वर्ष - 2, पाँचवाँ सप्ताह, मंगलवार

📒 पहला पाठ: राजाओं का पहला ग्रन्थ 8:22-23,27-30

22) इसके बाद सुलेमान इस्राएल के समस्त समुदाय के सम्मुख ईश्वर की वेदी के सामने खड़ा हो गया और आकाश की ओर हाथ उठा कर

23) बोला, ‘‘प्रभु! इस्राएल के ईश्वर! न तो ऊपर स्वर्ग में और न नीचे पृथ्वी पर तेरे सदृश कोई ईश्वर है। तू विधान बनाये रखता और अपने सेवकों पर दया दृष्टि करता है, जो निष्कपट हृदय से तेरे मार्ग पर चलते हैं।

27) क्या यह सम्भव है कि ईश्वर सचमुच पृथ्वी पर मनुष्यों के साथ निवास करे? आकाश तथा समस्त ब्रह्माण्ड में भी तू नहीं समा सकता, तो इस मन्दिर की क्या, जिसे मैंने तेरे लिए बनवाया है!

28) प्रभु, मेरे ईश्वर! अपने सेवक की प्रार्थना तथा अनुनय पर ध्यान दे। आज अपने सेवक की पुकार तथा विनती सुनने की कृपा कर।

29) तेरी कृपादृष्टि दिन-रात इस मन्दिर पर बनी रहे- इस स्थान पर, जिसके विषय में तूने कहा कि मेरा नाम यहाँ विद्यमान रहेगा। तेरा सेवक यहाँ जो प्रार्थना करेगा, उसे सुनने की कृपा कर।

30) जब इस स्थान पर तेरा सेवक और इस्राएल की समस्त प्रजा प्रार्थना करेगी, तो उनका निवेदन स्वीकार करने की कृपा कर। तू अपने स्वर्गिक निवासस्थान से उनकी प्रार्थना सुन और उन्हें क्षमा प्रदान कर।

📙 सुसमाचार : सन्त मारकुस 7:1-13

1 फ़रीसी और येरुसालेम से आये हुए कई शास्त्री ईसा के पास इकट्ठे हो गये।

2) वे यह देख रहे थे कि उनके शिष्य अशुद्ध यानी बिना धोये हाथों से रोटी खा रहे हैं।

3) पुरखों की परम्परा के अनुसार फ़रीसी और सभी यहूदी बिना हाथ धोये भोजन नहीं करते।

4) बाज़ार से लौट कर वे अपने ऊपर पानी छिड़के बिना भोजन नहीं करते और अन्य बहुत-से परम्परागत रिवाज़ों का पालन करते हैं- जैसे प्यालों, सुराहियों और काँसे के बरतनों का शुद्धीकरण।

5) इसलिए फ़रीसियों और शास्त्रियों ने ईसा से पूछा, ’’आपके शिष्य पुरखों की परम्परा के अनुसार क्यों नहीं चलते? वे क्यों अशुद्ध हाथों से रोटी खाते हैं?

6) ईसा ने उत्तर दिया, ’’इसायस ने तुम ढोंगियों के विषय में ठीक ही भविष्यवाणी की है। जैसा कि लिखा है- ये लोग मुख से मेरा आदर करते हैं, परन्तु इनका हृदय मुझ से दूर है।

7) ये व्यर्थ ही मेरी पूजा करते हैं; और ये जो शिक्षा देते हैं, वे हैं मनुष्यों के बनाये हुए नियम मात्र।

8) तुम लोग मनुष्यों की चलायी हुई परम्परा बनाये रखने के लिए ईश्वर की आज्ञा टालते हो।’’

9) ईसा ने उनसे कहा, ’’तुम लोग अपनी ही परम्परा का पालन करने के लिए ईश्वर की आज्ञा रद्द करते हो;

10) क्योंकि मूसा ने कहा, अपने पिता और अपनी माता का आदर करो; और जो अपने पिता या अपनी माता को शाप दे, उसे प्राणदण्ड दिया जाय।

