📖 - प्रज्ञा-ग्रन्थ (Wisdom)

अध्याय ➤ 01- 02- 03- 04- 05- 06- 07- 08- 09- 10- 11- 12- 13- 14- 15- 16- 17- 18- 19- मुख्य पृष्ठ

अध्याय 12

1) क्योंकि तेरा अविनाशी आत्मा सब में व्याप्त है।

2) प्रभु! तू अपराधियों को थोड़ा-थोड़ा कर के दण्ड देता है। तू उन्हें चेतावनी देता और उन्हें उनके पापों का स्मरण दिलाता है, जिससे वे बुराई से दूर रहे और तुझ पर भरोसा रखें।

3) तूने अपनी पवित्र भूमि के पुराने निवासियों के साथ ऐसा व्यवहार किया,

4) जिन से उनके घृणित कार्यों के कारण तुझे बैर हुआ था: उनका जादू-टोना, उनकी निन्दनीय धर्मरीतियाँ,

5) बच्चों की निर्मम हत्याएँ, मनुष्य के माँस और रक्त की वे दावतें, जिन में अँतड़ियाँ तक खायी जाती थी, दीक्षितों के रहस्यात्मक धर्मानुष्ठानों की रंगरलियाँ।

6) तूने असहाय बच्चों के उन हत्यारों को हमारे पूर्वजों के हाथों द्वारा मिटाना चाहा,

7) जिससे वह भूमि, जो तुझे सब से प्रिय है, योग्य लोगों से, ईश्वर के पुत्रों से बसायी जाये।

8) किन्तु तूने उन पुराने निवासियों पर दया की; क्योंकि वे मनुष्य थे: तूने अपनी सेना के अग्रदूतों के रूप में उनके पास बर्रे भेजे, जिससे वे उनका धीरे-धीरे विनाश करें।

9) तू उन अधर्मियों को एक ही युद्ध में धर्मियों के हाथ दे सकता था, या हिंसक जानवरों या एक ही कठोर शब्द द्वारा उनका क्षणमात्र में सर्वनाश कर सकता था,

10) किन्तु तूने धीरे-धीरे दण्ड दे कर उन्हें पश्चात्ताप करने का अवसर दिया, हालाँकि तू उनका विकृत स्वभाव और जन्मजात दुष्टता जानता था और यह भी कि वे अपने विचार कभी भी नहीं बदलेंगे।

11) क्योंकि यह जाति प्रारम्भ से ही अभिशप्त थी। तूने इसलिए उनके पापों का दण्ड नहीं दिया कि तू किसी से डरता था।

12) क्योंकि कौन तुझ से कहेगा, "तूने यह क्या किया?" या कौन तेरे निर्णय का विरोध करेगा? जिन राष्ट्रों की तूने स्वयं सृष्टि की है, उनके विनाश के कारण तुझ पर कौन अभियोग लगायेगा? कौन अधर्मी लोगों का पक्ष ले कर तुझे चुनौती देगा?

13) तुझे छोड़ कर और कोई ईश्वर नहीं। तू ही समस्त सृष्टि की रक्षा करता है। यह आवश्यक नहीं कि तू किसी को इसका प्रमाण दे कि तेरे निर्णय सही है।

14) ऐसा कोई राजा या शासक नहीं है, जो तेरे द्वारा दण्डित लोगों के कारण तेरा विरोध कर सकता है।

15) तू न्यायी है और न्याय से विश्व का शासन करता है। तू अपने सामर्थ्य के अयोग्य समझता है कि निर्दोष को दण्ड दिया जाये।

16) तेरा न्याय तेरे सामर्थ्य पर आधारित है। तू सब का स्वामी है और इसलिए सब पर दया करता है।

17) तू तभी अपना सामर्थ्य प्रकट करता है, जब तेरी सर्वशक्तिमत्ता पर सन्देह किया जाता है। तू उसी को दण्ड देता है, जो तेरी प्रभुता जान कर तुझे चुनौती देता है।

18) तू शक्तिशाली होते हुए भी उदारतापूर्वक न्याय करता और बड़ी कृपालुता से हम पर शासन करता है, क्योंकि तू इच्छानुसार अपना सामर्थ्य दिखा सकता है।

19) इस प्रकार तूने अपनी प्रजा को यह शिक्षा दी कि धर्मी को अपने भाइयों के प्रति सहृदय होना चाहिए और तूने अपने पुत्रों को यह भरोसा दिलाया कि पाप के बाद तू उन्हें पश्चात्ताप का अवसर देगा।

20) यदि तूने अपने पुत्रों के शत्रुओं को, उन्हें प्राणदण्ड मिलने वाला था, इतनी सावधानी और नम्रता से दण्डित किया और उन्हें अपनी दुष्टता से विमुख होने का समय और अवसर दिया है,

21) तो तूने अपने पुत्रों का कहीं अधिक सावधानी से न्याय किया है, जिनके पूर्वजों के लिए तूने शपथ खा कर विधान निर्धारित किया और उन से मंगलमय प्रतिज्ञाएँ की थी।

22) इस प्रकार तूने हमें शिक्षा देने के लिए हमारे शत्रुओं को नरमी से दण्ड दिया, जिससे हम भी न्याय करते समय तेरी दया का स्मरण करें और जब तू हमारा न्याय करता है, तो हम तेरी दयालुता पर भरोसा रखे।

23) जो लोग मूर्खतावष अधर्म का जीवन बिता चुके थे, तूने उन्हें उनके अपने घृणित कार्यों द्वारा दण्ड दिया।

24) वे बहुत दूर तक भटक गये थे। वे नासमझ बच्चों की तरह धोखा खा कर सब से नीचे और घृणित जानवरों को देवता मानते थे।

25) इसलिए तूने उन्हें नासमझ बच्चे मान कर दण्डस्वरूप हँसी के पात्र बना दिया।

26) उपहास के इस दण्ड द्वारा जिनका सुधार नहीं हुआ, उन्हें ईश्वर के योग्य दण्ड दिया जायेगा।

27) जिन प्राणियों को वे देवता मानते थे, उनके द्वारा उन्हें दण्ड दिया गया और कष्ट एवं यातनाएँ सहनी पड़ी। इस प्रकार वे उस सच्चे ईश्वर को पहचान गये, जिसका ज्ञान वे पहले अस्वीकार करते रहे। इस कारण उन्हें कठोर-से-कठोर दण्ड दिया गया।



Copyright © www.jayesu.com