📖 - इब्रानियों के नाम पत्र

अध्याय ➤ 01- 02- 03- 04- 05- 06- 07- 08- 09- 10- 11- 12- 13- मुख्य पृष्ठ

अध्याय 11

विश्वास का महत्व

1) विश्वास उन बातों की स्थिर प्रतीक्षा है, जिनकी हम आशा करते हैं और उन वस्तुओं के अस्तित्व के विषय में दृढ़ धारणा है, जिन्हें हम नहीं देखते।

2) विश्वास के कारण हमारे पूर्वज ईश्वर के कृपापात्र बने।

3) विश्वास द्वारा हम समझते हैं कि ईश्वर के शब्द द्वारा विश्व का निर्माण हुआ है और अदृश्य से दृश्य की उत्पत्ति हुई है।

4) विश्वास के कारण हाबिल ने काइन की अपेक्षा कहीं अधिक श्रेष्ठ बलि चढ़ायी। विश्वास के कारण वह धार्मिक समझे गये, क्योंकि ईश्वर ने उनका चढ़ावा स्वीकार किया। विश्वास के कारण वह मर कर भी बोल रहे हैं।

5) विश्वास के कारण मृत्यु का अनुभव किये बिना हेनोख आरोहित कर लिये गये। वह फिर नहीं दिखाई पड़े, क्योंकि ईश्वर ने उन्हें आरोहित किया था। धर्मग्रन्थ उसके विषय में कहता है कि आरोहित किये जाने के पहले वह ईश्वर के कृपापात्र बन गये थे।

6) विश्वास के अभाव में कोई ईश्वर का कृपापात्र नहीं बन सकता। जो ईश्वर के निकट पहुँचना चाहता है, उसे विश्वास करना है कि ईश्वर है और वह उन लोगों का कल्याण करता है, जो उसकी खोज में लगे रहते हैं।

7) ईश्वर से उस समय तक अदृश्य बातों की सूचना पा कर नूह ने अपना परिवार बचाने के लिए विश्वास के कारण बड़ी सावधानी से पोत का निर्माण किया। उन्होंने अपने विश्वास द्वारा संसार को दोषी ठहराया और वह उस धार्मिकता के अधिकारी बने, जो विश्वास पर आधारित है।

8) विश्वास के कारण इब्राहीम ने ईश्वर का बुलावा स्वीकार किया और यह न जानते हुए भी कि वह कहाँ जा रहे हैं, उन्होंने उस देश के लिए प्र्रस्थान किया, जिसका वह उत्तराधिकारी बनने वाले थे।

9) विश्वास के कारण वह परदेशी की तरह प्रतिज्ञात देश में बस गये और वहाँ इसहाक तथा याकूब के साथ, जो एक ही प्रतिज्ञा के उत्तराधिकारी थे, तम्बुओं में रहने लगे।

10) इब्राहीम ने ऐसा किया, क्योंकि वह उस पक्की नींव वाले नगर की प्रतीक्षा में थे, जिसका वास्तुकार तथा निर्माता ईश्वर है।

11) विश्वास के कारण उमर ढ़ल जाने पर भी सारा गर्भवती हो सकीं; क्योंकि उनका विचार यह था जिसने प्रतिज्ञा की है, वह सच्चा है

12) और इसलिए एक मरणासन्न व्यक्ति से वह सन्तति उत्पन्न हुई, जो आकाश के तारों की तरह असंख्य है और सागर-तट के बालू के कणों की तरह अगणित।

13) प्रतिज्ञा का फल पाये बिना वे सब विश्वास करते हुए मर गये। उन्होंने उसे दूर से देखा और उसका स्वागत किया। वे अपने को पृथ्वी पर परदेशी तथा प्रवासी मानते थे।

14) जो इस तरह की बातें कहते हैं, वे यह स्पष्ट कर देते हैं कि वे स्वदेश की खोज में लगे हुए हैं।

15) वे उस देश की बात नहीं सोचते थे, जहाँ से वे चले गए थे; क्योंकि वे वहाँ लौट सकते थे।

16) वे तो एक उत्तम स्वदेश अर्थात् स्वर्ग की खोज में लगे हुए थे; इसलिए ईश्वर को उन लोगों का ईश्वर कहलाने में लज्जा नहीं होती। उसने तो उनके लिए एक नगर का निर्माण किया है।

17) जब ईश्वर इब्राहीम की परीक्षा ले रहा था, तब विश्वास के कारण उन्होंने इसहास को अर्पित किया। वह अपने एकलौते पुत्र को बलि चढ़ाने तैयार हो गये थे,

18) यद्यपि उन से यह प्रतिज्ञा की गयी थी, कि इसहाक से तेरा वंश चलेगा।

19) इब्राहीम का विचार यह था कि ईश्वर मृतकों को भी जिला सकता है, इसलिए उन्होंने अपने पुत्र को फिर प्राप्त किया। यह भविष्य के लिए प्रतीक था।

