वर्ष -1, चौदहवाँ सप्ताह, शुक्रवार

पहला पाठ : उत्पत्ति 46:1-7, 28-30

1) इस्राएल ने अपनी समस्त सम्पत्ति के साथ प्रस्थान किया और बएर-शेबा पहँुच कर अपने पिता इसहाक के ईश्वर को बलि चढ़ायी।

2) ईश्वर ने रात को एक दिव्य दर्शन में इस्राएल से कहा, ''याकूब! याकूब!'' और उसने उत्तर दिया, ''मैं प्रस्तुत हूँ।''

3) तब ईश्वर ने कहा, ''मैं ईश्वर, तुम्हारे पिता का ईश्वर हूँ। मिस्र देश जाने से मत डरो, क्योंकि मैं वहाँ तुम्हारे द्वारा एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा।

4) मैं स्वयं तुम्हारे साथ मिस्र देश जाऊँगा और तुम को फिर वहाँ से निकाल लाऊँगा। यूसुफ़ तुम्हारे मरने पर तुम्हारी आँखें बन्द कर देगा।''

5) याकूब बएर-शेबा से चला गया। इस्राएल के पुत्रों ने अपने पिता याकूब, अपने छोटे बच्चों और अपनी पत्नियों को उन रथों पर चढ़ाया, जिन्हें फिराउन ने उन्हें ले आने के लिए भेजा था।

6) वे अपना पशुधन और जो कुछ उन्होंने कनान में एकत्र किया था, वह सब अपने साथ ले गये। याकूब अपने सब वंशजों के साथ मिस्र देश पहुँचा।

7) वह अपने पुत्रों और पौत्रों, अपनी पुत्रियाँ और अपनी पौत्रियों, अपने सब वंशजों को मिस्र ले आया।

28) याकूब ने यूदा को अपने आगे भेज कर यूसुफ़ से निवेदन किया कि वह गोशेन में उस से मिलने आये।

29) जब वे गोशेन पहुँचे, तो यूसुफ़ आपना रथ माँगा कर अपने पिता इस्राएल से मिलने के लिए गोशेन गया। अपने पिता से मिल कर उसने उसे गले लगा लिया और उस से लिपट कर वह देर तक रोता रहा।

30) इस्राएल ने यूसुफ़ से कहा, ''अब तो मैं सुखपूर्वक मृत्यु की प्रतीक्षा करूँगा, क्योंकि मैं फिर तुम्हारे दर्शन कर सका और जान गया हूँ कि तुम जीवित हो।''

सुसमाचार : मत्ती 10:16-23

16) ’’देखो, मैं तुम्हें भेडि़यों के बीच भेड़ों क़ी तरह भेजता हूँ। इसलिए साँप की तरह चतुर और कपोत की तरह निष्कपट बनो।

17) ’’मनुष्यों से सावधान रहो। वे तुम्हें अदालतों के हवाले करदेंगे और अपने सभागृहों में तुम्हें कोडे़ लगायेंगे।

18) तुम मेरे कारण शासकों और राजाओं के सामने पेश किये जाओगे, जिससे मेरे विषय में तुम उन्हें और गै़र-यहूदियों को साक्ष्य दे सको।

19) ’’जब वे तुम्हें अदालत के हवाले कर रहे हों, तो यह चिन्ता नहीं करोगे कि हम कैसे बोलेंगे और क्या कहेंगे। समय आने पर तुम्हें बोलने को शब्द दिये जायेंगे,

20) क्योंकि बोलने वाले तुम नहीं हो, बल्कि पिता का आत्मा है, जो तुम्हारे द्वारा बोलता है।

21) भाई अपने भाई को मृत्यु के हवाले कर देगा और पिता अपने पुत्र को। संतान अपने माता पिता के विरुद्ध उठ खड़ी होगी और उन्हें मरवा डालेगी।

22) मेरे नाम के कारण सब लोग तुम से बैर करेंगे, किन्तु जो अन्त तक धीर बना रहेगा, उसे मुक्ति मिलेगी।

23) ’’यदि वे तुम्हें एक नगर से निकाल देते हैं, तो दूसरे नगर भाग जाओ। मैं तुम से कहता हूँ तुम इस्रालय के नगरों का चक्कर पूरा भी नहीं कर पाओगे कि मानव पुत्र आ जायेगा।

