📖 - सन्त लूकस का सुसमाचार

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अध्याय 19

नाकेदार ज़केयुस

1) ईसा येरीख़ो में प्रवेश कर आगे बढ़ रहे थे।

2) ज़केयुस नामक एक प्रमुख और धनी नाकेदार

3) यह देखना चाहता था कि ईसा कैसे हैं। परन्तु वह छोटे क़द का था, इसलिए वह भीड़ में उन्हें नहीं देख सका।

4) वह आगे दौड़ कर ईसा को देखने के लिए एक गूलर के पेड़ पर चढ़ गया, क्योंकि वह उसी रास्ते से आने वाले थे।

5) जब ईसा उस जगह पहुँचे, तो उन्होंने आँखें ऊपर उठा कर ज़केयुस से कहा, "ज़केयुस! जल्दी नीचे आओ, क्योंकि आज मुझे तुम्हारे यहाँ ठहरना है"।

6) उसने, तुरन्त उतर कर आनन्द के साथ अपने यहाँ ईसा का स्वागत किया।

7) इस पर सब लोग यह कहते हुए भुनभुनाते रहे, "वे एक पापी के यहाँ ठहरने गये"।

8) ज़केयुस ने दृढ़ता से प्रभु से कहा, "प्रभु! देखिए, मैं अपनी आधी सम्पत्ति ग़रीबों को दूँगा और मैंने जिन लोगों के साथ किसी बात में बेईमानी की है, उन्हें उसका चौगुना लौटा दूँगा"।

9) ईसा ने उस से कहा, "आज इस घर में मुक्ति का आगमन हुआ है, क्योंकि यह भी इब्राहीम का बेटा है।

10) जो खो गया था, मानव पुत्र उसी को खोजने और बचाने आया है।"

अशर्फ़ियों का दृष्टान्त

11) जब लोग ये बातें सुन रहे थे, तो ईसा ने एक दृष्टान्त भी सुनाया; क्योंकि ईसा को येरूसालेम के निकट पा कर वे यह समझ रहे थे कि ईश्वर का राज्य तुरन्त प्रकट होने वाला है।

12) उन्होंने कहा, "एक कुलीन मनुष्य राजपद प्राप्त कर लौटने के विचार से दूर देश चला गया।

13) उसने अपने दस सेवकों को बुलाया और उन्हें एक-एक अशर्फ़ी दे कर कहा, ‘मेरे लौटने तक व्यापार करो’।

14) "उसके नगर-निवासी उस से बैर करते थे और उन्होंने उसके पीछे एक प्रतिनिधि-मण्डल द्वारा कहला भेजा कि हम नहीं चाहते कि वह मनुष्य हम पर राज्य करे।

15) "वह राजपद पा कर लौटा और उसने जिन सेवकों को धन दिया था, उन्हें बुला भेजा और यह जानना चाहा कि प्रत्येक ने व्यापार से कितना कमाया है।

16) पहले ने आ कर कहा, ‘स्वामी! आपकी एक अशर्फ़ी ने दस अशर्फि़य़ाँ कमायी हैं’।

17) स्वामी ने उस से कहा, ‘शाबाश, भले सेवक! तुम छोटी-से-छोटी बातों में ईमानदार निकले, इसलिए तुम्हें दस नगरों पर अधिकार मिलेगा’।

18) दूसरे ने आ कर कहा, ‘स्वामी! आपकी एक अशर्फ़ी ने पाँच अशर्फि़याँ कमायी हैं’

19) और स्वामी ने उस से भी कहा, ‘तुम्हें पाँच नगरों पर अधिकार मिलेगा’।

20) अब तीसरे ने आ कर कहा, ’स्वामी! देखिए, यह है आपकी अशर्फ़ी। मैंने इसे अँगोछे में बाँध रखा था।

21) मैं आप से डरता था, क्योंकि आप कठोर हैं। आपने जो जमा नहीं किया, उसे आप निकालते हैं और जो नहीं बोया, उसे लुनते हैं।’

22) स्वामी ने उस से कहा, ‘दुष्ट सेवक! मैं तेरे ही शब्दों से तेरा न्याय करूँगा। तू जानता था कि मैं कठोर हूँ। मैंने जो जमा नहीं किया, मैं उसे निकालता हूँ और जो नहीं बोया, उसे लुनता हूँ।

23) तो, तूने मेरा धन महाजन के यहाँ क्यों नहीं रख दिया? तब मैं लौट कर उसे सूद के साथ वसूल कर लेता।’

