वर्ष -1, पन्द्रहवाँ सामान्य सप्ताह, मंगलवार

पहला पाठ :निर्गमन 2:1-15a

1) लेवी वंश के एक व्यक्ति ने एक लेवी वंशी कन्या से विवाह किया।

2) उसकी पत्नी गर्भवती हुई और उसको एक पुत्र उत्पन्ना हुआ। माता ने यह देख कर कि बच्चा सुन्दर है, उसे तीन महीनों तक छिपाये रखा।

3) जब वह उसे और अधिक समय तक छिपा कर नहीं रख सकी, तो उसने बेंत की एक टोकरी ले ली और उस पर चिकनी मिट्टी और डामर का लेप लगाया। उसने उस में बालक को रख कर उसे नील नदी के तट के सरकण्डों के बीच छोड़ दिया।

4) बालक की बहन कुछ दूरी पर यह देखने के लिए खड़ी रहा करती कि उस पर क्या बीतेगी।

5) फिराउन की पुत्री नील नदी में स्नान करने आयी। इस बीच उसकी सखियाँ नदी किनारे घूमती रहीं। उसने सरकण्डों के बीच उस टोकरी को देखा और अपनी दासी को उसे ले आने को भेजा।

6) उसने उसे खोल कर देखा कि उस में एक रोता हुआ बालक पड़ा है। उसे तरस आया और उसने कहा, यह इब्रानियों का कोई बालक होगा।

7) बालक की बहन ने फिराउन की पुत्री के पास आ कर पूछा, क्या मैं इब्रानी स्त्रियों में से किसी दाई को बुला लाऊँ, जो आपके लिए इस बालक को दूध पिलाया करे?

8) फिराउन की पुत्री ने उत्तर दिया, हाँ, यही करो। लड़की बालक की माता को बुला लायी।

9) फिराउन की पुत्री ने उस से कहा, इस बालक को ले जा कर मेरे लिए दूध पिलाओ। मैं तुम को वेतन दिया करूँगी। वह स्त्री बालक को ले गयी और उसने उसे दूध पिलाया।

10) जब बालक बड़ा हो गया, तो वह उसे फिराउन की पुत्री के पास ले गयी। इसने उसे गोद लिया और यह कहते हुए उसका नाम मूसा रखा कि ''मैंने इसे पानी में से निकाला।''

11) जब मूसा सयाना हो गया, तो वह किसी दिन अपने जाति-भाइयों से मिलने निकला। उसने उन्हें बेगार करते देखा और यह भी देखा कि एक मिस्री उसके एक इब्रानी भाई को पीट रहा है।

12) मूसा ने इधर-उधर दृष्टि दौड़ायी और जब उसे पता चला कि वहाँ कोई दूसरा व्यक्ति नहीं हैं, तो उसने मिस्री को मार कर बालू में छिपा दिया।

13) वह दूसरे दिन फिर निकला और उसने दो इब्रानियों को लड़तें देखा। उसने अन्याय करने वाले से कहा, ''तुम अपने भाई को क्यों पीटते हो?''

14) उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ''किसने तुम को हमारा शासक और न्यायकर्ता नियुक्त किया है? क्या तुम मुझ को भी मार डालना चाहते हो, जैसे कि तुमने उस मिस्री को मारा?'' मूसा यह सोच कर डर गया कि यह बात फैल गयी है।

15) फिराउन को भी इसका पता चला और उसने मूसा को मार डालना चाहा। मूसा फिराउन के अधिकार क्षेत्र से भाग निकला और मिदयान देश में बसने गया और वहाँ एक कुएँ के पास बैठ कर विश्राम करने लगा।

सुसमाचार : मत्ती 11:20-24

20) तब ईसा उन नगरों को धिक्कारने लगे, जिन्होंने उनके अधिकांश चमत्कार देख कर भी पश्चाताप नहीं किया था,

21) ’’धिक्कार तुझे, खोंराजि़न! धिक्कार तुझे, बेथसाइदा! जो चमत्कार तुम में किये गये हैं, यदि वे तीरूस और सिदोन में किये गये होते, तो उन्होंने न जाने कब से टाट ओढ़ कर और भस्म रमा कर पश्चाताप किया होता।