20) विश्वास के कारण इसहाक ने याकूब एवं एसाव को भविष्य के लिए आशीर्वाद दिया।

21) विश्वास के कारण याकूब ने यूसुफ़़ के हर एक पुत्र को आशीर्वाद दिया और उन्होंने अपनी छड़ी की मूठ के सहारे झुक कर ईश्वर की आराधना की। विश्वास के कारण

22) यूसुफ़ ने मरते समय मिस्र से इस्राएलियों के निर्गमन का उल्लेख किया और अपनी हड्डियों के विषय में आदेश दिया।

23) विश्वास के कारण मूसा के माता-पिता ने यह देख कर कि बच्चा सुन्दर है, उन्हें जन्म के बाद तीन महिनों तक छिपाये रखा और वे राजा के आदेश से भयभीत नहीं हुए।

24) विश्वास के कारण सयाना हो जाने पर मूसा ने फिराउन की पुत्री का बेटा कहलाना अस्वीकार किया।

25) उन्होंने पाप का अल्पस्थायी सुख भोगने की अपेक्षा ईश्वर की प्रजा के साथ अत्याचार सहना अधिक उचित समझा।

26) उन्होने मिस्र की धन-सम्पत्ति की अपेक्षा मसीह के अपयश को अधिक मूल्यवान् माना, क्योंकि उनकी दृष्टि भविष्य में प्राप्त होने वाले पुरस्कार पर लगी हुई थी।

27) विश्वास के कारण उन्होंने मिस्र देश को छोड़ दिया। वह राजा के क्रोध से भयभीत नहीं हुए, बल्कि दृढ़ बने रहे, मानो वह अदृश्य ईश्वर का देख रहे थे।

28) विश्वास के कारण उन्होंने ’पास्का’ मनाया और रक्त छिड़का, जिससे विनाशक दूत इस्राएलियों के पहलौठे पुत्रों पर हाथ न डाले।

29) विश्वास के कारण उन लोगों ने लाल समुद्र पार किया, मानों वह सूखी भूमि था और जब मिस्रियों ने वैसा ही करने की चेष्टा की, तो वे डूब मरे।

30) विश्वास के कारण येरीख़ो की चारदीवारी गिर पड़ी, जब इस्राएली सात दिनों में सात बार उसकी परिक्रमा कर चुके थे।

31) विश्वास के कारण रहाब नामक वेश्या, अविश्वासियों के साथ नष्ट नहीं हुई, क्योंकि उसने गुप्तचरों का स्वागत किया था।

32) मैं और क्या कहूँ? गिदियोन, बराक, समसोन, यिफ़्तह, दाऊद, समूएल और अन्य नबियों की चरचा करने की मुझे फुरसत नहीं।

33) उन्होंने अपने विश्वास द्वारा राज्यों को अपने अधीन कर लिया, न्याय का पालन किया, प्रतिज्ञाओं का फल पाया, सिंहों का मुँह बन्द दिया

34) और प्रज्वलित आग बुझायी। वे तलवार की धार से बच गये और दुर्बल होने पर भी शक्तिशाली बन गये। उन्होंने युद्ध में वीरता का प्रदर्शन किया और विदेशी सेनाओं को भगा दिया।

35) स्त्रियों ने अपने पुनर्जीवित मृतकों को फिर प्राप्त किया। कुछ लोग यन्त्रणा सह कर मर गये और उस से इसलिए छुटकारा नहीं चाहते थे कि उन्हें श्रेष्ठतर पुनरुत्थान प्राप्त हो।

36) उपहास, कोड़ों, बेडि़यों और बन्दीगृह द्वारा कुछ लोगों की परीक्षा ली गयी है।

37) कुछ लोग पत्थरों से मारे गये, कुछ आरे से चीर दिये गये और कुछ तलवार के घाट उतारे गये। कुछ लोग दरिद्रता, अत्याचार और उत्पीड़न के शिकार बन कर भेड़ों और बकरियों की खाल ओढ़े इधर-उधर भटकते रहे।

38) संसार उनके योग्य नहीं था। उन्हें उजाड़ स्थानों, पहाड़ी प्रदेशों, गुफाओं और धरती के गड्ढों की शरण लेनी पड़ी।

39) वे सभी अपने विश्वास के कारण ईश्वर के कृपापात्र बने गये। फिर भी उन्हें प्रतिज्ञा का फल प्राप्त नहीं हुआ

40) क्योंकि ईश्वर ने हम को दृष्टि में रख कर एक श्रेष्ठत्तर योजना बनायी थी। वह चाहता था कि वे हमारे साथ ही पूर्णता तक पहुँचे।



Copyright © www.jayesu.com