📚 मनन-चिंतन

कल के सुसमाचार में हमने मनन-चिंतन किया था कि जब प्रभु येसु के शिष्य सुसमाचार का प्रचार करने जायेंगे तो उन्हें किस तरह अपने जीवन के द्वारा साक्ष्य देना है. आज प्रभु येसु हमारे सामने सुसमाचार के लिए जो कर्मभूमि है उसकी डरावनी तस्वीर पेश करते हैं. सुसमाचार का प्रचार करना एक तो इसलिए कठिन है क्योंकि यह मुख से नहीं अपने जीवन और कार्यों से करना है, उससे भी कठिन वह परिस्थितियाँ हैं जिनमें हमें सुसमाचार का साक्ष्य देना है. प्रभु येसु चेतावनी देते हैं कि उनके सुसमाचार का प्रचार करने वाले लोग बहुत सी कठिनाइयों का सामना करेंगे, वे भेड़ों के समान भेडियों के बीच भेजे जा रहे हैं, लोग प्रभु येसु के नाम के कारण उनसे नफरत करेंगे, उन पर अत्याचार करेंगे, उन पर मुकदमा चलायेंगे, उन्हें शासकों के समक्ष पेश किया जायेगा. ये सारी परिस्थितियाँ सुसमाचार के सन्देश के महत्त्व की ओर इशारा करती हैं. अगर यह कोई साधारण सन्देश या मनुष्य के दिमाग की उपज होता तो कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन यह तो हृदयों को विचलित करने वाले शाश्वत सत्य ईश्वर के जीवन्त वचन हैं.

जिन परिस्थितियों का प्रभु येसु ने उल्लेख किया है, कुछ ऐसी ही परिस्थतियों का हम आज भी सामना करते हैं. हमको फादर स्टेन स्वामी याद हैं, किस तरह से उन्होंने जेल में यातनाएं सहीं थी. हमें कंधमाल में मरने वाले विश्वासियों की याद है, किस तरह से वे सुसमाचार और ख्रीस्तीय विश्वास के लिए हँसते-हँसते शहीद हो गये. अगर हम किसी गरीब के जीवन में खुशियाँ लाने की कोशिश करें या मानवता की सेवा करें, दूसरे शब्दों में कहें तो, यदि हम प्रभु येसु की शिक्षाओं पर चलें तो बिना किसी सबूत के बेवजह हम पर धर्मं-परिवर्तन के झूठे आरोप लगा दिये जाते हैं, हमारा पुण्य कार्य रोक दिया जाता है. लेकिन ईश्वर का कार्य कभी नहीं रुकेगा. अगर ईश्वर हमारे साथ है तो कोई भी मानवीय ताकत ईश्वर के कार्य को रोक सकती. आमेन.

फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर)

📚 REFLECTION


Yesterday we reflected about how the disciples of Jesus were to proclaim the Good News of the Kingdom. Today Jesus presents a scary picture of the soil on which the seeds of Gospel are to sprout. Proclaiming the Gospel is difficult because we have to proclaim it not just with our words but more than that with our life. What makes it more challenging is the situation and environment in which this Good News is to be proclaimed. Jesus warns about the imminent hurdles and challenges to those who accept his call to proclaim his message. They are sent lambs amidst the wolves, they will be hated because of Jesus, they will be persecuted, falsely accused and even their own people will disown them. These all challenges and trials indicate the importance of the message of the Gospel. If this Good News was ordinary message or product of human mind, it would go unnoticed, but these are words of eternal life that stir the hearts of many, they disturb the conscience of many, therefore they are opposed.

We live in a world with similar situations today. We recall Fr. Stan Swami, how he endured the unjust imprisonment for serving God among the under privileged ones. We remember the faithful believers in Kandhmal, how happily and courageously they offered their lives for the sake of faith and God News. Whenever we try to serve the poor, try to bring happiness in the lives of the needy, or in other words, whenever we try to live the message of Christ sincerely and wholeheartedly, we accused unjustly and baselessly of religious conversions, our good work is hindered. But the work of God cannot be stopped. If it is God’s work and if God is with us, no human force can stop this work. Amen.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!