📖 - बारूक का ग्रन्थ (Baruch)

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अध्याय 03

1) सर्वशक्तिमान् प्रभु! इस्राएल के ईश्वर! हम अत्यन्त दुःखी और सन्त्रस्त हैं।

2) प्रभु! ध्यान दे और दया कर, क्योंकि हमने तेरे विरुद्ध पाप किया है।

3) तू तो सदा बना रहता है और हम सदा के लिए नष्ट होते जा रहे हैं।

4) सर्वशक्तिमान् प्रभु! इस्राएल के ईश्वर! मृत्यु के पंजे में पड़े इस्राएलियों की प्रार्थना सुन- उन लोगों के पुत्रों की, जिन्होंने तेरे विरुद्ध पाप किया। उन्होंने अपने प्रभु-ईश्वर की वाणी का तिरस्कार किया और इसलिए हम विपत्तियों के शिकार बने।

5) हमारे पूर्वजों के कुकर्म भुला दे, किन्तु अब अपना सामर्थ्य और अपना नाम याद कर।

6) तू ही हमारा प्रभु-ईश्वर है। प्रभु! हम तेरा सतुतिगान करेंगे।

7) तूने हमारे मन में अपने प्रति श्रद्धा उत्पन्न की, जिससे हम तेरे नाम की दुहाई दें। हम अपने निर्वासन के देश में तेरा स्तुतिगान करेंगे; क्योंकि हमने तेरे विरुद्ध पाप करने वाले अपने पूर्वजों के सब कुकर्म अपने हृदय से निकाल दिये।

8) यदि हम आज निर्वासन के देश में, जहाँ तूने हमें बिखेरा है, अपमान, अभिशाप और दण्डाज्ञा के पात्र हैं, तो इसका कारण यह है कि हमारे पूर्वजों ने अपने प्रभु-ईश्वर का परित्याग कर दिया था।

9) इस्राएल! जीवन देने वाली आज्ञाएँ सुनो। कान लगा कर कर सच्चा ज्ञान प्राप्त करो।

10) इस्राएल! तुम क्यों अपने शत्रुओं के देश में हो? तुम क्यों विदेश में बूढे हो गये हो? तुम विदेश में दुःख के दिन काटते हो।

11) तुम मृतकों द्वारा अशुद्ध बन गये हो। अधोलोक जाने वालों में तुम्हारी गिनती हो गयी है।

12) यह इसलिए हो रहा है कि तुमने प्रज्ञा का स्रोत त्याग दिया है।

13) यदि तुम ईश्वर के मार्ग पर चले होते, तो तुम सदा के लिए शान्ति में जीवन बिताते।

14) यह समझ लो कि ज्ञान कहाँ है; सामर्थ्य कहाँ है, बुद्धिमानी कहाँ है, जिससे तुम जान जाओ कि लम्बी आयु और जीवन कहाँ है, आँखों की ज्योति और शान्ति कहाँ है।

15) कौन प्रज्ञा के निवासस्थान तक पहुँचा है? किसने उसके खजाने में प्रवेश किया है?

16) राष्ट्रों के वे शासक कहाँ हैं, जो पृथ्वी के जंगली पशु अपने वश में रखते

17) और आकाश के पक्षियों का खेल दिखाते हैं? जो चाँदी और सोने में संचय करते हैं, जिस पर मनुष्य भरोसा रखते हैं? कहाँ हैं वे मनुष्य मनुष्य जिनकी सम्पत्ति अपार है?

18) कहाँ हैं वे चाँदी के शिल्पकार, जो चाँदी की ही चिन्ता करते और जिनकी कला कल्पनातीत है?

19) वे सब-के-सब नष्ट हो कर अधोलोक में उतर चुके हैं और दूसरे लोगों ने उनका स्थान ले लिया है।

20) एक नयी पीढ़ि का उदय हुआ और वह पृथ्वी पर बस गयी, किन्तु उसने ज्ञान का मार्ग नहीं पहचाना।

21) उसने उसके मार्गों का अध्ययन नहीं किया और उस पर एकदम ध्यान नहीं दिया। उसके पुत्र और भी दूर भटक गये।

22) कनान देश में प्रज्ञा की चर्चा नहीं सुनाई पड़ी और वह तेमान में भी नहीं देखी गयी।

23) हागार के पुत्र, जो पृथ्वी पर ज्ञान की खोज करते थे, मेर्रान और तेमान के व्यापारी कथावाचक और ज्ञान के पिपासु- उन में कोई प्रज्ञा का मार्ग नहीं जान सका, उन में कोई प्रज्ञा के पथ याद नही रख सका।

24) इस्राएल! तेरे ईश्वर का निवास कितना महान् है! कितना विस्तृत है उसके सामर्थ्य का क्षेत्र!

25) वह महान् है और असीम, वह ऊँचा है और अपरिमेय!

26) वहाँ प्राचीन काल में एक ऐसी जाति उत्पन्न हुई, जो भीमकाय और युद्धकुशल थी।

27) किन्तु ईश्वर ने उसे नहीं अपनाया उसे ज्ञान का मार्ग नहीं बताया।

28) उसका विनाश हुआ, क्योंकि वह स्वयं नासमझ थी। वह अपनी मूर्खता के कारण नष्ट हो गयी।

29) कौन प्रज्ञा लाने के लिए स्वर्ग गया? किसने उसे बादलों के ऊपर से नीचे उतारा?

30) किसने समुद्र पार कर उसका पता लगाया? किसने शुद्ध सोने से उसे खरीदा?

31) कोई उसके यहाँ का मार्ग नहीं जानता, कोई उसके मार्ग की चिन्ता नहीं करता।

32) सर्वज्ञ ही उसका मार्ग जानता है, उसने अपनी बुद्धि से उसका पता लगाया है। उसने सदा के लिए पृथ्वी की नींव डाली है और उसे जीव-जन्तुओं से भर दिया है।

33) वह प्रकाश भेज देता है और वह फैल जाता है। वह उसे वापस बुलाता है और वह काँपते हुए उसकी आज्ञा मानता है।

34) तारे अपने-अपने स्थान पर आनन्दपूर्वक जगमगाते रहते हैं;

35) जब वह उन्हें बुलाता है, तो वे उत्तर देते, “हम प्रस्तुत हैं“; और वे अपने निर्माता के लिए आनन्द पूर्वक चमकते हैं।

36) वही हमारा ईश्वर है। उसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता।

37) उसने ज्ञान के सभी मार्गों का पता लगाया है और उसे अपने सेवक याकूब को, अपने परमप्रिय इस्राएल को बता दिया है।

38) इस पर प्रज्ञा पृथ्वी पर प्रकट हुई और उसने मनुष्यों के बीच निवास किया।



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