वर्ष -1, इक्कीसवाँ सामान्य सप्ताह, शनिवार

पहला पाठ : 1 थेसलनीकियों 4:9-11

9) भ्रातृप्रेम के विषय में आप लोगों को लिखने की कोई आवश्यकता नहीं; क्योंकि आप लोग ईश्वर से ही एक दूसरे को प्यार करना सीख चुके हैं

10) और सारी मकेदूनिया के भाइयों के प्रति इस भ्रातृप्रेम का निर्वाह करते हैं। भाइयो! मेरा अनुरोध है कि आप इस विषय में और भी उन्नति करें।

11) आप इस बात पर गर्व करें कि आप शान्ति में जीवन बिताते हैं और हर एक अपने-अपने काम में लगा रहता है। आप लोग मेरे आदेश के अनुसार अपने हाथों से काम करें।

सुसमाचार : सन्त मत्ती 25:14-30

14) ’’स्वर्ग का राज्य उस मनुष्य के सदृश है, जिसने विदेश जाते समय अपने सेवकों को बुलाया और उन्हें अपनी सम्पत्ति सौंप दी।

15) उसने प्रत्येक की योग्यता का ध्यान रख कर एक सेवक को पाँच हज़ार, दूसरे को दो हज़ार और तीसरे को एक हज़ार अशर्फियाँ दीं। इसके बाद वह विदेश चला गया।

16) जिसे पाँच हज़ार अशर्फि़यां मिली थीं, उसने तुरन्त जा कर उनके साथ लेन-देन किया तथा और पाँच हज़ार अशर्फियाँ कमा लीं।

17) इसी तरह जिसे दो हजार अशर्फि़याँ मिली थी, उसने और दो हज़ार कमा ली।

18) लेकिन जिसे एक हज़ार अशर्फि़याँ मिली थी, वह गया और उसने भूमि खोद कर अपने स्वामी का धन छिपा दिया।

19) ’’बहुत समय बाद उन सेवकों के स्वामी ने लौट कर उन से लेखा लिया।

20) जिसे पाँच हजार असर्फियाँ मिली थीं, उसने और पाँच हजार ला कर कहा, ’स्वामी! आपने मुझे पाँच हजार असर्फियाँ सौंपी थीं। देखिए, मैंने और पाँच हजार कमायीं।’

21) उसके स्वामी ने उस से कहा, ’शाबाश, भले और ईमानदार सेवक! तुम थोड़े में ईमानदार रहे, मैं तुम्हें बहुत पर नियुक्त करूँगा। अपने स्वामी के आनन्द के सहभागी बनो।’

22) इसके बाद वह आया, जिसे दो हजार अशर्फि़याँ मिली थीं। उसने कहा, ’स्वामी! आपने मुझे दो हज़ार अशर्फि़याँ सौंपी थीं। देखिए, मैंने और दो हज़ार कमायीं।’

23) उसके स्वामी ने उस से कहा, ’शाबाश, भले और ईमानदार सेवक! तुम थोड़े में ईमानदार रहे, मैं तुम्हें बहुत पर नियुक्त करूँगा। अपने स्वामी के आन्नद के सहभागी बनो।’

24) अन्त में वह आया, जिसे एक हज़ार अशर्फियाँ मिली थीं, उसने कहा, ’स्वामी! मुझे मालूम था कि आप कठोर हैं। आपने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनते हैं और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरते हैं।

25) इसलिए मैं डर गया और मैंने जा कर अपना धन भूमि में छिपा दिया। देखिए, यह आपका है, इस लौटाता हूँ।’

26) स्वामी ने उसे उत्तर दिया, ’दुष्ट! तुझे मालूम था कि मैंने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनता हूँ और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरता हूँ,

27) तो तुझे मेरा धन महाजनों के यहाँ जमा करना चाहिए था। तब मैं लौटने पर उसे सूद के साथ वसूल कर लेता।

