📖 - मक्काबियों का दूसरा ग्रन्थ

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अध्याय 12

1) समझौते की इन बातों के बाद लीसियस राजा के पास लौट गया और यहूदी लोग अपनी खेती में लग गये।

2) किन्तु उस प्रान्त के कई सेनापति -तिमोथेव, गन्नैयस का पुत्र अपल्लोनियस, हीरोनिमस, देमोफ़ोन और साइप्रस का सेनापति निकानोर-यहूदियों को शान्ति से रहने नहीं देते थे।

3) याफ़ावासियों ने यह दुष्टता की। उन्होंने अपने साथ रहने वाले यहूदियों से कहा कि वे अपनी पत्नियों और बाल-बच्चों के साथ नावों पर सवार हो जायें, जो उन्होंने तैयार रखी थीं। उन्होंने उन्हें आश्वासन दिया कि उनके प्रति कोई बैर नहीं था।

4) यह नगरपालिका का प्रबन्ध था। इस पर यहूदियों ने उनका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया; क्योंकि वे उनके साथ शान्ति-पूर्वक रहना चाहते थे और उन्हें लगा कि इस में धोखे की कोई बात नहीं है। जब वे खुले समुद्र में आ गये, तो उन नावों को डुबा दिया गया, जिन पर लगभ्

5) जैसे ही यूदाह को अपने जाति-भाइयों के साथ की हुई क्रूरता का पता चला, उसने अपने आदमियों को बुला भेजा।

6) उसने निष्पक्ष न्यायकर्ता ईश्वर की दुहाई दी और अपने भाइयों के हत्यारों के विरुद्ध चल पड़ा। उसने रातोंरात बन्दरगाह में आग लगा दी, नावें जला दीं और जिन लोगों ने वहाँ शरण ली थी, उन्हें मार दिया।

7) नगर के फाटक बन्द कर दिये गये थे, इसलिए वह इस विचार से चला गया कि वह बाद में लौट कर सारा याफा नष्ट कर देगा।

8) जब उसने सुना कि यमनिया के लोग भी अपने साथ रहने वाले यहूदियों के साथ वैसा ही करना चाहते थे,

9) तो उसने यमनिया के निवासियों पर रात में आक्रमण किया और उस बन्दरगाह तथा वहाँ की नावों को जला दिया। उस आग की ज्वाला येरूसालेम तक दिखाई देती थी, जो वहाँ से पचास किलोमीटर दूर है।

10) यहूदियों ने वहाँ से तिमोथेव के विरुद्ध प्रस्थान किया। वे दो किलोमीटर भी पूरे नहीं कर सके कि उन पर अरब टूट पड़े जिनकी संख्या कम-से-कम पाँच हजार पैदल सैनिक और पाँच सौ घुड़सवार थे।

11) घमासान युद्ध हुआ, किन्तु अन्त में यूदाह के आदमी ईश्वर की कृपा से विजयी हुए। पराजित खानाबदोश लोग यूदाह से दया की याचना करने लगे। उन्होंने उसे पशु देने का वचन दिया और यह वादा किया कि वे हर प्रकार से उसकी सहायता करेंगे।

12) यूदाह जानता था कि वे सचमुच बहुत सी बातों में उसकी सहायता कर सकते हैं, इसलिए उसने उनकी शान्ति की बात स्वीकार कर ली। वे उस से हाथ मिला कर अपने तम्बुओं में लौट गये।

13) इसके बाद यूदाह ने एक ऐसे नगर पर आक्रमण किया जो, बाँध और चार दीवारी से घिरा था। उस में कई जातियों के लोग रहते थे। उसका नाम कस्पिन था।

14) उस नगर के निवासियों को चार दीवारी की सुदृढ़ता पर और नगर में खाद्य-सामग्री के भण्डारों का भरोसा था, इसलिए वे यूदाह के आदमियों पर ताना मारने, उनका अपमान करने, ईशनिन्दा और अशोभनीय शब्दों का प्रयोग करने लगे।

15) इस पर यूदाह के आदमियों ने संसार के प्रभु की दुहाई दी, जिसने योशुआ के समय भित्तिपातकों और घेरे के यन्त्रों का प्रयोग किये बिना येरीखो की चारदीवारी गिर दी थी। वे जंगली पशुओं की तरह दीवार पर टूट पड़े।

