वर्ष -1, छ्ठवाँ सप्ताह, मंगलवार

पहला पाठ : उत्पत्ति ग्रन्थ 6:5-8;7:1-5.10

5) प्रभु ने देखा कि पृथ्वी पर मनुष्यों की दुष्टता बहुत बढ़ गयी है और उनके मन में निरन्तर बुरे विचार और बुरी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं,

6) तो प्रभु को इस बात का खेद हुआ कि उसने पृथ्वी पर मनुष्य को बनाया था। इसलिए वह बहुत दुःखी था।

7) प्रभु ने कहा, ''मैं उस मानवजाति को, जिसकी मैंने सृष्टि की है, पृथ्वी पर से मिटा दूँगा - और मनुष्यों के साथ-साथ पशुओं, रेंगने वाले जीव-जन्तुओं और आकाश के पक्षियों को भी - क्योंकि मुझे खेद है कि मैंने उन को बनाया है''।

8) नूह को ही प्रभु की कृपादृष्टि प्राप्त हुई।

1) प्रभु ने नूह से कहा, ''तुम अपने सारे परिवार के साथ पोत पर चढ़ो, क्योंकि इस पीढ़ी में केवल तुम्हीं मेरी दृष्टि में धार्मिक हो।

2) तुम समस्त शुद्व पशुओं में से नर-मादा के सात-सात जोड़े ले जाओ और समस्त अशुद्ध पशुओं में से दो, नर और उसकी मादा को।

3) आकाश के पक्षियों में से भी नर और मादा के सात-सात जोड़े। इस तरह समस्त पृथ्वी पर उनकी जाति बनाये रखोगे;

4) क्योंकि सात दिन बाद मैं चालीस दिन और चालीस रात पानी बरसाऊँगा और पृथ्वी पर से उन सब प्राणियों को मिटा दूँगा, जिन्हें मैंने बनाया है।''

5) नूह ने वह सब किया, जिसका आदेश प्रभु ने दिया था और सातवें दिन प्रलय का जल पृथ्वी पर बरसने लगा।

10) सातवें दिन प्रलय का जल पृथ्वी पर बरसने लगा।

सुसमाचार : सन्त मारकुस का सुसमाचार 8:14-21

14) शिष्य रोटियाँ लेना भूल गये थे, और नाव में उनके पास एक ही रोटी थी।

15) उस समय ईसा ने उन्हें यह चेतावनी दी, ’’सावधान रहो। फ़रीसियों के ख़मीर और हेरोद के ख़मीर से बचते रहो’’।

16) इस पर वे आपस में कहने लगे, ’’हमारे पास रोटियाँ नहीं है, इसलिए यह ऐसा कहते हैं’’।

17) ईसा ने यह जान कर उन से कहा, ’’तुम लोग यह क्यों सोचते हो कि हमारे पास रोटियाँ नहीं है, इसलिए यह ऐसा कहते है? क्या तुम अब तक नहीं जान सके हो? नही समझ गये हो? क्या तुम्हारी बुद्धि मारी गयी है?

18) क्या आँखें रहते भी तुम देखते नहीं? और कान रहते भी तुम सुनते नहीं? क्या तुम्हें याद नही है-

19) जब मैने उन पाँच हज़ार लोगों के लिए पाँच रोटियाँ तोड़ीं, तो तुमने टूकड़ों के कितने टोकरे भरे थे?’’ शिष्यों ने उत्तर दिया, ’’बारह’’।

20) ’’और जब मैंने चार हज़ार लोगों के लिए सात रोटियाँ तोड़ीं, तो तुमने टुकड़ों के कितने टोकरे भरे थे?’’ उन्होंने उत्तर दिया, ’’सात’’।

21) इस पर ईसा ने उन से कहा, ’’क्या तुम लोग अब भी नहीं समझ सके?’’

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार पाठ में प्रभु येसु अपने शिष्यों से बहुत नाराज़ नज़र आते हैं। प्रभु येसु ने फरीसियों के खमीर और हेरोद के खमीर के बारे में उनसे जो कहा उसे वे समझ नहीं पाए थे। वे यह सोच रहे थे कि येसु ऐसा इसलिए कह रहे थे क्योंकि वे अपने साथ रोटी लाना भूल गए थे। वास्तव में, येसु उन्हें फरीसियों और हेरोद के बुरे इरादों के खिलाफ चेतावनी देने की कोशिश कर रहे थे। येसु अपने शिष्यों को अनुभवहीन अथवा नासमझ कहते हैं । यह संभव है कि येसु कभी-कभी हमसे भी नाराज़ हो सकते हैं । येसु के शिष्यों की तरह हम में भी कभी - कभी समझदारी की कमी होती है। कई बार हम यह सुनने में विफल हो जाते हैं कि यीशु वास्तव में हमसे क्या कह रहे हैं, यह देखने में विफल हो जाते हैं कि यीशु हमें क्या दिखाना चाह रहे हैं।

आइये हम येसु के पास इस मन से आएं कि जो येसु हमें सुनाना या दिखाना चाहते हैं, हम उसे वैसे ही सुन व देख पाएं। । हमें आज हमारी आंखों और हमारे कानों को खोलने की जरूरत है। हमें विनम्रता, और आत्मा की दीनता की आवश्यकता है, जिससे कि हम यह कह सकें कि 'प्रभु मैं देख सकता हूं', 'प्रभु मैं सुन सकता हूँ।' आमेन।


-फादर प्रीतम वसूनिया (इन्दौर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION


In the Gospel reading Jesus seems very frustrated with his disciples. They misunderstand what Jesus says to them about the yeast of the Pharisees and the yeast of Herod, thinking that Jesus is referring to the fact that they have forgotten to bring bread. In reality, Jesus was trying to warn them against the evil intentions of the Pharisees and of Herod. Jesus addresses his disciples as people without perception. It is likely that Jesus can be just as frustrated with us at times. Like the first disciples we too can demonstrate a lack of perception, a failure to hear what Jesus is really saying to us, a failure to see what Jesus is trying to show us.

We need to keep coming before the Lord in the awareness that we do not see as he wants us to see or hear as he wants us to hear. Our eyes and our ears need opening, and, perhaps, the times when we think we see and hear well are the very times when we are most blind and deaf. We need the humility, the poverty of spirit, which keeps us praying, ‘Lord, that I may see’, ‘Lord, that I may hear’.

-Fr. Preetam Vasuniya (Indore)


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Praise the Lord!