22) इसलिए मैं तुम से कहता हूँ, न्याय के दिन तेरी दशा की अपेक्षा तीरूस और सिदोन की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।

23) ’’और तू, कफ़रनाहूम! क्या तू स्वर्ग तक ऊँचा उठाया जायेगा? नहीं! तू अधोलोक तक नीचे गिरा दिया जायेगा; क्योंकि जो चमत्कार तुझ में किये गये हैं, यदि वे सोदोम में किये गये होते, तो वह आज तक बना रहता।

24) इसलिए मैं तुझ से कहता हूँ, न्याय के दिन तेरी दशा की अपेक्षा सोदोम की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।’’

📚 मनन-चिंतन

ईश्वर के आह्वान के प्रति उदासीन बने रहने से बड़ा कोई अपराध नहीं है. अगर ईश्वर हमें प्यार करते हैं तो बदले में हमें भी प्यार करना है, अगर ईश्वर हमसे मेल मिलाप करने के लिए कदम बढ़ाते हैं तो हमें भी अपने पापों को त्यागकर ईश्वर की कदम बढ़ाने हैं. आज के सुसमाचार में हम ऐसे नगरों को देखते हैं जो ईश्वर के प्रति न केवल उदासीन बने रहे बल्कि अपने पापों को भी नहीं त्यागा. ईश्वर ने उनके बीच खूब चिन्ह और चमत्कार दिखाए, जिसे देखकर उन्हें अपने पापों का अहसास होना था, ईश्वर की प्रभुता का अहसास होना था, लेकिन वे अपने पापों में ही मगन रहे. ऐसा कौन इन्सान या नगर है जिसे अपने पापों का हिसाब नहीं देना होगा? सभी पापी हैं, और ईश्वर हमें मौके पे मौका देते हैं कि हम अपने पापों के लिए पश्चाताप करें और दण्ड से बच जाएँ, जो इस पर ध्यान देते हैं वो बच भी जाते हैं.

ईश शास्त्र के अनुसार विश्वास की परिभाषा है - ईश्वर के कार्यों के प्रति हमारा प्रत्युत्तर. ईश्वर विभिन्न रूप में हमारे जीवन में चिन्ह और चमत्कार दिखाता है, और हम उन चिन्हों और चमत्कारों के प्रति क्या नजरिया रखते वही हमारे विश्वास का मापदण्ड है. कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जिसके जीवन में ईश्वर अपनी उपस्थिति का आभास नहीं कराते. बहुत से लोग ईश्वर की उस उपस्थिति का अहसास कर अपने जीवन को बदल लेते हैं, और बहुत से लोग ईश्वर की उस उपस्थिति के प्रति अपना ह्रदय बन्द कर लेते हैं और पाप के रास्ते पर चलते रहते हैं. प्रभु येसु के द्वारा उन नगरों के लिए कहे गये धिक्कार भरे ये शब्द कहीं मेरे जीवन में भी लागू नहीं होते? आमेन.

फादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर)

📚 REFLECTION


There is no greater spiritual offence than to remain neutral or lukewarm to the intervention of God. If God loves us, then we also must love Him in return, If He takes a one step towards us to reconcile us to Himself, then we need to take more steps towards Him, leaving our sins behind and coming back to Him. In the gospel today we seen some cities which not only remained unresponsive to God’s call for repentance but also did not give up their sinful ways. God intervened in their lives by various mighty deeds, which were supposed to arouse them to repentance, supposed to arouse the fear of the Lord, but they happily remained in their sins. Who is there in this world who is not accountable for their sins before God? All have sinned and God time and again God gives us opportunity to repent for our sins and thus save ourselves from the wrath of the judgement day, and those who pay heed to this, save their souls.

According to theology, the faith is defined as our response towards God’s intervention in and around our lives. God intervenes in our lives through various events and persons, He shows signs and miracles and our response to those interventions of God decides our depth of faith. There is no one in this world in whose life God doesn’t show His presence. Many people respond positively to that divine presence and change their lives, and there are many who turn a deaf ear to the divine inspiration, they shut their hearts and continue to tread on the path of sin. Do the condemning words uttered by Jesus for the unrepentant cities, apply to my life as well? Let us ask ourselves. Amen.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior)


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Praise the Lord!