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चक्र स - 30. पास्का का दूसरा इतवार

प्रेरित चरित 5:12-16; प्रकाशना 1:9-11अ,12-13,17-19; योहन 20:19-31

(फादर शेल्मोन आन्टनी)


“क्या मृत्यु के बाद जीवन है?” यह प्रश्न मनुष्य सृष्टि के आरंभ से ही पूछता आ रहा है। इसलिए यह प्रशन बहुत पुराना है। सुकरात (Socrates) से लेकर बहुत सारे तत्वजों ने इस प्रश्न का जवाब ढूढ़ने के लिए अपना सारा जीवन अर्पित किया है। अफलातून (Plato) ने कहा कि यह दुनिया नकली है और असली दुनिया कहीं और है। हेराक्लीटस ने कहा कि कोई भी एक ही नदी में दो बार नहीं उतर सकता, क्योंकि नदी हमेशा बहती रहती है और बहते रहने के कारण वह बदलती रहती है। इस प्रकार बहुत सारे दार्शनिकों ने इस विषय पर अपने विचार प्रकट किये हैं। इनके कहने का मतलब यह है कि इस दुनिया में स्थिरता नहीं है तथा परिवर्तन दुनिया का नियम है। लेकिन इस दुनिया में हमारे जीवन के बाद एक ऐसा जगह होगी जहाँ स्थिरता रहेगी। साथ ही साथ मनुष्य के जीवन की स्थिरता स्थापित करने के लिए वे मनुष्य को शरीर और आत्मा में विभाजित करने लगें। इन में से बहुतों ने कहा कि इस दुनिया के जीवन के बाद शरीर नष्ट हो जाएगा और आत्मा हमेशा के लिए रहेगी। हज़ारों साल पहले भी हमारे भारत में बहुत सारे साधुगण जंगल में तपस्या करके यह गाते या प्रार्थना करते थे, ‘मृत्योमा अमृतम्गमया’। इसका मतलब है, हे प्रभु! हमें मृत्यु से अमरता की ओर ले जाईए। लेकिन ऐसे भी कुछ दल थे जिन्होंने अनंत जीवन में विश्वास नहीं किया है जैसे भोगवादी, सुखवादी आदि। उनका मानना था कि मृत्यु के बाद जीवन ही नहीं है। इसलिए जितने दिन इस दुनिया में हम रहेंगे उतने दिन मौज-मस्ती में जीएगें है। इस विषय में इस प्रकार की भिन्न-भिन्न मतों ने लोगों के दिलों में अस्तव्यवस्ता पैदा कर दी।

प्रभु येसु का पुनर्जीवन इस तरह की सब अटकलबाजियों के लिए हमेशा-हमेशा के लिए एक जवाब था। अनंत जीवन में विश्वास करने वालों की राय सही साबित करते हुए और अनंतजीवन में अविश्वास करने वालों की राय गलत साबित करते हुए हमारे प्रभु येसु जी उठे। येसु ने अपने पुनरुत्थान द्वारा संसार पर विजय पायी (योहन 16:33) और उन्होंने हमेशा के लिए अन्त में नष्ट किये जाने वाले शत्रु मृत्यु पर विजय पायी है (1कुरिन्थियों 15:26)। इस प्रकार येसु का पुनरुत्थान इस दुनिया में परिवर्तन लाया।

येसु ने अपने सामाजिक जीवन के समय लोगों के लिए बहुत कुछ किया- चमत्कार दिखाया, रोगियों को चंगा किया, भूखों को खिलाया, अन्याय के विरुद्ध लड़ाई आवाज़ उठायी आदि। लेकिन अपने पुनरुत्थान के द्वारा उन्होंने एक ऐसा कार्य किया है जो अभी तक किसी भी महान व्यक्ति या धर्म स्थापक ने नहीं किया। इन में से किसी ने भी येसु के समान मृत्यु के पहले अपने शिष्यों से ऐसा नहीं कहा हैं कि “मैं तुम लोगों को अनाथ छोड़कर नहीं जाऊँगा”(योहन 14:18)। “तुम लोग अभी दुःखी हो, किन्तु मैं तुम्हें फिर देखूँगा और तुम आनन्द मनाओगे” (योहन 16:22)।

हाँ प्यारे विश्वासियों, येसु का पुनरुत्थान हमारे विश्वास का नींव है। इसलिए संत पौलुस कहते हैं, “यदि मसीह नहीं जी उठे, तो हमारा धर्मप्रचार व्यर्थ है और आप लोगों का विश्वास भी व्यर्थ है’’ (1 कुरिन्थियों 15:14)। हाँ अगर येसु खीस्त नहीं जी उठे तो उनको दुनिया के अन्य महान व्यक्तियों में शामिल किया जाता या गिना जाता। इसलिए पुनरुत्थान एक मोड़ था, हमारे लिए और येसु के लिए भी।

