वर्ष - 2, तीसरा सप्ताह, शनिवार

📒 पहला पाठ: समुएल का दुसरा ग्रन्थ 12:1-7a,10-17

1) प्रभु ने नातान को दाऊद के पास भेजा। नातान ने उसके पास आकर कहा, ‘‘एक नगर में दो व्यक्ति रहते थे। एक धनी था और दूसरा दरिद्र।

2) धनी के पास बहुत-सी भेड़-बकरियाँ और गाय-बैल थे।

3) दरिद्र के पास केवल एक छोटी-सी भेड़ थी, जिसे उसने ख़रीदा था। वह उसका पालन-पोषण करता था। वह भेड़ उसके यहाँ उसके बच्चों के साथ बड़ी होती जा रही थी। वह उसकी रोटी खाती, उसके प्याले में पीती और उसकी गोद में सोती थी। वह उसके लिए बेटी के समान थी।

4) ‘‘किसी दिन धनी के यहाँ एक अतिथि पहुँचा। धनी ने अपने यहाँ आये हुए यात्री को खिलाने के लिए अपने पशुओं में से किसी को भी लेना नहीं चाहा, बल्कि उसने दरिद्र की भेड़ छीन ली और उसे पका कर अपने अतिथि के लिए भोजन का प्रबन्ध किया।’’

5) दाऊद का क्रोध उस मनुष्य पर भड़क उठा और उसने नातान से कहा, ‘‘जीवन्त प्रभु की शपथ! जिस व्यक्ति ने ऐसा किया, वह प्राणदण्ड के योग्य है।

6) वह भेड़ का चैगुना दाम चुकायेगा, क्योंकि उसने ऐसा निर्दय काम किया है।’’

7) नातान ने दाऊद से कहा, ‘‘आप ही वह धनी व्यक्ति हैं।

10) इसलिए अब से तलवार तुम्हारे घर से कभी दूर नहीं होगी; क्योंकि तुमने मेरा तिरस्कार किया और ऊरीया हित्ती की पत्नी को अपनी पत्नी बना लिया।

11) प्रभु यह कहता है: मैं तुम्हारे अपने घर से तुम्हारे लिए विपत्ति उत्पन्न करूँगा। मैं तुम्हारे देखते-देखते तुम्हारी पत्नियों को ले जा कर तुम्हारे पड़ोसी को दे दूँगा, जो खुले आम उनके साथ रमण करेगा।

12) तुमने गुप्त रूप से यह काम किया, मैं समस्त इस्राएल के सामने प्रकट रूप से यह करूँगा।’’

13) दाऊद ने नातान से कहा, ‘‘मैनें प्रभु के विरुद्ध पाप किया है।’’ इस पर नातान ने दाउद से कहा, ‘‘प्रभु ने आपका यह पाप क्षमा कर दिया है। आप नहीं मरेंगे।

14) किन्तु आपने इस काम के द्वारा प्रभु का तिरस्कार किया, इसलिए आप को जो पुत्र उत्पन्न होगा, वह अवश्य मर जायेगा।’’

15) इसके बाद नातान अपने घर गया। प्रभु ने उस बच्चे को मारा, जिसे ऊरीया की पत्नी ने दाऊद के लिए उत्पन्न किया था और वह बहुत ही बीमार पड़ा।

16) दाऊद ने बच्चे के लिए ईश्वर से प्रार्थना की। उसने कुछ भी नहीं खाया और वह अपने शयनकक्ष जा कर रात में भी भूमि पर सोता रहा।

17) दरबार के वयोवृद्धों ने उससे अनुरोध किया कि वह भूमि पर सोना छोड़ दे, किन्तु उसने उनकी बात नहीं मानी और उनके साथ भोजन करना अस्वीकार किया।

📙 सुसमाचार : सन्त मारकुस 4:35-41

35) उसी दिन, सन्ध्या हो जाने पर, ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, ’’हम उस पार चलें’’।

36) लोगों को विदा करने के बाद शिष्य ईसा को उसी नाव पर ले गये, जिस पर वे बैठे हुए थे। दूसरी नावें भी उनके साथ चलीं।

37) उस समय एकाएक झंझावात उठा। लहरें इतने ज़ोर से नाव से टकरा नहीं थीं कि वह पानी से भरी जा रही थी।

38) ईसा दुम्बाल में तकिया लगाये सो रहे थे। शिष्यों ने उन्हें जगा कर कहा, ’’गुरुवर! हम डूब रहे हैं! क्या आप को इसकी कोई चिन्ता नहीं?’’

