वर्ष -1, चौदहवाँ सप्ताह, सोमवार

पहला पाठ : उत्पत्ति 28:10-22a

10) याकूब ने बएर-शेबा छोड़ कर हारान के लिए प्रस्थान किया।

11) वह किसी तीर्थ-स्थान जा पहुँचा और वहाँ रात भर ठहर गया, क्योंकि सूर्यास्त हो गया था। उसने वहाँ पड़े हुए पत्थरों में से एक को उठा लिया और उसे तकिया बना कर वहाँ सो गया।

12) उसने यह स्वप्न देखा : एक सीढ़ी धरती पर खड़ी थी; उसका सिरा स्वर्ग तक पहुँचता था और ईश्वर के दूत उस पर उतरते-चढ़ते थे।

13) ईश्वर याकूब के पास खड़ा हो गया और बोला, ''मैं प्रभु, तुम्हारे पिता इब्राहीम का ईश्वर तथा इसहाक का ईश्वर हूँ। मैं तुम्हें और तुम्हारे वंशजों को यह धरती दे दूँगा, जिस पर तुम लेट रहे हो।

14) तुम्हारे वंशज भूमि के रजकणों की तरह असंख्य हो जायेंगे और पश्चिम तथा पूर्व, उत्तर तथा दक्षिण में फैल जायेंगे। तुम्हारे और तुम्हारे वंश द्वारा पृथ्वी भर के राष्ट्र आशीर्वाद प्राप्त करेंगे।

15) मैं तुम्हारे साथ रहूँगा। तुम जहाँ कहीं भी जाओगे, मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा और तुम्हें इस प्रदेश वापस ले जाऊँगा, क्योंकि मैं तुम्हें तब तक नहीं छोडूँगा, जब तक तुम से जो कहा, उसे पूरा न कर दूँ।''

16) याकूब नींद से जाग उठा और बोला, ''निश्चय ही प्रभु इस स्थान पर विद्यमान है और यह मुझे मालूम नहीं था''।

17) वह भयभीत हो गया और बोला, ''यह स्थान कितना श्रद्धाजनक है! यह तो ईश्वर का निवास है, यह स्वर्ग का द्वार है!''

18) उसने बहुत सबेरे उठ कर सिरहाने का वह पत्थर उठाया, उसे स्मारक के रूप में खड़ा किया और उसके सिरे पर तेल उँड़ेल दिया।

19) उसने स्थान का नाम बेतेल रखा। वह नगर पहले लूज कहलाता था।

20) याकूब ने यह प्रतिज्ञा की, ''यदि ईश्वर मेरे साथ रहेगा और मेरी इस यात्रा में मेरी रक्षा करेगा, यदि वह मुझे खाने के लिए भोजन और पहनने के लिए कपड़े देगा और

21) यदि मैं सकुशल अपने पिता के घर लौटूँगा, तो प्रभु ही मेरा ईश्वर होगा और जो पत्थर मैंने स्मारक के रूप में खड़ा किया, वह ईश्वर का मन्दिर होगा।

22) जो कुछ तू मुझे प्रदान करेगा, मैं उसका दशमांश तुझे दिया करूँगा।''

सुसमाचार : मत्ती 9:18-23

18) ईसा उन से ये बातें कह ही रहे थे कि एक अधिकारी आया। उसने यह कहते हुए उन्हें दण्डवत् किया, ’’मेरी बेटी अभी-अभी मर गयी है। आइए, उस पर हाथ रखिए और वह जी जायेगी।’’

19) ईसा उठ कर अपने शिष्यों के साथ उसके पीछे हो लिये।

20) उस समय एक स्त्री ने, जो बारह बरस से रक्तस्राव से पीडि़त थी, पीछे से आ कर ईसा के कपडे़ का पल्ला छू लिया;

21) क्योंकि वह मन-ही-मन कहती थी- यदि मैं उनका कपड़ा भर छूने पाऊँ, तो चंगी हो जाऊॅंगी।

22) ईसा ने मुड़ कर उसे देख लिया और कहा ’’बेटी, ढारस रखो। तुम्हारे विश्वास ने तुम्हें चंगा कर दिया है।’’ और वह स्त्री उसी क्षण चंगी हो गई।

