वर्ष -1, बीसवाँ सामान्य सप्ताह, सोमवार

पहला पाठ : न्यायकर्ताओं 2:11-19

11) तब इस्राएलियों ने वही किया, जो प्रभु की दृष्टि में बुरा है और वे बाल-देवताओं की पूजा करने लगे।

12) उन्होंने प्रभु को, अपने पूर्वजों के ईश्वर को, जो उन्हें मिस्र से निकाल लाया था, त्याग दिया। वे अपने आसपास रहने वाले लोगों के देवताओं के अनुयायी बन कर उनकी पूजा करने लगे। उन्होंने प्रभु को अप्रसन्न कर दिया।

13) वे प्रभु को त्याग कर बाल और अष्तारता-देवियों की पूजा करने लगे।

14) तब प्रभु का कोप इस्राएलियों के विरुद्ध भड़क उठा। उसने उन्हें छापामारों के हवाले कर दिया, जो उन्हें लूटने लगे। उसने उन्हें उनके षत्रुओं के हाथ बेच दिया और वे उनका सामना करने में असमर्थ रहे।

15) जब वे युद्ध करने निकलते, तो पराजित हो जाते थे; क्योंकि प्रभु उनके विरुद्ध था, जैसी कि उसने षपथ खा कर उन्हें चेतावनी दी थी।

16) जब इस्राएलियों की दुर्गति बहुत अधिक बढ़ जाती थी, तो प्रभु न्यायकर्ताओं को नियुक्त किया करता था, जो उन्हें लूटने वालों के हाथ से बचाया करते थे।

17) किन्तु वे न्यायकर्ताओं की बात नहीं मानते और पथभ्रष्ट हो कर पराये देवताओं की पूजा और उपासना करते थे। वे प्रभु की आज्ञा पर चलने वाले अपने पूर्वजों का मार्ग षीघ्र ही छोड़ देते थे। वे अपने पूर्वजों का अनुकरण नहीं करते थे।

18) जब प्रभु उनके लिए कोई न्यायकर्ता नियुक्त करता था, तो प्रभु उसका साथ देता और जब तक न्यायकर्ता जीता रहता था, तब तक प्रभु इस्राएलियों को उनके षत्रुओं के हाथ से बचाया करता था; क्योंकि जब वे अपने अत्याचारियों के दुव्र्यवहार से पीड़ित हो कर कराहते थे, तो प्रभु को उन पर तरस आता था।

19) परन्तु जब वह न्यायकर्ता मर जाता था, तो वे षीघ्र ही अपने पूर्वजों से भी अधिक घोर पाप करते थे। वे पराये देवताओं के अनुयायी बन कर उनकी पूजा और उपासना करते थे। उन्होंने अपनी पुरानी आदतें और हठीला व्यवहार कभी नहीं छोड़ा।

सुसमाचार : सन्त मत्ती 19:16-22

16) एक व्यक्ति ईसा के पास आ कर बोला, ’’गुरुवर! अनन्त जीवन प्राप्त करने के लिए मैं कौन-सा भला कार्य करूँ?’’

17) ईसा ने उत्तर दिया, ’’भले के विषय में मुझ से क्यों पूछते हो? एक ही तो भला है। यदि तुम जीवन में प्रवेश करना चाहते हो, तो आज्ञाओं का पालन करो।’’

18) उसने पूछा, ’’कौन-सी आज्ञाएं?’’ ईसा ने कहा, ’’हत्या मत करो; व्यभिचार मत करो; चोरी मत करो; झूठी गवाही मत दो;

19) अपने माता पिता का आदर करो; और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो’’।

20) नवयुवक ने उन से कहा, ’’मैने इन सब का पालन किया है। मुझ में किस बात की कमी है?’’

21) ईसा ने उसे उत्तर दिया, ’’यदि तुम पूर्ण होना चाहते हो, तो जाओ, अपनी सारी सम्पत्ति बेच कर गरीबों को दे दो और स्वर्ग में तुम्हारे लिए पूँजी रखी रहेगी, तब आकर मेरा अनुसरण करो।’’

22) यह सुन कर वह नव-युवक बहुत उदास हो कर चला गया, क्योंकि वह बहुत धनी था।

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार वर्णित युवक स्पष्ट रूप से एक बहुत ही नेक इरादे वाला व्यक्ति है। वह उन आज्ञाओं के प्रति वफादार रहा है जिन्हें येसु उद्धृत करते हैं। फिर भी, वह महसूस करता है कि उसे किसी और चीज़ के लिए बुलाया जा रहा है, और, इसलिए वह अपने प्रश्न के साथ येसु की जाँच करता है, 'मुझे और क्या करने की आवश्यकता है?' जब व्यक्तिगत बुलाहट की बात आती है जिसके बारे में येसु ने उसे बताया, तो वह इसका उत्तर नहीं दे सका। इस युवक को, येसु का अनुसरण करने के आह्वान के लिए अपने महान धन को छोड़ने की आवश्यकता थी। यीशु उससे कह रहे थे कि वह अपनी बड़ी दौलत के बजाय ईश्वर पर भरोसा रखे। वह ऐसा करने के लिए खुद को राजी नहीं कर सका, और इसलिए, वह उदास होकर चला गया।

यीशु हम में से प्रत्येक को एक व्यक्तिगत बुलाहट प्रदान करते हैं। यह बुलाहट हम में से प्रत्येक के लिए एक अलग रूप लेगी और हम में से प्रत्येक के लिए अलग-अलग निहितार्थ होंगे। हालाँकि,येसु की बुलाहट हमारे लिए जो भी रूप लेती है, उसमें हमेशा ईश्वर में हमारी सुरक्षा को खोजने के लिए एक आह्वान शामिल होगा। हमारा परम खजाना हमें स्वर्ग में मिलना है, धरती पर नहीं। जैसा कि येसु अन्यत्र कहते हैं, हमें ईश्वर को अपने पूरे दिल, दिमाग, आत्मा और शक्ति से प्यार करना है। और सबसे पहले ईश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज करना है, तभी हमें बाकी सब चीज़ें यूँ ही मिल जाएगी।

फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांत

📚 REFLECTION


There is something appealing about the young man in today’s Gospel reading. He was an earnest young man who was serious about finding the path that led to eternal life. His question is a serious question, ‘What good deed must I do to possess eternal life?’ In his reply Jesus named a number of commandments, all of which have to do with how we are to relate to other people. Jesus indicates that the way to life for ourselves entails relating in a life-giving way to others. This young man was not satisfied with Jesus’ answer because he felt he was already doing what Jesus was asking for, and, yet, he knew there was more he could be doing.

When Jesus revealed what this ‘more’ would involve for this particular young man, it again had to do with his relationship to others, in particular the poor, the needy; Jesus called on him to sell what he had and give the money to the poor. This was a step too far for him. Jesus did not make this particular demand of everybody he encountered. Yet, for all of us, the path to life, the path of life, will always be the path of love, of loving relationships with others. By his teaching, by his life and his death, Jesus shows us what relating in a loving way to others looks like.

-Fr. Preetam Vasuniya


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Praise the Lord!