39) वे जाग गये और उन्होंने वायु को डाँटा और समुद्र से कहा, ’’शान्त हो! थम जा!’’ वायु मन्द हो गयी और पूर्ण शान्ति छा गयी।

40) उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ’’तुम लोग इस प्रकार क्यों डरते हो ? क्या तुम्हें अब तक विश्वास नहीं हैं?’’

41) उन पर भय छा गया और वे आपस में यह कहते रहे, ’’आखिर यह कौन है? वायु और समुद्र भी इनकी आज्ञा मानते हैं।’’

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार में हम येसु को गलीलिया के झील के पार एक नाव में अपने शिष्यों के साथ नौकायन करते हुए पाते हैं। उन्हें तूफान और ऊंची लहरों का सामना करना पड़ा। येसु अपने सिर को तकिये पर रखकर सो रहे थे। अपनी चिंता में शिष्योंने उन्हें जगाया। येसु ने तूफान और हवा को यह कहते हुए डांटा, “शांत हो जा, थम जा!"। सब कुछ शांत हो गया। येसु ने उन्हें उनकी विश्वास की कमी के लिए डाँटा। जब येसु हमारी नाव में होता है, भले ही तूफान या हवा हो, हमें चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि वह देश और समुद्र का स्वामी है। यिरमियाह 31:35 में हम पढ़ते हैं, "वह प्रभु यह कहता है, जिसने दिन में प्रकाश के लिए सूर्य और रात में ज्योति के लिए चन्द्रमा और तारे दिये हैं; जो समुद्र को झकझोरता है, तो उसकी लहरें गरजने लगती हैं; जिसका नाम विश्वमण्डल का प्रभु है।” ईसा मसीह, जीवित ईश्वर के पुत्र हैं। जब प्रभु नाव में हैं, तो शिष्यों को भय क्यों होना चाहिए? हवा और समुद्र ने उनकी बात मान ली। स्तोत्रकार कहता है, “तू महासागर का घमण्ड चूर करता और उसकी उद्यण्ड लहरों को शान्त करता है।” (स्तोत्र 89: 10) वह यह भी कहता है, “उसने आँधी को शान्त किया और लहरें थम गयीं।” (स्तोत्र 107: 29)। आइए हम खुद को हमेशा याद दिलाएं कि हमें डरने की कोई बात नहीं है क्योंकि ब्रह्मांड का प्रभु हमारी नाव में है।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

In today’s Gospel we find Jesus sailing with his disciples in a boat across the lake of Galilee. They experienced storm and high waves. Jesus was asleep with his head on a cushion. In their anxiety the disciples woke him up. Jesus rebuked the storm and the wind saying “Quiet now! Be calm”. There was calm. Jesus scolded them for their lack of faith. When Jesus is in our boat, even if there is a storm or a wind, we need not worry, because he is the Lord of the land and the sea. In Jer 31:35 we read, “Thus says the Lord, who gives the sun for light by day and the fixed order of the moon and the stars for light by night, who stirs up the sea so that its waves roar — the Lord of hosts is his name”. Jesus is Christ, the Son of the Living God. When the Lord is in the boat, why should the disciples fear? The wind and the sea obeyed him. The Psalmist says, “You rule the raging of the sea; when its waves rise, you still them.” (Ps 89:9) Elsewhere he says, “he made the storm be still, and the waves of the sea were hushed” (Ps 107:29). Let us remind ourselves always that we have nothing to fear because the Lord of the universe is in our boat.

-Fr. Francis Scaria


Copyright © www.jayesu.com
Praise the Lord!