23) ईसा ने अधिकारी के घर पहुँच कर बाँसुरी बजाने वालों और लोगों को रोते-पीटते देखा और

24) कहा, ’’हट जाओ। लड़की नहीं मरी है, सो रही है।’’ इस पर वे उनकी हॅंसी उड़ाते रहे।

25) भीड़ बाहर कर दी गयी। तब ईसा ने भीतर जा कर लड़की का हाथ पकड़ा और वह उठ खड़ी हुई।

26) इस बात की चरचा उस इलाक़े के कोने-कोने में फैल गयी।

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार में एक चमत्कार के अन्दर एक दूसरा चमत्कार बुना हुआ है. एक अधिकारी की 12 बरस की बेटी को जिलाने का चमत्कार और 12 बरस से रक्तस्राव से पीड़ित स्त्री को चंगाई का चमत्कार एक दूसरे में बुने हुए हैं. ये दोनों घटनाएँ पहले तीनों सुसमाचारों में पाई जाती हैं, और सन्त मरकुस और लूकस के सुसमाचार में तो अधिकारी का नाम भी दिया हुआ है - जैरुस. प्रभु येसु लोगों के जीवन में जो भी चमत्कार करते थे, उन सब में एक बहुत ही सामान्य और ज़रूरी एक बात होती थी, वह थी चमत्कार पाने वाले का विश्वास. प्रभु येसु किसी भी चमत्कार का श्रेय उस व्यक्ति के विश्वास को देते हैं, जैसा व्यक्ति का विश्वास वैसा ही प्रभु येसु का प्रत्युत्तर.

बिना विश्वास के प्रभु येसु कोई चमत्कार नहीं करना चाहते थे. जब वे अपने गृह नगर आये तो लोगों के अविश्वास के कारण वहाँ उन्होंने बहुत कम चमत्कार दिखाए.(मत्ती 13:57-58). आज के सुसमाचार के दोनों चमत्कारों में उन दोनों व्यक्तियों, सभागृह का अधिकारी और रक्तस्राव पीडिता, का विश्वास अनुकरणीय है. वह एक अधिकारी होते हुए भी प्रभु येसु के सामने घुटने टेककर मिन्नत करता है. यह उसके विश्वास का प्रकटीकरण है. उसे मालूम है, प्रभु येसु ईश्वर हैं. हम जितना ईश्वर में विश्वास करेंगे उतना ही उनका सम्मान करेंगे, और जितना हम सम्मान करेंगे उतना ही ईश्वर हमको आशीष देंगे. यही प्रभु येसु का हमसे वादा है. आईये हम प्रभु से कृपा माँगें कि हमारा विश्वास प्रभु में और गहरा हो, कि हम अपने जीवन में ईश्वर के बहुत से चमत्कार देखें. आमेन.

फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर)

📚 REFLECTION


In the gospel today, we see two miracles, one nested into the other. Both miracles, one of raising the 12 year old daughter of the ruler of synagogue and other the woman with discharge of blood for 12 years. These both miracles are found in all three synoptic gospels, out of which two gospels (Mark and Luke) give even the name of the ruler as Jairus. Whenever Jesus performed a miracle for the people, there was a very common factor in each miracle, and that was the faith of the person concerned. Jesus gave the credit of the miracle to the faith of the person, very often saying, ‘your faith has healed you.’ He always appreciated the deep faith of the person.

Jesus wouldn’t want to perform a miracle in the absence of faith. Where there is no faith, there is no miracle. When he came to his own place, people could not believe in him, hence it is written due to lack of faith among the people, he did not perform many miracles there. (cf Matthew 13:57-58). The faith of the ruler and the woman in need of healing is worth emulating. He was a ruler, an officer, yet he falls on his knees, pleading Jesus. This gesture was the expression of his faith in Jesus. He believed, Jesus was son of God. The more faith we have in God, the more we will honour Him, the more we will honour him, the more he will bless us, that is the assurance given by Jesus himself. Let us ask the Lord to strengthen and deepen our faith in Him, so that we may witness more and more miracles in our life.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!