वर्ष -1, चौदहवाँ सप्ताह, गुरुवार

पहला पाठ : उत्पत्ति 44:18-21, 23-29; 45:1-5

18) इस पर यूदा ने यूसुफ़ के पास जा कर कहा, ''महोदय! मुझे आज्ञा दें। मैं आप से एक निवेदन करना चाहता हूँ। आप मुझ पर क्रोध न करें। आप तो फिराउन के सदृश हैं।

19) महोदय ने हम लोगों से यह प्रश्न किया था कि 'क्या तुम लोगों के पिता और भाई भी है?'

20) और हमने उत्तर दिया था, 'हम लोगों के एक वृद्ध पिताजी हैं और उनके एक किशोर पुत्र है, जिसका जन्म उनकी वृद्धावस्था में हुआ है। उस लड़के का सगा भाई मर गया है; वह अपनी माता की एकमात्र जीवित सन्तान है और उसके पिता उसे प्यार करते हैं।'

21) आपने हम से कहा था, 'उसे मेरे पास ले आओ; मैं उसे देखना चाहता हूँ'।

23) तब आपने हम, अपने दासों, से कहा, 'यदि तुम्हारा कनिष्ठ भाई तुम्हारे साथ नहीं आयेगा, तो तुम्हें मुझ से फिर मिलने की अनुमति नहीं मिलेगी'।

24) इसलिए हमने आपके दास, अपने पिता, के पास जाकर उन्हें ये बातें बतायीं

25) जब हमारे पिता ने हम से कहा, 'फिर अनाज खरीदने जाओ',

26) तो हमने उत्तर दिया, 'हम नहीं जा सकते। जब तक हमारा कनिष्ठ भाई हमारे साथ नहीं हो, तब तक हम नहीं जायेंगे; क्योंकि यदि हमारा कनिष्ठ भाई हमारे साथ नहीं होगा, तो हमें उस मनुष्य से मिलने की अनुमति नहीं मिलेगी।'

27) इस पर आपके दास हमारे पिता ने हम से कहा, 'तुम जानते ही हो कि अपनी पत्नी से मुझे दो ही पुत्र हुए हैं।

28) एक मुझे छोड़ कर चला गया और मेरा अनुमान है कि किसी जानवर ने उसे टुकडे-टुकड़े कर दिया है; क्योंकि आज तक मैंने उसे फिर कभी नहीं देखा।

29) यदि तुम इसे भी मुझ से ले जाओगे और यह किसी विपत्ति का शिकार होगा, तो तुम मुझ पके बाल वाले को शोक से मार कर अधोलोक पहुँचा दोगे।'

45:1) अब यूसुफ़ अपने परिचरों के सामने अपने को वश में नहीं रख सका और पुकार कर उन से बोला, ''सब-के-सब बाहर जाओ''। तो वहाँ कोई और व्यक्ति नहीं था जब यूसुफ़ ने अपने भाइयों को अपना परिचय दिया।

2) किन्तु वह इतने जोर से रोने लगा कि मिस्रियों ने उसका रोना सुन लिया और फिराउन के महल में भी इसकी ख़बर पहुँच गयी।

3) यूसुफ़ ने अपने भाइयों से कहा, मैं यूसुफ़ हूँ। क्या मेरे पिताजी अब तक जीवित हैं?'' उसके भाई यूसुफ़ को देख कर इतने घबरा गये कि वह उत्तर में एक शब्द भी नहीं बोल सके।

4) यूसुफ़ ने अपने भाइयों से कहा, ''मेरे और निकट आ जाओ'' और वे उसके पास आये उसने कहा, ''मैं तुम्हारा भाई यूसुफ़ हूँ, जिसे तुमने मिस्र में बेच दिया था।

5) अब तुम इसलिए न तो शोक करो और न अपने को धिक्कारो कि तुमने मुझे यहाँ बेच दिया; क्योंकि ईश्वर ने तुम्हारे प्राण बचाने के लिए मुझे तुम से पहले यहाँ भेजा।

सुसमाचार : मत्ती 10:7-15

7) राह चलते यह उपदेश दिया करो- स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।

8) रोगियों को चंगा करो, मुरदों को जिलाओ, कोढि़यों को शुद्ध करो, नरकदूतों को निकालो। तुम्हें मुफ़्त में मिला है, मुफ़्त में दे दो।

9) अपने फेंटे में सोना, चाँदी या पैसा नहीं रखो।

10) रास्ते के लिए न झोली, न दो कुरते, न जूते, न लाठी ले जाओ; क्योंकि मज़दूर को भोजन का अधिकार है।

