वर्ष -1, तीसरा सप्ताह, शनिवार

पहला पाठ : इब्रानियों के नाम पत्र 11:1-2,8-19

1) विश्वास उन बातों की स्थिर प्रतीक्षा है, जिनकी हम आशा करते हैं और उन वस्तुओं के अस्तित्व के विषय में दृढ़ धारणा है, जिन्हें हम नहीं देखते।

2) विश्वास के कारण हमारे पूर्वज ईश्वर के कृपापात्र बने।

8) विश्वास के कारण इब्राहीम ने ईश्वर का बुलावा स्वीकार किया और यह न जानते हुए भी कि वह कहाँ जा रहे हैं, उन्होंने उस देश के लिए प्र्रस्थान किया, जिसका वह उत्तराधिकारी बनने वाले थे।

9) विश्वास के कारण वह परदेशी की तरह प्रतिज्ञात देश में बस गये और वहाँ इसहाक तथा याकूब के साथ, जो एक ही प्रतिज्ञा के उत्तराधिकारी थे, तम्बुओं में रहने लगे।

10) इब्राहीम ने ऐसा किया, क्योंकि वह उस पक्की नींव वाले नगर की प्रतीक्षा में थे, जिसका वास्तुकार तथा निर्माता ईश्वर है।

11) विश्वास के कारण उमर ढ़ल जाने पर भी सारा गर्भवती हो सकीं; क्योंकि उनका विचार यह था जिसने प्रतिज्ञा की है, वह सच्चा है

12) और इसलिए एक मरणासन्न व्यक्ति से वह सन्तति उत्पन्न हुई, जो आकाश के तारों की तरह असंख्य है और सागर-तट के बालू के कणों की तरह अगणित।

13) प्रतिज्ञा का फल पाये बिना वे सब विश्वास करते हुए मर गये। उन्होंने उसे दूर से देखा और उसका स्वागत किया। वे अपने को पृथ्वी पर परदेशी तथा प्रवासी मानते थे।

14) जो इस तरह की बातें कहते हैं, वे यह स्पष्ट कर देते हैं कि वे स्वदेश की खोज में लगे हुए हैं।

15) वे उस देश की बात नहीं सोचते थे, जहाँ से वे चले गए थे; क्योंकि वे वहाँ लौट सकते थे।

16) वे तो एक उत्तम स्वदेश अर्थात् स्वर्ग की खोज में लगे हुए थे; इसलिए ईश्वर को उन लोगों का ईश्वर कहलाने में लज्जा नहीं होती। उसने तो उनके लिए एक नगर का निर्माण किया है।

17) जब ईश्वर इब्राहीम की परीक्षा ले रहा था, तब विश्वास के कारण उन्होंने इसहास को अर्पित किया। वह अपने एकलौते पुत्र को बलि चढ़ाने तैयार हो गये थे,

18) यद्यपि उन से यह प्रतिज्ञा की गयी थी, कि इसहाक से तेरा वंश चलेगा।

19) इब्राहीम का विचार यह था कि ईश्वर मृतकों को भी जिला सकता है, इसलिए उन्होंने अपने पुत्र को फिर प्राप्त किया। यह भविष्य के लिए प्रतीक था।

सुसमाचार : सन्त मारकुस का सुसमाचार 4:35-41

35) उसी दिन, सन्ध्या हो जाने पर, ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, "हम उस पार चलें"।

36) लोगों को विदा करने के बाद शिष्य ईसा को उसी नाव पर ले गये, जिस पर वे बैठे हुए थे। दूसरी नावें भी उनके साथ चलीं।

37) उस समय एकाएक झंझावात उठा। लहरें इतने ज़ोर से नाव से टकरा नहीं थीं कि वह पानी से भरी जा रही थी।

38) ईसा दुम्बाल में तकिया लगाये सो रहे थे। शिष्यों ने उन्हें जगा कर कहा, "गुरुवर! हम डूब रहे हैं! क्या आप को इसकी कोई चिन्ता नहीं?"

39) वे जाग गये और उन्होंने वायु को डाँटा और समुद्र से कहा, "शान्त हो! थम जा!" वायु मन्द हो गयी और पूर्ण शान्ति छा गयी।

40) उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, "तुम लोग इस प्रकार क्यों डरते हो ? क्या तुम्हें अब तक विश्वास नहीं हैं?"

41) उन पर भय छा गया और वे आपस में यह कहते रहे, "आखिर यह कौन है? वायु और समुद्र भी इनकी आज्ञा मानते हैं।"

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार में हम मनन-चिंतन करते हैं कि शिष्य प्रभु येसु को अपने साथ नाव में ले गये, उनके साथ दूसरी अन्य नावें भी थीं। तभी एकाएक ज़ोर का तूफ़ान उठता है और नाव लहरों में डगमगाने लगती है, उसमें पानी भरने लगता है, शिष्य भयभीत होकर घबरा जाते हैं और नाव में सोये हुए प्रभु येसु को झकझोर कर जगाते हैं। प्रभु येसु लहरों और तूफ़ान को डाँटते हैं और चारों ओर शान्ति छा जाती है। शिष्य लोग भले ही लम्बे समय से प्रभु येसु के साथ थे, उन्होंने बहुत से चमत्कार देखे थे, लेकिन फिर भी वह यह नहीं जान सके कि वे ईश्वर के साथ थे। वे अपने बीच में सच्चे ईश्वर की उपस्थिति को नहीं पहचान सके।

हमारा जीवन भी एक नैया के समान है, जिसमें हमारे साथ प्रभु येसु भी हैं, लेकिन शायद सोये हुए हैं। तभी कुछ कठिनाइयाँ, कुछ विपत्तियाँ, कुछ संकट और परेशानियों के रूप में आँधी-तूफ़ान उठने लगते हैं, और हमारी जीवन नैया हिचकोले खाने लगती है, डगमगाने लगती है। सब कुछ बड़ा भयभीत करने लगता है, हमारी जीवन की नाव डूबने लगती है, हम घबरा जाते हैं, स्थिति को नियंत्रण में लाने की जी जान से कोशिश करते हैं लेकिन सब कुछ हमारे हाथों से फिसलने लगता है और तब हमें याद आता है कि हमारी नाव में तो प्रभु सोये हुए हैं, वह तो सब कुछ को नियंत्रित कर सकते हैं, उनके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। और जब हम उनको पुकारते हैं तो वह तुरन्त हमारे जीवन के सारे आँधी-तूफ़ान को शान्त करने के लिए तैयार रहते हैं। आइए हम अपनी जीवन नैया में उनकी उपस्थिति को पहचानें और अपने जीवन की बाग-डोर उसके हाथों में दे दें। आमेन।

-फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION


In the gospel today we reflect that the disciples took Jesus with them in the boat, and there were also other boats. There, they face a situation, the storm breaks out and waves start tossing the boats, water starts filling and the disciples get terrified and awake Jesus to save them. Jesus rebukes the storm and the waves and everything becomes calm. The disciples, though they had been with Jesus and witnessed great miracles, yet they could not realise that they were in the company of God himself. They could not realise his great presence among themselves.

Our life is like a boat where we have Jesus with us perhaps asleep in the boat. Then some difficulties, some worries, some failures, some tragedies start rising and our life starts tossing and trembling. Everything seems very terrifying, life seems to be sinking and we start struggling and try to take control of the situation, but it seems to go beyond our control, and then we remember that we have someone with us who can control anything, for whom anything is possible. When we call upon him, he is ever ready to calm all the storms of our life. Let us be aware of his holy presence in our life. Amen.

-Fr. Johnson B.Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!