16) उन्होंने ईश्वर की इच्छा से नगर अपने अधिकार में कर लिया और उस में इतने लोगों का वध किया कि नगर के पास का तालाब, जो आधा किलोमीटर चैड़ा था, रक्त से भरा हुआ दिखाई देता था।

17) वे वहाँ से एक सौ चालीस किलोमीटर आगे बढ़ कर यहूदियों के यहाँ खारक्स पहुँचे, जो तूबी कहलाते हैं।

18) उन्हें वहाँ तिमोथेव नहीं मिला, क्योंकि वह किसी से कुछ कहे बिना वहाँ से चला गया था; किन्तु उसने वहाँ के किसी स्थान पर एक बड़ी रक्षक-सेना रख दी थी।

19) दोसिथेव और सोसीपतेर ने, जो मक्काबी के सेनापति थे, उस स्थान पर आक्रमण किया और तिमोथेव के उस गढ़ में रखे हुए लोगों को समाप्त कर दिया। उनकी संख्या दस हजार से अधिक थी।

20) अब मक्काबी ने अपनी सेना को दलों में विभाजित किया, उनके अध्यक्ष नियुक्त किये और तिमोथेव की ओर प्रस्थान किया, जिसके पास एक लाख बीस हजार पैदल सैनिक और ढ़ाई हजार घुड़सवार थे।

21) जैसे ही यूदाह पास आया, तिमोथेव ने स़्त्रियों और बच्चों को अपने सामान के साथ करनियन नामक स्थान भेज दिया। वहाँ एक अजेय गढ़ था, क्योंकि वहाँ तक पहुँचने की घाटियाँ सँकरी थीं।

22) जैसे ही यूदाह का प्रथम दल पहुँचा, शत्रुओं पर आतंक छा गया, क्योंकि उन्हें सर्वदृष्टा ईश्वर के दर्शन हुए। उन में भागदौड़ मच गयी। वे इधर-उधर इस तरह भागने लगे कि वे अपने ही आदमियों के हाथों घायल हो जाते और अपनी ही तलवारों की धार के शिकार बन जाते।

23) यूदाह ने उन्हें बुरी तरह खदेड़ा और उन दुष्टों को- लगभग तीस हजार लोगों को-मार गिराया।

24) तिमोथेव स्वयं ही दोसिथेव और सोसीपतेर के आदमियों के हाथ पड़ गया। उसने कपटपूर्ण बातें करते हुए जीवनदान माँगा। उसने यह कहा कि उन में कितनों के माता-पिता और भाई बन्धु उसके वश में हैं; अगर वे उसे मुक्त नहीं करेंगे, तो उनके सम्बन्धियों के साथ बहुत बुरा व्यवहार होगा।

25) जब तिमोथेव ने उन्हें विश्वास दिलाया कि वह उनके सम्बन्धियों को सकुशल जाने देगा, तो उन्होंने उसे मुक्त कर दिया, जिससे उनके भाई-बन्धुओं की रक्षा हो सके।

26) वहाँ से यूदाह करनियन और अतरगातिस के मन्दिर की ओर बढ़ा। उसने वहाँ पहुँच कर पच्चीस हज़ार आदमियों का वध किया।

27) इन शत्रुओं की पराजय और विनाश के बाद यूदाह ने अपनी सेना के साथ किलाबन्द नगर एफ्रोन की ओर प्रस्थान किया, जहाँ लीसियस तथा कई जातियों के बहुत-से लोग निवास करते थे। तगड़े युवकों की सेना चारदीवारी के बाहर पंक्तिबद्ध थी और उसने वीरतापूर्वक विरोध किया। नगर के अन्दर युद्धयन्त्रों और अस्त्रक्षेपकों की भरमार थी।

28) यहूदियों ने उस सर्व शक्तिमान की दुहाई दी, जो अपने सामर्थ्य से शत्रुओं को रौंदता है। इसके बाद उन्होंने नगर को अपने अधिकार में किया और वहाँ लगभग पच्चीस हजार निवासियों का वध किया।

29) वे वहाँ से स्कूतापुलिस की ओर बढ़े, जो येरूसालेम से एक सौ चालीस किलोमीटर दूर है।

