वर्ष -1, बाईसवाँ सामान्य सप्ताह, सोमवार

पहला पाठ : 1 थेसलनीकियों 4:13-18

13) भाइयो! हम चाहते हैं कि मृतकों के विषय में आप लोगों को निश्चित जानकारी हो। कहीं ऐसा न हो कि आप उन लोगों की तरह शोक मनायें, जिन्हें कोई आशा नहीं है।

14) हम तो विश्वास करते हैं कि ईसा मर गये और फिर जी उठे। जो ईसा में विश्वास करते हुए मरे, ईश्वर उन्हें उसी तरह ईसा के साथ पुनर्जीवित कर देगा।

15) हमें मसीह से जो शिक्षा मिली है, उसके आधार पर हम आप से यह कहते हैं- हम, जो प्रभु के आने तक जीवित रहेंगे, मृतकों से पहले महिमा में प्रवेश नहीं करेंगे,

16) क्योंकि जब आदेश दिया जायेगा और महादूत की वाणी तथा ईश्वर की तुरही सुनाई पड़ेगी, तो प्रभु स्वयं स्वर्ग से उतरेंगे। जो मसीह में विश्वास करते हुए मरे, वे पहले जी उठेंगे।

17) इसके बाद हम, जो उस समय तक जीवित रहेंगे, उनके साथ बादलों में आरोहित कर लिये जायेंगे और आकाश में प्रभु से मिलेंगे। इस प्रकार हम सदा प्रभु के साथ रहेंगे।

18) आप इन बातों की चर्चा करते हुए एक दूसरे को सान्त्वना दिया करें।

सुसमाचार : सन्त लूकस 4:16-30

16) ईसा नाज़रेत आये, जहाँ उनका पालन-पोषण हुआ था। विश्राम के दिन वह अपनी आदत के अनुसार सभागृह गये। वह पढ़ने के लिए उठ खड़े हुए

17) और उन्हें नबी इसायस की पुस्तक़ दी गयी। पुस्तक खोल कर ईसा ने वह स्थान निकाला, जहाँ लिखा हैः

18) प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिशेक किया है। उसने मुझे भेजा है, जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टिदान का सन्देश दूँ, दलितों को स्वतन्त्र करूँ

19) और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ।

20) ईसा ने पुस्तक बन्द कर दी और वह उसे सेवक को दे कर बैठ गये। सभागृह के सब लोगों की आँखें उन पर टिकी हुई थीं।

21) तब वह उन से कहने लगे, ’’धर्मग्रन्थ का यह कथन आज तुम लोगों के सामने पूरा हो गया है’’।

22) सब उनकी प्रशंसा करते रहे। वे उनके मनोहर शब्द सुन कर अचम्भे में पड़ जाते और कहते थे, ’’क्या यह युसूफ़ का बेटा नहीं है?’’

23) ईसा ने उन से कहा, ’’तुम लोग निश्चय ही मुझे यह कहावत सुना दोगे-वैद्य! अपना ही इलाज करो। कफ़रनाहूम में जो कुछ हुआ है, हमने उसके बारे में सुना है। वह सब अपनी मातृभूमि में भी कर दिखाइए।’’

24) फिर ईसा ने कहा, ’’मैं तुम से यह कहता हूँ-अपनी मातृभूमि में नबी का स्वागत नहीं होता।

25) मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि जब एलियस के दिनों में साढ़े तीन वर्षों तक पानी नहीं बरसा और सारे देश में घोर अकाल पड़ा था, तो उस समय इस्राएल में बहुत-सी विधवाएँ थीं।

26) फिर भी एलियस उन में किसी के पास नहीं भेजा गया-वह सिदोन के सरेप्ता की एक विधवा के पास ही भेजा गया था।

27) और नबी एलिसेयस के दिनों में इस्राएल में बहुत-से कोढ़ी थे। फिर भी उन में कोई नहीं, बल्कि सीरी नामन ही निरोग किया गया था।’’

28) यह सुन कर सभागृह के सब लोग बहुत क्रुद्ध हो गये।

29) वे उठ खड़े हुए और उन्होंने ईसा को नगर से बाहर निकाल दिया। उनका नगर जिस पहाड़ी पर बसा था, वे ईसा को उसकी चोटी तक ले गये, ताकि उन्हें नीचे गिरा दें,

30) परन्तु वे उनके बीच से निकल कर चले गये।

📚 मनन-चिंतन

नाज़रेथ के लोगों के मन में बहुत ही आश्चर्य होता है जब वे येसु को उनके सभागृह में बोलते हुए सुनते हैं। प्रारंभ में हमें बताया गया कि 'वे उनके मुख से निकले अनुग्रहपूर्ण शब्दों को सुनकर चकित थे'। हालाँकि, उपदेश समाप्त होने के बाद वे उन पर क्रोधित होकर उन्हें उस पहाड़ी से नीचे फेंकने के लिए शहर से बाहर निकाल दिया, जिस पर नासरत बसा था।

दरअसल येसु ने शुरू में घोषणा की कि वे सुसमाचार याने शुभसंदेश सुनाने आये हैं, खासकर गरीबों, टूटे और जरूरतमंदों के लिए। नासरत के लोग इस खुशखबरी से खुश थे, लेकिन जब तक येसु ने अपनी खुशखबरी बोलना पूरी की, तब तक उनके कानों में बुरी खबर आ चुकी थी। इसका कारण यह था कि येसु ने यह घोषणा की कि उनका सुसमाचार का मिशन केवल इस्राएल के लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि अन्यजातियों के लिए भी था, जैसे नबी एलिय्याह और एलीशा ने इस्राएल के बाहर के लोगों के बीच सेवकाई और नबूवत की थी।

येसु ने अपने नगरवासियों के ईश्वर के प्रति संकीर्ण, राष्ट्रवादी, दृष्टिकोण को चुनौती दी, और उन्हें यह पसंद नहीं आया। येसु हमेशा ईश्वर के बारे में हमारे दृष्टिकोण को चुनौती देते हैं। ईश्वर, हम जितना उन्हें सोचते हैं उससे कई गुना महान है। केवल येसु के वचनों और कार्यों पर लगातार चिंतन करने से ही हम ईश्वर की गहराई को जानना शुरू करेंगे। और उन्हें पूरी तरह से तो हम इस लोक के जीवन के बाद ही जान पाएंगे। आइये हम येसु के द्वारा ईश्वर के प्रेम की ऊंचाई, गहराई, और चौड़ाई को जानें।

फादर प्रीतम वसुनिया - इन्दौर धर्मप्रांत

📚 REFLECTION


There is a very striking change of mood among the people of Nazareth as they listen to Jesus speak in their synagogue. Initially we are told that ‘they were astonished by the gracious words that came from his lips’. However, by the time Jesus had finished speaking ‘everyone in the synagogue was enraged’, so much so that they hustled Jesus out of the town with a view to throwing him down from the brow of the hill Nazareth was built on. Jesus initially declared that he had come to proclaim good news, especially to the poor, the broken and needy. The people of Nazareth were delighted with this good news, but by the time Jesus had finished speaking his good news had become bad news in their ears. The reason for this was because Jesus went on to announce that his mission of good news was not just to the people of Israel but to the pagans as well, just as the prophets Elijah and Elisha ministered to people outside of Israel.

Jesus challenged his townspeople’s narrow, nationalistic, view of God, and they did not like it. Jesus always challenges our view of God. There is always more to God than we imagine; it is only by constantly reflecting on the words and deeds of Jesus that we even begin to know God. It is only in the next life that we will know God as fully as God now knows us.

-Fr. Preetam Vasuniya


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Praise the Lord!