान की शक्ति को सही रीति से अनुभव कर सकते हैं। यदि हमारा यही अनुभव है तो हमारे जीवन में परिवर्तन अवश्य आयेगा। इस नये जीवन में एक व्यक्ति अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीना षुरू करता है। वह इस प्रयास में अपने आप को न्यौछावर करता है। यह बलिदान उसके जीवन का अंत करता है। लेकिन यह अंत एक अंत नहीं होता बल्कि एक आरंभ है और वह आरंभ पुनरूत्थान याने प्रभु में एक नया जीवन है।

बहुत से प्रारंभिक खीस्तानों को अपने विष्वास के कारण अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा। वे सब शहीद हो गये। लेकिन उनके बलिदानों के फलस्वरूप अनेक लोगों ने प्रभु येसु के सुसमाचार में विष्वास करके उसे अपनाया और येसु के सक्रिय शिष्य बने। यह सब प्रभु येसु के पुनरूत्थान में जो शक्ति है उसे बखान करता है।

दूसरों की भलाई के लिए अपने आप को बलिदान करनेवाले येसु अब शिष्यों के सुसमाचार प्रचार-प्रसार के कार्यो में जीवित हो जाते हैं। जो व्यक्ति अपने जीवन को दूसरों के लिए बलिदान में दे देता है वह कभी मरता नहीं है और न ही लोग उन्हें भूल पाते हैं।

मानव के जीवन में दुःख न तो कभी लुप्त होता है और न ही कम। ऐसी परिस्थिति में जीवन के सुख अस्थायी अनुभव बन जाते है और दुःख स्थायी। ऐसी परिस्थिति में पुनरूत्थान का हमारे लिए क्या अर्थ हो सकता है? यदि हमारी मंज़िल हमें मालूम है तो हमारे रास्ते का बोझ कम हो जाता है। यदि हमें मंज़िल ही नहीं मालूम तो रास्ते का बोझ भी दुगुणा हो जाता है।

इसलिए यदि हमारा जीवन प्रभु येसु के पुनरूत्थान की घटना पर आधारित है तो भले ही हमारा वर्तमान जीवन दुःखमय हो, आने वाला भविष्य जो सुख हमें देगा वह वर्तमान के दुःख को मिटा देगा।


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