30) वहाँ के रहने वाले यहूदियों ने यह साक्ष्य दिया कि स्फूतापुलिस के निवासी उनके साथ अच्छा व्यवहार करते हैं और कि उन्होंने विपत्ति के समय उनका मैत्रीपूर्ण स्वागत किया था।

31) इसलिए यूदाह और उसके साथियों ने नागरिकों को धन्यवाद दिया और उन से अनुरोध किया कि वे भविष्य में भी यहूदियों के साथ अच्छा व्यवहार करते रहें। इसके बाद वे येरूसालेम लौट गये; क्योंकि अब सप्ताहों का पर्व निकट था।

32) उस पर्व के बाद, जो पेन्तेकोस्त कहलाता है, वे इदूमैया के शासक गोरगियस के विरुद्ध चल पड़े।

33) वह तीन हज़ार पैदल सैनिकों और चार सौ घुड़सवारों के साथ उनका सामना करने आया।

34) वे एक दूसरे से भिड़ गये और युद्ध में थोड़े ही यहूदी खेत रहे।

35) बकेनोर के आदमियों में दोसिथेव नामक व्यक्ति ने, जो शूरवीर घुड़वार था, गोरगियस को उसके लबादे से पकड़ कर ज़ोरों से अपनी ओर खींचा, जिससे वह उस अभिशप्त को जीवित ही पकड़ ले। लेकिन एक थ्राकी घुड़सवार ने दोसिथेव पर प्रहार कर उसकी बाँह काट दी। इ

36) एसिद्रिस के आदमी देर तक लड़ते-लड़ते थक गये। तब यूदाह ने प्रभु से प्रार्थना की कि वह अपने को यहूदियों का सहायक और सेनापति प्रमाणित करे।

37) उसने अपनी मातृभाषा में भजन गाया और युद्ध का नारा लगा कर गोरगियस के आदमियों को भगा दिया।

38) यूदाह अपनी सेना ले कर अदुल्ला पहुँचा। सप्ताह का अन्त निकट था; अतः उन्होंने प्रथा के अनुसार अपने को पवित्र कर, वहीं विश्राम-दिवस मनाया।

39) दूसरे दिन यूदाह और उसके साथी वध किये गये लोगों के शव एकत्र करने और उन्हें पूर्वजों की कब्रों में अपने सम्बन्धियों के साथ दफनाने लगे। इस कार्य में अब देर नहीं की जा सकती थी।

40) अब पता चला कि प्रत्येक मारे हुए व्यक्ति के कपड़ों के नीचे यमनियों की देवमूर्तियों के ताबीज थे; संहिता के अनुसार यहूदी ऐसी वस्तुएँ अपने पास नहीं रख सकते थे। अब सब के सामने यह स्पष्ट हो गया कि वे इसी पाप के कारण मारे गये हैं।

41) इस पर सबों ने निष्पक्ष न्यायकर्ता का धन्यवाद किया, जो गुप्त बातें प्रकाश में लाता है।

42) इसके बाद उन्होंने प्रार्थना की और यह निवेदन किया कि उनके किये हुए अपराध पूर्णतः क्षमा कर दिये जायें। वीर यूदाह ने लोगों से अनुरोध किया कि वे अपने को पाप से बचाये रखें; क्योंकि उन्होंने अपनी आँखें से देखा था कि मारे हुए लोगों के पाप के कारण उन पर क्या बीती थी।

43) इसके बाद यूदाह ने लगभग दो हजार रुपये का चन्दा एकत्र किया और उसे येरूसालेम भेज दिया, जिससे वहाँ पाप के प्रायश्चित के रूप में बलि चढ़ायी जाये। उसने पुनरुत्थान का ध्यान रख कर यह उत्तम तथा सराहनीय कार्य सम्पन्न किया।

44) यदि उसे मृत सैनिकों के पुनरुत्थान की आशा नहीं होती, तो मृतकों के लिए प्रार्थना करना मूर्खतापूर्ण तथा निरर्थक होता।

45) उसका उद्देश्य पवित्र तथा पुनीत था, क्योंकि वह जानता था कि प्रभु-भक्ति में मरने वालों के लिए एक अपूर्व पुरस्कार सुरक्षित है।

46) इसलिए उसने प्रायश्चित्त के बलिदान का प्रबन्ध किया, जिससे मृतक अपने पाप से मुक्त हो जायें।



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