क्या है पुनरुत्थान? मृत्यु से जीवन की ओर आना पुनरुत्थान कहा जाता है। लेकिन यह गलत परिभाषा है। पुनरुत्थान यह है कि मृत्यु से उस जीवन की ओर आना जहाँ मृत्यु का जीवन पर कोई वश नहीं हो। येसु ने लाज़रुस, जैरूस की बेटी ओर नईन के विधवा के लड़के को पुनर्जीवित किया। वे सब अपने पुराने जीवन में वापस आ गए। इसलिए कुछ सालों के बाद वे मर गए। लेकिन येसु का पुनरुत्थान ऐसा नहीं था। येसु ने अपने पुनरुत्थान द्वारा ऐसी पूर्णता हासिल की जहाँ मृत्यु का उन पर कोई वश नहीं था (रोमियों 6:9)।

पुनरुत्थान कैसे संभव हुआ? यह इसलिए हुआ कि येसु अपने जीवन में पिता की इच्छा के अनुसार सब कुछ सहन करने के लिए तत्पर हो गये। संत पौलुस कहते हैं कि वे वास्तव में ईश्वर थे और उन को पूरा अधिकार था कि वे ईश्वर की बराबरी करे फिर भी उन्होंने दास का रूप धारण कर तथा मनुष्यों के समान बन कर अपने को दीन-हीन बना लिया। क्रूस मरण तक आज्ञाकारी बना। इसलिए ईश्वर ने उन्हें महान् बनाया (फिलिप्पियों 2:6-9)। येसु को पुनर्जीवित करके पिता परमेश्वर की इच्छा केवल यह नहीं थी कि दुनिया यह जान ले कि येसु ईश्वर के पुत्र हैं, बल्कि सारी मानव जाति को प्रत्याशा देने के लिए कि वे भी येसु की इस महिमा में सहभागी बन सकते हैं। इसलिए संत पेत्रुस कहते हैं, “धन्य है ईश्वर, हमारे प्रभु ईसा-मसीह का पिता! मृतकों में से ईसा मसीह के पुनरूत्थान द्वारा उसने अपनी महती दया से हमें जीवन्त आशा से परिपूर्ण नवजीवन प्रदान किया” (1 पेेत्रुस 1:3)।

येसु के शिष्यों के जीवन में नज़र डालकर देखिये - येसु की मृत्यु के साथ उनके लिए सब कुछ खत्म हो चुका था। वे निराश हो गये थे। आज के सुसमाचार में हम पढ़ते हैं कि शिष्यगण यहूदियों से डर कर एक कमरे में बैठे हुए थे। लेकिन जब येसु उनके सामने प्रकट हुये तो सब कुछ बदल गया। सुसमाचार कहता है, “प्रभु को देख कर शिष्य आनन्दित हो उठे” (योहन 20: 20)। येसु ने उन्हें शक्ति दी, अपनी महिमा में भाग लेने के लिए और दूसरों को भी यह समझाने के लिए निमंत्रण दिया। इस प्रकार येसु ने अपने दिव्य-दर्षन द्वारा षिष्यों को जो अपनी आशाओं के अन्त का अनुभव कर रहे थे, अनन्त आषा का एहसास कराया।

‘वे जीवित हैं‘ यह ज्ञान शिष्यों के जीवन में बदलाव लाया, एक नया मोड़ लाया तथा उन्हें नया जीवन प्रदान किया। माता कलीसिया के जन्म एवं प्रसारण का मूल कारण यह ज्ञान है कि ‘वे जीवत हैं‘। इस ने ज्ञान शिष्यों को अपना खून बहाने के लिए प्रेरणा दी। हाँ, इस ज्ञान ने उन्हें साहसी एवं महान् मिशनरी बना दिया।

अगर आज हम खीस्तीय विष्वासी हैं तो यह सब इसलिए संभव हुआ कि शिष्यगण उस प्रभु के खातिर अपना जीवन न्यौछावर करने के लिए तैयार हो गए, ‘जो जीवित है”। उनके खून और पसीने के कारण ही हम सब नए इस्राएल के सदस्य हैं। नए इस्राएल के हर एक सदस्य का पुनर्जीवित येसु खीस्त को दूसरों को देने का कर्त्तव्य है। इस प्रकार हमें भी कलीसिया की शुरूआत में शिष्यों ने जो काम शुरू किया था, उस को बरकरार रखना चाहिए। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या हम हमारे जीवन द्वारा पुनर्जीवित येसु को दूसरों को देते हैं? अगर हमें येसु को दूसरों को देना है तो सब से पहले हमें यह ज्ञान प्राप्त करना तथा अनुभव करना है कि ‘वे जीवित हैं‘। केवल यह ज्ञान हमें एक ‘पुनर्जीवित व्यक्ति बनाएगा और हम एक नयी सृष्टि बन जाएंगे। यह ज्ञान हमें भी शिष्यों के समान साहसी और महान मिशनरी बनाएगा।

इस मिस्सा बलिदान के दौरान हम ईश्वर से जिसने येसु को मृतकों में से पुनर्जीवित किया, प्रार्थना करें कि हम भी व्यक्तिगत रूप से येसु का अनुभव करें।


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