28) इसलिए ये हज़ार अशर्फियाँ इस से ले लो और जिसके पास दस हज़ार हैं, उसी को दे दो;

29) क्योंकि जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा और उसके पास बहुत हो जायेगा; लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।

30) और इस निकम्मे सेवक को बाहर, अन्धकार में फेंक दो। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।

📚 मनन-चिंतन

जब येसु कोई दृष्टांत बताते हैं जिसमें तीन पात्र होते हैं, तो वे अक्सर तीसरे और अंतिम पात्र पर जोर देते हैं, जैसे कि भले समारी के दृष्टांत में समारी पर बल दिया जाता है। आज के सुसमाचार के दृष्टांत में, हमारा ध्यान फिर से तीसरे चरित्र की ओर खिंचा जाता है। तीसरा नौकर जिसने अपने स्वामी द्वारा दी गई राशि को लिया और उसे जमीन में छिपा दिया। ऐसा करने के पीछे उसका तर्क यह था कि वह अपने मालिक को अत्यधिक कठोर व मांग वाला व्यक्ति मानता था और जो कुछ उसे दिया गया था, उसके साथ कोई भी जोखिम लेने से डरता था। उसे जो दिया गया था उसे खोने का जोखिम उठाने के बजाय, उसने इसे छुपाया ताकि इसे वह सकुशल लौटा सके। अन्य दो सेवकों का अपने स्वामी के बारे में स्पष्ट रूप से एक अलग ही दृष्टिकोण था; उन्हें जो कुछ दिया गया था उसे निवेश करने की स्वतंत्रता थी। ऐसा लगता है कि वे अपने मालिक को समझ गए थे कि वे उन्हें कोशिश करने और असफल होने के लिए दोष नहीं देंगे। वह राशि स्वामी ने उन्हें उपहार स्वरुप दी थी; उसने कभी इसे वापस पाने का इरादा नहीं किया; वह बस इतना चाहता था कि जो कुछ उसने उन्हें दिया था, उसका वे सदुपयोग करें।

हम सभी को ईश्वर द्वारा अलग-अलग उपहार और अनुग्रह दिया गया है। परमेश्वर चाहता है कि जो कुछ हमें दिया गया है उसमें से हम एक दूसरे की सेवा के लिए उसका सदुपयोग करे। डर और शंका कभी-कभी हमें पीछे हटने को मज़बूर कर सकती है जैसा तीसरे सेवक ने किया। कलकत्ता की मदर टेरेसा ने कहा था कि ईश्वर हमें सफल होने के लिए नहीं, बल्कि वफादार बनने के लिए बुलाता है। आइये हम ईश्वर ने हमें जो कुछ दिया है उसके प्रति ईमानदार और वफादार बने रहें।

फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांत

📚 REFLECTION


When Jesus speaks a parable in which there are several characters, the emphasis often falls on the third and final character to be mentioned, such as the Samaritan in the parable of the good Samaritan and the elder son in the parable of the prodigal son. In the parable of this morning’s gospel reading, the focus again falls on the third character, the servant who took the one talent his master had given him and simply hid it in the ground. His reason for doing this was that he considered his master an overly demanding person and was afraid to take any risk with what he had been given. Rather than risk losing what he had been given, he hid it so as to be able to give it back. The other two servants obviously had a different view of their master; they had the freedom to invest what they had been given. They seemed to have understood that their master would not blame them for trying and failing. The master had given them a gift; he never intended to look for it back; he simply wanted them to make good use of what he had given them.

We have all been gifted and graced in different ways by God. God wants us to serve one another out of what we have been given. Fear can sometimes hold us back, as it held back the third servant, fear of God, fear of others, fear of failure. It was Mother Teresa of Calcutta who said that God does not ask to be successful, just to be faithful. Jesus is suggesting through this parable that if we have enough trust in the God who loves us unconditionally we will have the freedom to give from what we have received, without worrying too much about success or failure.

-Fr. Preetam Vasuniya


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Praise the Lord!