वर्ष -1, उन्नीसवाँ सामान्य सप्ताह, शुक्रवार

पहला पाठ : योशुआ का ग्रन्थ 24:1-13

1) योशुआ ने सिखेम में सब इस्राएली वंशों को इकट्टा कर लिया। इसके बाद उसने इस्राएल के वयोवृद्ध नेताओ, न्यायकर्ताओं और शास्त्रियों को बुला भेजा और वे सब ईश्वर के सामने उपस्थित हो गये।

2) तब योशुआ ने समस्त लोगों से कहा, इस्राएल का प्रभु ईश्वर यह कहता है प्राचीन काल में तुम लोगों के पूर्वज, इब्राहीम और नाहोर का पिता तेरह, फरात नदी के उस पार निवास करते थे। वे अन्य देवताओं की उपासना करते थे।

3) मैंने तुम्हारे पिता इब्राहीम को नदी के उस पार से बुलाया और सारा कनान देश घुमाया। मैंने उसके वंशजों की संख्या बढ़ायी मैंने उसे इसहाक को दिया

4) और इसहाक को मैंने याकूब और एसाव को प्रदान किया। मैंने एसाव को सेईर का पहाड़ी देश दे दिया, किन्तु याकूब और उसके पुत्र मिस्र चले गये।

5) मैंने मूसा और हारून को भेजा और चमत्कार दिखा कर मिस्रियों को पीड़ित किया। इसके बाद मैं तुम लोगों को निकाल लाया।

6) मैं तुम्हारे पूर्वजों को मिस्र से निकाल लाया और तुम लाल समुद्र तक पहुँचे। तब मिस्रियों ने रथों और घोड़ों पर सवार हो कर समुद्र तक तुम्हारे पूर्वजों का पीछा किया।

7) जब तुम्हारे पूर्वजों ने प्रभु की दुहाई दी, तो उसने तुम्हारे और मिस्रियों के बीच एक घना कुहरा फैला दिया और मिस्रियों पर समुद्र बहा दिया, जिससे वे डूब गये। तुमने अपनी ही आँखों से देखा कि मैंने मिस्र में तुम्हारे लिए क्या-क्या किया। इसके बाद तुम लोग बहुत समय तक मरुभूमि में निवास करते रहे।

8) तब मैं तुम को यर्दन के उस पार रहने वाले अमोरियों के देश ले गया। उन्होंने तुम पर आक्रमण किया और मैंने उन्हें तुम लोगों के हवाले कर दिया। तुमने उनका देश अपने अधिकार में कर लिया और मैंने तुम्हारे लिए उनका विनाश किया।

9) तब मोआब का राजा, सिप्पोर का पुत्र बालाक, इस्राएल के विरुद्ध युद्ध की तैयारी करने लगा। उसने तुम्हें अभिशाप देने के लिए बओर के पुत्र बिलआम को बुला भेजा।

10) किन्तु मैंने बिलआम की बात नहीं मानी और उसे तुम लोगों को आशीर्वाद देना पड़ा। इस प्रकार मैंने तुम को बालाक के हाथ से बचाया।

11) इसके बाद तुम लोग यर्दन पार कर येरीखो आये। येरीखो के नागरिकों अमोरियों, परिज्ज़ियों, कनानियों, हित्तियों, गिरगाषियों, हिव्वियों और यबूसियों ने तुम्हारा सामना किया, किन्तु मैंने उन्हें तुम लोगों के हवाले कर दिया।

12) मैंने तुम लोगों के आगे आतंक फैला दिया और इस कारण - तुम्हारी तलवार और तुम्हारे धनुष के कारण नहीं - अमोरियों के दोनों राजा तुम्हारे सामने से भाग गये।

13) मैंने तुम्हें एक ऐसा देश दे दिया, जिसके लिए तुमने परिश्रम नहीं किया, निवास के लिए ऐसे नगर दे दिये, जिन्हें तुमने नहीं बनाया और जीवन निर्वाह के लिए ऐसी दाखबारियों और जैतून के पेड़, जिन्हें तुमने नहीं लगाया।

सुसमाचार : सन्त मत्ती 19:3-12

3 फ़रीसी ईसा के पास आये और उनकी परीक्षा लेते हुए यह प्रश्न किया, ’’क्या किसी भी कारण से अपनी पत्नी का परित्याग करना उचित है?

4) ईसा ने उत्तर दिया, ’’क्या तुम लोगों ने यह नहीं पढ़ा कि सृष्टिकर्ता ने प्रारंभ से ही उन्हें नर-नारी बनाया।

5) और कहा कि इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोडे़गा और अपनी पत्नी के साथ रहेगा, और वे दोनों एक शरीर हो जायेंगे?

