वर्ष - 2, तीसरा सप्ताह, शुक्रवार

📒 पहला पाठ : 2 समुएल 11:1-10,13-17

1) वसन्त के समय, जब राजा लोग युद्ध के लिए प्रस्थान किया करते हैं, दाऊद ने अपने अंगरक्षकों और समस्त इस्राएली सेना के साथ योआब को भेजा। उन्होंने अम्मोनियों को तलवार के घाट-उतारा और रब्बा नामक नगर को घेर लिया। दाऊद येरूसालेम में रह गया।

2) दाऊद सन्घ्या समय अपनी शय्या से उठ कर महल की छत पर टहल ही रहा था कि उसने छत पर एक स्त्री को स्नान करते देखा। वह स्त्री अत्यन्त रूपवती थी।

3) दाऊद ने उस स्त्री के विषय में पूछताछ की और लोगों ने उस से कहा, "यह तो एलीआम की पुत्री और हित्ती ऊरीया की पत्नी बतशेबा है।"

4) तब दाऊद ने उस स्त्री को ले आने के लिए दूतों को भेजा। वह उसके पास आयी और दाऊद ने उसके साथ रमण किया। (वह अपनी अशुद्धता से मुक्त हो गयी थी।) इसके बाद वह अपने घर लौट गयी।

5) उस स्त्री को गर्भ रह गया और उसके दाऊद को कहला भेजा कि "मैं गर्भवती हूँ।"

6) तब दाऊद ने योआब को यह आदेश दिया, "हित्ती ऊरीया को मेरे पास भेज दो।

7) जब ऊरीया उसके पास आया, तो दाऊद ने उससे योआब, सेना और युद्ध का समाचार पूछा।

8) इसके बाद उसने ऊरीया से कहा, अपने घर जा कर स्नान करो।" ऊरीया महल से चला गया और राजा ने उसके पास उपहार भेजा।

9) किन्तु ऊरीया ने अपने स्वामी के सेवकों के पास महल के द्वारमण्डप में रात बितायी और वह अपने घर नहीं गया।

10) लोगों ने दाऊद से कहा कि ऊरीया अपने घर नहीं गया। इसलिए दाऊद ने अरीया से पूछा, "तुम तो दूर से लौटे हो, अब घर क्यों नहीं जाते?"

13) तब दाऊद से उसे अपने साथ खाने और पीने का निमन्त्रण दिया और इतना पिलाया कि वह मतवाला हो गया। किन्तु ऊरीया फिर अपने प्रभु के सेवकों के पास अपने पलंग पर सोया और वह अपने घर नहीं गया।

14) दूसरे दिन प्रातः दाऊद ने योआब के नाम पत्र लिखकर ऊरीया के हाथ भेजा।

15) उसने पत्र में यह लिखा, "जहाँ घमासान युद्ध हो रहा है, वहीं ऊरीया को सब से आगे रखना और तब उसके पीछे से हट जाना, जिससे वह मारा जाये और खेत रहे।"

16) इसलिए योआब ने नगर के घेराव में ऊरीया को एक ऐसे स्थान पर रखा, जिसके विषय में वह जानता था कि वहाँ शूरवीर योद्धा तैनात थे।

17) नगर के निवासी योआब पर आक्रमण करने निकले। सेना और दाऊद के अंगरक्षकों में से कुछ लोग मारे गये और हित्ती ऊरीया भी मारा गया।

📙 सुसमाचार : मारकुस 4:26-34

26) ईसा ने उन से कहा, "ईश्वर का राज्य उस मनुष्य के सदृश है, जो भूमि में बीज बोता है।

27) वह रात को सोने जाता और सुबह उठता है। बीज उगता है और बढ़ता जाता है हालाँकि उसे यह पता नहीं कि यह कैसे हो रहा है।

28) भूमि अपने आप फसल पैदा करती है- पहले अंकुर, फिर बाल और बाद में पूरा दाना।

29 फ़सल तैयार होते ही वह हँसिया चलाने लगता है, क्योंकि कटनी का समय आ गया है।"

30) ईसा ने कहा, "हम ईश्वर के राज्य की तुलना किस से करें? हम किस दृष्टान्त द्वारा उसका निरूपण करें?