11) परन्तु तुम लोग यह मानते हो कि यदि कोई अपने पिता या अपनी माता से कहे- आप को मुझ से जो लाभ हो सकता था, वह कुरबान (अर्थात् ईश्वर को अर्पित) है,

12) तो उस समय से वह अपने पिता या अपनी माता के लिए कुछ नहीं कर सकता है।

13) इस तरह तुम लोग अपनी परम्परा के नाम पर, जिसे तुम बनाये रखते हो, ईश्वर का वचन रद्द करते हो और इस प्रकार के और भी बहुत-से काम करते रहते हो।’’

📚 मनन-चिंतन

11 फरवरी 1858 को, फ्रांस की लूर्द नामक जगह पर माता मरियम ने बेर्नादिक्त नामक एक चौदह साल की लड़की को एक ग्रोटो में दर्शन दिया। उस समय बर्नादिक्त अपने घर से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर अपनी बहन और एक सहेली के साथ जलाऊ लकड़ी बटोर रही थी। तत्पश्चात्‍ माता मरियम ने उसी साल उन्हें 18 बार दर्शन दिये। अपने दर्शनों में माता मरियम ने बर्नादिक्त से कहा कि वे इस दुनिया में उन्हें खुश रखने का वादा नहीं करती है, बल्कि परलोक में उन्हें आनन्द प्रदान करने का वादा करती है। माता मरियम ने बर्नादिक्त से कहा कि वे पश्चात्तप और प्रायश्चित करके पापियों के मनफिराव के लिए प्रार्थना करें। अपने एक दर्शन के दौरान माता मरियम ने बर्नादिक्त से ज़मीन की मिट्टी खोदने को कहा। खोदने पर वहाँ एक झरना निकला जो आज भी भक्तजनों के लिए एक बहुत बडे आकर्षण की जगह है। उस झरने के पानी पीने से बहुत से रोगियों को चंगाई प्राप्त हुयी है। उसी साल के 25 मार्च के अपने दर्शन में माता मरियम ने कहा, “मैं निष्कलंक गर्भागमन हूँ”। इन दर्शनों की बातें पूरे फ्रांस और दुनिया के विभिन्न देशों में फैल गयीं।

माता मरियम के दर्शनों के इस मामले का पूरा जाँच-पड़ताल कराने के बाद 18 जनवरी सन 1860 को स्थानीय धर्माध्यक्ष ने यह पुष्ठ किया कि बर्नादिक्त को माता मरियम ने दर्शन दिया था। सन 1870 में संत पापा पीयुस नौवें ने इस मरियन तीर्थस्थल को औपचारिक स्वीकृति दी। सन 1933 में संत पापा पीयुस ग्यारहवें ने बर्नादिक्त को संत घोषित किया। दुनिया के कोने-कोने से चालीस से साठ लाख भक्तजन हर साल लूर्द के इस तीर्थस्थल पर जाकर माता मरियम की मध्यस्थता में प्रार्थना करते हुए ईश्वर की आशिष प्राप्त करते हैं।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

On 11th February 1858 Our Lady appeared to a fourteen year old girl named Bernadette. At that time Bernadette was about one mile away from her home collecting firewood with her sister and a friend. During the course of that year our Lady appeared to her eighteen times. She did not promise to keep Bernadette happy in this world but in the world to come. Our Blessed Mother told her to do penance and pray for the conversion of sinners. In one of her appearances Our Lady asked Bernadette to dig the ground and when she did that, there came a miraculous spring of water which later became an attraction for pilgrims all over the world. Many believed in the healing power of the water from this spring. In her appearance on March 25 in the same year our Lady told her that she was the “Immaculate Conception”. The matters related to these vision began to spread all over the world.

After inquiring into the details of the appearances of our Lady in Lourdes on January 18, 1860, the local bishop officially confirmed that Our Lady really appeared to Bernadette. In 1870 Pope Piux IX officially approved Lourdes as a Marian Pilgrim centre. In 1933 Pope Pius XI declared Bernadette as a saint. From all over the world about 40 to 60 lakhs people visit this Marian Shrine every year.

-Fr. Francis Scaria


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