📖 - याकूब का पत्र

अध्याय ➤ 01- 02- 03- 04- 05- मुख्य पृष्ठ

अध्याय 03

जीभ पर नियन्त्र आवश्यक

1) भाइयो! आप लोगों में बहुत लोग गुरु न बनें, क्योंकि आप जानते हैं कि हम गुरुओं से अधिक कड़ाई से लेखा मांगा जायेगा।

2) हम सब बारम्बार गलत काम करते हैं। जो कभी गलत बात नहीं कहता, वह पहुँचा हुआ मनुष्य है और वह अपने पूर्ण शरीर को नियन्त्रण में रख सकता है।

3) यदि हम घोड़ों को वश में रखने के लिए उनके मुंह में लगाम लगाते हैं, तो उनके सारे शरीर को इधर-उधर घुमा सकते हैं।

4) जहाज का उदाहरण लीजिए। वह कितना ही बड़ा क्यों न हो और तेज हवा से भले ही बहाया जा रहा हो, तब भी वह कर्णधार की इच्छा के अनुसार एक छोटी सी पतवार से चलाया जाता है।

5) इसी प्रकार जीभ शरीर का एक छोटा-सा अंग है, किन्तु वह शक्तिशाली होने का दावा कर सकती है। देखिए, एक-छोटी-सी चिनगारी कितने विशाल वन में आग लगा सकती है।

6) जीभ भी एक आग है, जो हमारे अंगों के बीच हर प्रकार की बुराई का स्रोत है। वह हमारा समस्त शरीर दूषित करती और नरकाग्नि से प्रज्वलित हो कर हमारे पूरे जीवन में आग लगा देती है।

7) हर प्रकार के पशु और पक्षी, रेंगने वाले और जलचर जीवजन्तु- सब-के-सब मानव जाति द्वारा वश में किये जा सकते हैं या वश में किये जा चुके हैं,

8) किन्तु कोई मनुष्य अपनी जीभ को वश में नहीं कर सकता। वह एक ऐसी बुराई है, जो कभी शान्त नहीं रहती और प्राणघातक विष से भरी हुई है।

9) हम उस से अपने प्रभु एवं पिता की स्तुति करते हैं और उसी से मनुष्यों को अभिशाप देते हैं, जिन्हें ईश्वर ने अपना प्रतिरूप बनाया है।

10) एक ही मुख से स्तुति भी निकलती है और अभिशाप भी। मेरे भाइयो! यह उचित नहीं है।

11) क्या जलस्रोत की एक ही धारा से मीठा पानी भी निकलता है और खारा भी?

12) क्या अंजीर के पेड़ पर जैतून लगते हैं या दाखलता पर अंजीर? खारे जलस्रोत से भी मीठा पानी नहीं निकलता।

संसार की बुध्दिमानी और ईश्वरीय प्रज्ञा

13) आप लोगों में जो ज्ञानी और समझदार होने का दावा करते हैं, वह अपने सदाचरण द्वारा, अपने नम्र तथा बुद्धिमान व्यवहार द्वारा इस बात का प्रमाण दें।

14) यदि आपका हृदय कटु ईर्ष्या और स्वार्थ से भरा हुआ है, तो डींग मार कर झूठा दावा मत करें।

15) इस प्रकार की बुद्धि ऊपर से नहीं आती, बल्कि वह पार्थिव, पाशविक और शैतानी है।

16) जहाँ ईर्ष्या और स्वार्थ है, वहाँ अशान्ति और हर तरह की बुराई पायी जाती है।

17) किन्तु ऊपर से आयी हुई प्रज्ञा मुख्यतः पवित्र है और वह शान्तिप्रिय, सहनशील, विनम्र, करुणामय, परोपकारी, पक्षपातहीन और निष्कपट भी है।

18) धार्मिकता शान्ति के क्षेत्र में बोयी जाती है और शान्ति स्थापित करने वाले उसका फल प्राप्त करते हैं।



Copyright © www.jayesu.com