24) और स्वामी ने वहाँ उपस्थित लोगों से कहा, ‘इस से वह अशर्फ़ी ले लो और जिसके पास दस अशर्फि़याँ हैं, उसी को दे दो’।

25) उन्होंने उस से कहा, ‘स्वामी! उसके पास तो दस अशर्फि़याँ हैं’।

26) "मैं तुम से कहता हूँ - जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा; लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।

27) और मेरे बैरियों को, जो यह नहीं चाहते थे कि मैं उन पर राज्य करूँ, इधर ला कर मेरे सामने मार डालो’।

28) इतना कह कर ईसा येरूसालेम की ओर आगे बढ़े।

येरूसालेम में ईसा का प्रवेश

29) जब ईसा जैतून नामक पहाड़ के समीप-बेथफ़गे और बेथानिया के निकट पहुँचे, तो उन्होंने दो शिष्यों को यह कहते हुए भेजा,

30) "सामने के गाँव जाओ। वहाँ पहुँच कर तुम एक बछेड़ा बँधा हुआ पाओगे, जिस पर अब तक कोई नहीं सवार हुआ है।

31) उसे खोल कर यहाँ ले आओ। यदि कोई तुम से पूछे कि तुम उसे क्यों खोल रहे हो, तो उत्तर देना-प्रभु को इसकी जरूरत है।"

32) जो भेजे गये थे, उन्होंने जा कर वैसा ही पाया, जैसा ईसा ने कहा था।

33) जब वे बछेड़ा खोल रहे थे, तो उसके मालिकों ने उन से कहा, "इस बछेड़े को क्यों खोल रहे हो?"

34) उन्होंने उत्तर दिया, "प्रभु को इसकी ज़रूरत है"।

35) वे बछेड़ा ईसा के पास ले आये और उस बछेड़े पर अपने कपड़े बिछा कर उन्होंने ईसा को उस पर चढ़ाया।

36) ज्यों-ज्यों ईसा आगे बढ़ते जा रहे थे, लोग रास्ते पर अपने कपड़े बिछाते जा रहे थे।

37) जब वे जैतून पहाड़ की ढाल पर पहुँचे, तो पूरा शिष्य-समुदाय आनंदविभोर हो कर आँखों देखे सब चमत्कारों के लिए ऊँचे स्वर से इस प्रकार ईश्वर की स्तुति करने लगा-

38) धन्य हैं वह राजा, जो प्रभु के नाम पर आते हैं! स्वर्ग में शान्ति! सर्वोच्च स्वर्ग में महिमा!

39) भीड़ में कुछ फ़रीसी थे। उन्होंने ईसा से कहा, "गुरूवर! अपने शिष्यों को डाँटिए"।

40) परन्तु ईसा ने उत्तर दिया, "मैं तुम से कहता हूँ, यदि वे चुप रहें, तो पत्थर ही बोल उठेंगे"।

येरूसालेम पर विलाप

41) निकट पहुँचने पर ईसा ने शहर को देखा। वे उस पर रो पड़े

42) और बोले, "हाय! कितना अच्छा होता यदि तू भी इस शुभ दिन यह समझ पाता कि किन बातों में तेरी शान्ति है! परन्तु अभी वे बातें तेरी आँखों से छिपी हुई हैं।

43) तुझ पर वे दिन आयेंगे, जब तेरे शत्रु तेरे चारों ओर मोरचा बाँध कर तुझे घेर लेंगे, तुझ पर चारों ओर से दबाव डालेंगे,

44) तुझे और तेरे अन्दर रहने वाली तेरी प्रजा को मटियामेट कर देंगे और तुझ में एक पत्थर पर दूसरा पत्थर पड़ा नहीं रहने देंगे; क्योंकि तूने अपने प्रभु के आगमन की शुभ घड़ी को नहीं पहचाना।"

मन्दिर से बिक्री करने वालों का निष्कासन

45) ईसा मन्दिर में प्रवेश कर बिक्री करने वालों को यह कहते हुए बाहर निकालने लगे,

46) "लिखा है-मेरा घर प्रार्थना का घर होगा, परन्तु तुम लोगों ने उसे लुटेरों का अड्डा बनाया है"।

मन्दिर में शिक्षा

47) वे प्रतिदिन मन्दिर में शिक्षा देते थे। महायाजक, शास्त्री और जनता के नेता उनके सर्वनाश का उपाय ढूँढ़ रहे थे,

48) परन्तु उन्हें नहीं सूझ रहा था कि क्या करें; क्योंकि सारी जनता बड़ी रुचि से उनकी शिक्षा सुनती थी।



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