11) "किसी नगर या गाँव में पहुँचने पर एक सम्मानित व्यक्ति का पता लगा लो और नगर से विदा होने तक उसी के यहाँ ठहरो।

12) उस घर में प्रवेश करते समय उसे शांति की आशिष दो।

13) यदि वह घर योग्य होगा, तो तुम्हारी शान्ति उस पर उतरेगी। यदि वह घर योग्य नहीं होगा, तो तुम्हारी शान्ति तुम्हारे पास लौट आयेगी।

14) यदि कोई तुम्हारा स्वागत न करे और तुम्हारी बातें न सुने तो उस घर या उस नगर से निकलने पर अपने पैरों की धूल झाड़ दो।

15) मैं तुम से यह कहता हूँ - न्याय के दिन उस नगर की दशा की अपेक्षा सोदोम और गोमोरा की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।

📚 मनन-चिंतन

प्रभु येसु आज के सुसमाचार में शिष्यों के चुनने के बाद उन्हें उनका काम समझाते हैं और साथ ही उन्हें इस बात का संकेत भी देते हैं कि उन्हें उनके मिशन कार्य में कैसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है. प्रभु येसु के निर्देशों का सार यह है कि शिष्यों को स्वर्ग राज्य की घोषणा करनी है, लेकिन कैसे करनी है, उसका तरीका थोडा अलग है. प्रभु येसु न केवल उन्हें समझाते हैं कि उन्हें क्या बोलना है, बल्कि उन्हें कैसे रहना है. बोलने से ज्यादा उनके जीने के ढंग के बारे में उन्हें समझाते हैं. क्या पहनना है, क्या साथ लेना है, क्या साथ नहीं लेना है, धन-दौलत की क्या भूमिका है इत्यादि. यानि कि शिष्यों को प्रभु येसु सुसमाचार सुनाने का एक मिशन कार्य सौंपते हैं, और उस सुसमाचार की घोषणा शिष्यों को अपने वचनों से बढ़कर अपने कर्मों से करनी है. उन्हें अपने कर्मों से ईश्वर के राज्य का साक्ष्य देना है.

अंग्रेजी में एक कहावत है, ‘तुम्हारे कार्य तुम्हारे शब्दों से अधिक शोर करते हैं.’ हम क्या बोल रहे हैं, उससे अधिक लोग इस बात पर ध्यान देते हैं कि हम क्या कर रहे हैं, और कैसे कर रहे हैं. हमारी कथनी और करनी के अन्तर को लोग तुरन्त पहचान लेते हैं. ईश्वर के वचन अगर हमारे जीवन के द्वारा हमारे कर्म नहीं बन जाते तो उनका उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता. ईश्वर के वचन अपना उद्देश्य पूरा करने के लिए ही हमें दिये गये हैं. हमारे बप्तिस्मा संस्कार द्वारा हमें भी ईश्वर के उसी मिशन कार्य में सहभागी होने का सौभाग्य मिला है. क्या हम अपने जीवन द्वारा, अपने कर्मों द्वारा ईश्वर के वचन को दूसरों तक पहुँचा सकते हैं? क्या हमारा जीवन प्रभु येसु के सुसमाचार का जीवन्त साक्ष्य दे सकता है? इसके लिए ईश्वर से हम कृपा माँगें. आमेन.

फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर)

📚 REFLECTION


Jesus explains the mission to his disciples after choosing them, and also he hints them about the environment and situation they may face while taking the gospel to the world. The instruction given by Jesus to his disciples could be summed up that they have to proclaim the good news but in a unique way. Jesus, not only instructs them as to what they have to speak, moreover how they have to living. He explains them what they have to carry with them, and what they are not supposed to carry with them, what they have to wear etc. This all consists of their way of living. The mission that Jesus entrusts to his disciples, has to be preached by their life more than their word. They had to bear witness to the kingdom of God through their actions and lives.

We are familiar with the saying, ‘Your actions speak louder than your words.’ People notice our actions and behaviour more than what we say. They notice the difference between our words and actions. If Word of God is not expressed through our cons, then its real purpose is not fulfilled. It comes down to fulfil its purpose in our lives. We share in the mission of God through our Baptism. Can we take the Word of God to others through our lives, through our actions? Can we translate God’s word in our life? Can we become living witnesses to the Gospel values? Let us implore the Lord for this grace.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!