6) इस तरह अब वे दो नहीं, बल्कि एक शरीर है। इसलिए जिसे ईश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग नहीं करे।’’

7) उन्होंने ईसा से कहा, ’’तब मूसा ने पत्नी का परित्याग करते समय त्यागपत्र देने का आदेश क्यों दिया?

8) ईसा ने उत्तर दिया, ’’मूसा ने तुम्हारे हृदय की कठोरता के कारण ही तुम्हें पत्नी का परित्याग करने की अनुमति दी, किन्तु प्रारम्भ से ऐसा नहीं था।

9) मैं तुम लोगों से कहता हूँ कि व्यभिचार के सिवा किसी अन्य कारण से जो अपनी पत्नी का परित्याग करता और किसी दूसरी स्त्री से विवाह करता है, वह भी व्यभिचार करता है।’’

10) शिष्यों ने ईसा से कहा, ’’यदि पति और पत्नी का सम्बन्ध ऐसा है, तो विवाह नहीं करना अच्छा ही है’’।

11) ईसा ने उन से कहा ’’सब यह बात नहीं समझते, केवल वे ही समझते हैं जिन्हें यह वरदान मिला है;

12) क्योंकि कुछ लोग माता के गर्भ से नपुंसक उत्पन्न हुए हैं, कुछ लोगों को मनुष्यों ने नपुंसक बना दिया है और कुछ लोगों ने स्वर्गराज्य के निमित्त अपने को नपुंसक बना लिया है। जो समझ सकता है, वह समझ ले।’’

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार में मत्ती हमें विवाह और ब्रह्मचर्य पर येसु की शिक्षा देते हैं। यद्यपि यहूदी परंपरा के अनुसार विधिविवरण की पुस्तक में तलाक की अनुमति दी गई है, पर प्रभु येसु ने उत्पत्ति की पुस्तक में ईश्वर द्वारा विवाह के सम्बन्ध में व्यक्त किए गए उनके मूल इरादे को वापस संदर्भित किया, जिसके अनुसार विवाह में पुरुष और महिला के बीच का मिलन स्थायी होना था। हम सभी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि शादियां टूट जाती हैं। हमारे अपने परिवारों से भी ऐसे किस्से सुनने को हमें मिलते हैं। फिर भी अगर कलीसिया को येसु की शिक्षा के प्रति वफादार रहना है तो उसे - एक पुरुष और एक महिला द्वारा विवाह में एक दूसरे को पूरी तरह से प्रेम के बंधन में बढ़कर आजीवन वफादार रहने वाले ईश्वर के दृष्टिकोण को बढ़ावा देना चाहिए।

येसु उन्हें, जिन्हें यह वरदान दिया गया है कि वे एक ब्रह्मचर्य जीवन जिये उनके लिए ब्रह्मचर्य के मूल्य को भी स्वीकार करते हैं। येसु ने घोषणा की कि यह, ईश्वर के राज्य की दृष्टि से दिया गया एक बड़ा मूल्य है। ऐसे लोगों को ईश्वर के राज्य के लिए जीना है, ईश्वर के राज्य के आने और ईश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए आगे बढ़ाना है। चाहे विवाहित हों या अविवाहित, हम सभी को हमारे संसार और हमारे जीवन के लिए ईश्वर के उद्देश्य की सेवा में एक साथ काम करने के लिए बुलाया गया है, जैसा कि प्रभु येसु के द्वारा हमें बताया गया है।

फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांत

📚 REFLECTION


In today's Gospel reading Matthew gives us Jesus’ teaching on marriage and celibacy. Even though within the Jewish tradition the Book of Deuteronomy allowed for divorce, Jesus refers back to the original intention of the Creator as expressed in the Book of Genesis, according to which the union between man and woman in marriage was to be enduring. We are all only too well aware that marriages break down. Many of us will know that from our own families. Yet if the church is to be faithful to the teaching of Jesus it must keep promoting God’s vision for marriage as the giving of a man and a woman to each other for life.

Jesus also acknowledges the value of celibacy, for those to whom it has been granted, for those who have the graced capacity for celibacy from God. Jesus declares that it is a value given with a view to a greater value, God’s kingdom. It is to be lived for the sake of that kingdom, to further the coming of God’s kingdom and the doing of God’s will. Whether married or single we are all called to work together in the service of God’s purpose for our world and our lives, as revealed to us by Jesus.

-Fr. Preetam Vasuniya


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