📖 - एफ़ेसियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र

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अध्याय 04

एकता के लिए अनुरोध

1) ईश्वर ने आप लोगों को बुलाया है। आप अपने इस बुलावे के अनुसार आचरण करें - यह आप लोगों से मेरा अनुरोध है, जो प्रभु के कारण कै़दी हूँ।

2) आप पूर्ण रूप से विनम्र, सौम्य तथा सहनशील बनें, प्रेम से एक दूसरे को सहन करें

3) और शान्ति के सूत्र में बँध कर उस एकता को बनाये रखने का प्रयत्न करते रहें, जिसे पवित्र आत्मा प्रदान करता है।

4) एक ही शरीर है, एक ही आत्मा और एक ही आशा, जिसके लिए आप लोग बुलाये गये हैं।

5) एक ही प्रभु है, एक ही विश्वास और एक ही बपतिस्मा।

6) एक ही ईश्वर है, जो सबों का पिता, सब के ऊपर, सब के साथ और सब में व्याप्त है।

कलीसिया की परिपूर्णता हेतु मसीह के वरदान

7) मसीह ने जिस मात्रा में देना चाहा, उसी मात्रा में हम में प्रत्येक को कृपा प्राप्त हुई है।

8) इसलिए धर्मग्रन्थ कहता है- वह ऊँचाई पर चढ़ा और बन्दियों को ले गया। उसने मनुष्यों को दान दिये।

9) वह चढ़ा - इसका अर्थ यह है कि वह पहले पृथ्वी के निचले प्रदेशों में उतरा।

10) जो उतरा, वह वही है जो आकाश से भी ऊपर चढ़ा, जिससे वह सब कुछ परिपूर्ण कर दे।

11) उन्होंने कुछ लोगों को प्रेरित, कुछ को नबी, कुछ को सुसमाचार-प्रचारक और कुछ को चरवाहे तथा आचार्य होने का वरदान दिया।

12) इस प्रकार उन्होंने सेवा-कार्य के लिए सन्तों को नियुक्त किया, जिससे मसीह के शरीर का निर्माण तब तक होता रहे,

13) जब तक हम विश्वास तथा ईश्वर के पुत्र के ज्ञान में एक नहीं हो जायें और मसीह की परिपूर्णता के अनुसार पूर्ण मनुष्यत्व प्राप्त न कर लें।

14) इस प्रकार हम बालक नहीं बने रहेंगे और भ्रम में डालने के उद्देश्य से निर्मित धूर्त मनुष्यों के प्रत्येक सिद्धान्त के झोंके से विचलित हो कर बहकाये नहीं जायेंगे।

15) हम प्रेम से प्रेरित हो कर सत्य बोलें और इस तरह मसीह की परिपूर्णता प्राप्त करें। वह हमारे शीर्ष हैं।

16) और उन से समस्त शरीर को बल मिलता है। वह शरीर अपनी सब सन्धियों द्वारा सुसंघटित हो कर प्रत्येक अंग की समुचित सक्रियता से अपनी परिपूर्णता तक पहुँचता और प्रेम द्वारा अपना निर्माण करता है।

आप लोग नवीन स्वभाव धारण करें

17) मैं आप लोगों से यह कहता हूँ और प्रभु के नाम पर यह अनुरोध करता हूँ कि आप अब से गैर-यहूदियों-जैसा आचरण नहीं करें,

18) जो बेकार की बातों की चिन्ता करते है। उनकी बुद्धि पर अन्धकार छाया हुआ है। वे अपने अज्ञान और हृदय की कठोरता के कारण ईश्वरीय जीवन से बहिष्कृत हो गये हैं।

19) वे नैतिक बोध से शून्य होकर लम्पटता के वशीभूत हो गये हैं और उन में हर प्रकार के अशुद्ध कर्म की लालसा निवास करती है।

20) आप लोगों को मसीह से ऐसी शिक्षा नहीं मिली।

21) यदि आप लोगों ने उनके विषय में सुना और उस सत्य के अनुसार शिक्षा ग्रहण की है, जो ईसा में प्रकट हुई,

22) तो आप लोगों को अपना पहला आचरण और पुराना स्वभाव त्याग देना चाहिए, क्योंकि वह बहकाने वाली दुर्वासनाओं के कारण बिगड़ता जा रहा है।

23) आप लोग पूर्ण रूप से नवीन आध्यात्मिक विचारधारा अपनायें

24) और एक नवीन स्वभाव धारण करें, जिसकी सृष्टि ईश्वर के अनुसार हुई है और जो धार्मिकता तथा सच्ची पवित्रता में व्यक्त होता है।

25) इसलिए आप लोग झूठ बोलना छोड़ दें और एक दूसरे से सच ही बोलें, क्योंकि हम एक दूसरे के अंग हैं।

26) यदि आप क्रुद्ध जो जायें, तो इस कारण पाप न करें- सूरज के डूबने तक अपना क्रोध कायम नहीं रहने दें।

27) शैतान को अवसर नहीं देना चाहिए।

28) जो चोरी किया करता था, वह अब से चोरी नहीं करे, बल्कि ईमानदारी से अपने हाथों से परिश्रम करें। इस प्रकार वह दरिद्रों की भी कुछ सहायता कर सकेगा।

29) आपके मुख से कोई अशलील बात नहीं, बल्कि ऐसे शब्द निकलें, जो अवसर के अनुरूप दूसरों के निर्माण तथा कल्याण में सहायक हों।

30) पवित्र आत्मा ने मुक्ति के दिन के लिए आप लोगों पर अपनी मोहर लगा दी है। आप उसे दुःख नहीं दें।

31) आप लोग सब प्रकार की कटुता, उत्तेजना, क्रोध, लड़ाई-झगड़ा, परनिन्दा और हर तरह की बुराई अपने बीच से दूर करें।

32) एक दूसरे के प्रति दयालु तथा सहृदय बनें। जिस तरह ईश्वर ने मसीह के कारण आप लोगों को क्षमा कर दिया, उसी तरह आप भी एक दूसरे को क्षमा करें।



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