31) वह राई के दाने के सदृश है। मिट्टी में बोये जाते समय वह दुनिया भर का सब से छोटा दाना है;

32) परन्तु बाद में बढ़ते-बढ़ते वह सब पौधों से बड़ा हो जाता है और उस में इतनी बड़ी-बड़ी डालियाँ निकल आती हैं कि आकाश के पंछी उसकी छाया में बसेरा कर सकते हैं।

33) वह इस प्रकार के बहुत-से दृष्टान्तों द्वारा लोगों को उनकी समझ के अनुसार सुसमाचार सुनाते थे।

34) वह बिना दृष्टान्त के लोगों से कुछ नहीं कहते थे, लेकिन एकान्त में अपने शिष्यों को सब बातें समझाते थे।

📚 मनन-चिंतन

ईश्वर के राज्य की शुरुआत छोटी है, लेकिन यह एक बड़े फलदायी उद्यम के रूप में विकसित होता है। सुसमाचार एक ऐसे व्यक्ति के बारे में बताता है, जिसने भूमि पर बीज बिखेर दिए और उसके बारे में चिंता किये बिना अपने दैनिक क्रियाकलापों में व्यस्त हो जाता है। उसके दिन चिंताजनक नहीं होते और न ही रातों की नींद से वह वंचित रहता। बीज अंकुरित होता है, बढ़ता है और उसके हस्तक्षेप के बिना अनाज पैदा करता है। सुसमाचार भी राई के बीज के बारे में हमें बताता है जिसकी लगाये जाते समय एक छोटी शुरुआत होती है, लेकिन बढ़ता है और आकाश के पक्षियों को आश्रय देने वाला एक बड़ा पेड़ बन जाता है। ईश्वर का राज्य मुख्य रूप से इश्वर का काम है। हम स्वर्गराज्य के साधन बने हैं। हमें बस इतना करना है कि ईश्वर की आत्मा के प्रति विनम्र रहें और प्रतिबद्धता के साथ अपनी सरल भूमिका निभाएं। ईश्वर वही करेंगे जो वे चाहते हैं। प्रभु कहते हैं, " जिस तरह पानी और बर्फ़ आकाश से उतर कर भूमि सींचे बिना, उसे उपजाऊ बनाये और हरियाली से ढके बिना वहाँ नहीं लौटते, जिससे भूमि बीज बोने वाले को बीज और खाने वाले को अनाज दे सके, उसी तरह मेरी वाणी मेरे मुख से निकल कर व्यर्थ ही मेरे पास नहीं लौटती। मैं जो चाहता था, वह उसे कर देती है और मेरा उद्देश्य पूरा करने के बाद ही वह मेरे पास लौट आती है।“ (इसायाह 55: 10-11)।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

The kingdom of God has small beginnings, but it grows into a large fruitful enterprise. The Gospel speaks about a man who scattered seed on the land and went about his daily activites without worrying about what would happen. He does not go through worrying days and sleepless nights. The seed sprouts, grows and produces grains without his intervention. The Gospel speaks also about the mustard seed which has a small beginning at the sowing, but grows and becomes a large tree giving shelter to the birds of the air. Kindgom of God is primarily God’s work. We are made instruments of the Kingdom. All that we need to do is to be docile to the Spirit of God and play our simple roles with commitment. God will accomplish what he intends. The Lord says, “For as the rain and the snow come down from heaven, and do not return there until they have watered the earth, making it bring forth and sprout, giving seed to the sower and bread to the eater, so shall my word be that goes out from my mouth; it shall not return to me empty, but it shall accomplish that which I purpose, and succeed in the thing for which I sent it.” (Is 55:10-11).

-Fr. Francis Scaria


Copyright © www.jayesu.com
Praise the Lord!