वर्ष -1, दसवाँ सप्ताह, मंगलवार

पहला पाठ : 2 कुरिन्थियों 1:18-22

18) ईश्वर की सच्चाई की शपथ! मैंने आप लोगों को जो सन्देश दिया, उस में कभी ’हाँ’ और कभी ’नहीं’-जैसी बात नहीं है;

19) क्योंकि सिल्वानुस, तिमथी और मैंने आपके बीच जिनका प्रचार किया, उन ईश्वर के पुत्र ईसा मसीह में कभी ’हाँ’ और कभी ’नहीं’-जैसी बात नहीं - उन में मात्र ’हाँ’ है।

20) उन्हीं में ईश्वर की समस्त प्रतिज्ञाओं की ’हाँ’ विद्यमान है, इसलिए हम ईश्वर की महिमा के लिए उन्हीं के द्वारा ’आमेन’ कहते हैं।

21) ईश्वर आप लोगों के साथ हम को मसीह में सुदृढ़ बनाये रखता है और उसी ने हमारा अभिशेक किया है।

22) उसी ने हम पर अपनी मुहर लगायी और अग्रिम के रूप में हमारे हृदयों को पवित्र आत्मा प्रदान किया है।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 5:13-16

(13) "तुम पृथ्वी के नमक हो। यदि नमक फीका पड़ जाये, तो वह किस से नमकीन किया जायेगा? वह किसी काम का नहीं रह जाता। वह बाहर फेंका और मनुष्यों के पैरों तले रौंदा जाता है।

(14) "तुम संसार की ज्योति हो। पहाड़ पर बसा हुआ नगर छिप नहीं सकता।

(15) लोग दीपक जला कर पैमाने के नीचे नहीं, बल्कि दीवट पर रखते हैं, जहाँ से वह घर के सब लोगों को प्रकाश देता है।

(16) उसी प्रकार तुम्हारी ज्योति मनुष्यों के सामने चमकती रहे, जिससे वे तुम्हारे भले कामों को देख कर तुम्हारे स्वर्गिक पिता की महिमा करें।

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार पर्वत प्रवचन में हम सुनते हैं कि प्रभु येसु हमें नमक और ज्योति के बारे में बताते हैं। नमक की अपने आप में कोई उपयोगिता नहीं है। यदि हमें कितनी ही मँहगी और स्वादिष्ट भोजन दिया जाए यदि उसमें नमक ना हो तो वह फीका ही समझा जायेगा। वह फेका और पैरों तले रौंदा जाता है। दोनों नमक और ज्योति अपने गुणों द्वारा अपने आस-पास के लोगों और वस्तुओं को प्रभावित करते हैं। नमक का अर्थ है कि हम अपने अच्छे गुणों द्वारा उनके जीवन को प्रभावित कर प्रभु येसु के असीम प्रेम को दूसरों तक अपने अच्छे कार्यों द्वारा दिखा सकें। नमक का उपयोग वस्तु को सड़ने या गलने से रोकने के लिए भी इसका उपयोग किया जाता है। उसी प्रकार ज्योति के महत्व को हम तब समझते हैं जब हम अंधकार में फंस जाते हैं।

हमें अपने ख्रीस्तीय जीवन में नमक और ज्योति तरह बनकर दुसरों के लिए सार्थक और उपयोगी बनना है। यही हमारे ख्रीस्तीय जीवन का सार है। इसीलिए प्रभु येसु हमे संत योहन के सुसमाचार 01:4-5 में कहते हैं, उसमें जीवन था, और वह जीवन मनुष्यों की ज्योति था। वह ज्योति अंधकार में चमकती रहती है - अंधकार ने उसे नहीं बुझाया।

फादर आइजक एक्का

📚 REFLECTION


In today’s gospel reading Sermon on the Mount, we hear very important things told by Jesus about salt and light. Salt by itself has no utility. If we are served a costly and delicious meal; but if it has no salt then it will be of no use. It will be thrown away and trampled by foot. Both salt and light have properties which affect things around them. To ‘be salt’ means to deliberately seek the influence the people in one’s life by showing them the unconditional love of Christ through good deeds. And also salt is used to enhance flavour and as a preservative. Similarly, we feel the importance light when we are in darkness; and we look for light; without light we cannot do anything.

In our Christian life we need to be useful as salt and light for others and make their lives meaningful and useful. This is the core message of Christian life. That’s why Jesus says in St.John’s gospel 1:4-5, in him was life, and the life was the light of all people. The light shines in the darkness, and the darkness did not overcome it.

-Fr. Isaac Ekka


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Praise the Lord!