वर्ष - 2, छठवाँ सप्ताह, शुक्रवार

📒 पहला पाठ: याकूब का पत्र 2:14-24,26

14) भाइयो! यदि कोई यह कहता है कि मैं विश्वास करता हूँ, किन्तु उसके अनुसार आचरण नहीं करता, तो इस से क्या लाभ? क्या विश्वास ही उसका उद्धार कर सकता है?

15) मान लीजिए कि किसी भाई या बहन के पास न पहनने के लिए कपड़े हों और न रोज-रोज खाने की चीजे़ं।

16) यदि आप लोगों में कोई उन से कहे, "खुशी से जाइए, गरम-गरम कपड़े पहनिए और भर पेट खाइए", किन्तु वह उन्हें शरीर के लिए ज़रूरी चीजें नहीं दे, तो इस से क्या लाभ?

17) इसी तरह कर्मों के अभाव में विश्वास पूर्ण रूप से निर्जीव होता है।

18) और ऐसे मनुष्य से कोई कह सकता है, "तुम विश्वास करते हो, किन्तु मैं उसके अनुसार आचरण करता हूँ। मुझे अपना विश्वास दिखाओ, जिस पर तुम नहीं चलते और मैं अपने आचरण द्वारा तुम्हें अपने विश्वास का प्रमाण दूँगा।"

19) तुम विश्वास करते हो कि केवल एक ईश्वर है। अच्छा करते हो। दुष्ट आत्मा भी ऐसा विश्वास करते हैं, किन्तु काँपते रहते हैं

20) मूर्ख! क्या तुम इसका प्रमाण चाहते हो कि कर्मों के अभाव में विश्वास व्यर्थ है?

21) क्या हमारे पिता इब्राहीम अपने कर्मों के कारण धार्मिक नहीं माने गये, जब उन्होंने वेदी पर अपने पुत्र इसहाक को अर्पित किया?

22) तुम देखते हो कि उनका विश्वास क्रियाशील था और उनके कर्मों द्वारा ही पूर्णतः प्राप्त कर सका।

23) इस प्रकार धर्मग्रन्थ का यह कथन पूरा हुआ- इब्राहीम ने ईश्वर में विश्वास किया और इसी से वह धार्मिक माने गये और ईश्वर के मित्र कहलाये।

24) आप लोग देखते हैं कि मनुष्य केवल विश्वास से नहीं, बल्कि कर्मों से धार्मिक बनता है।

26) जिस तरह आत्मा के बिना शरीर निर्जीव है, उसी तरह कर्मों के अभाव में विश्वास निर्जीव है।

📙 सुसमाचार : सन्त मारकुस 8:34-9:1

34) ईसा ने अपने शिष्यों के अतिरिक्त अन्य लोगों को भी अपने पास बुला कर कहा, "जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह आत्मत्याग करे और अपना क्रूस उठा कर मेरे पीछे हो ले।

35) क्योंकि जो अपना जीवन सुरक्षित रखना चाहता है, वह उसे खो देगा और जो मेरे तथा सुसमाचार के कारण अपना जीवन खो देता है, वह उसे सुरक्षित रखेगा।

36) मनुष्य को इससे क्या लाभ यदि वह सारा संसार तो प्राप्त कर ले, लेकिन अपना जीवन ही गँवा दे?

37) अपने जीवन के बदले मनुष्य दे ही क्या सकता है?

38) जो इस अधर्मी और पापी पीढ़ी के सामने मुझे तथा मेरी शिक्षा को स्वीकार करने में लज्जा अनुभव करेगा, मानव पुत्र भी उसे स्वीकार करने में लज्जा अनुभव करेगा, जब वह स्वर्गदूतों के साथ अपने पिता की महिमा-सहित आयेगा।"

9:1) ईसा ने यह भी कहा, "मैं तुम से यह कहता हूँ - यहाँ कुछ ऐसे लोग विद्यमान हैं, जो तब तक नहीं मरेंगे, जब तक वे ईश्वर का राज्य सामर्थ्य के साथ आया हुआ न देख लें"।

📚 मनन-चिंतन

संत याकूब के पत्र 2: 14-24,26 से लिया गया आज का पहला पाठ विश्वास पर प्रेम की प्राथमिकता पर जोर देता है। जरूरतमंदों के लिए प्यार और चिंता के बिना विश्वास न तो प्रभावशाली है और न ही कुशल। मसीह के शिष्यों के लिए व्यावहारिक प्रेम एक प्राथमिकता होनी चाहिए। गलातियों 5: 6 में, संत पौलुस कहते हैं, “यदि हम ईसा मसीह से संयुक्त हैं तो न ख़तने का कोई महत्व है और न उसके अभाव का। महत्व विश्वास का है, जो प्रेम से अनुप्रेरित है।” कुरिन्थियों को लिखते हुए अपने पहले पत्र के अध्याय 13 में संत पौलुस प्रेम पर जोर देते हुए विश्वास तथा आशा पर प्रेम की प्राथमिकता को प्रस्तुत करते हैं। कलोसियों 3:13-14 में वे कहते हैं, “आप एक दूसरे को सहन करें और यदि किसी को किसी से कोई शिकायत हो तो एक दूसरे को क्षमा करें। प्रभु ने आप लोगों को क्षमा कर दिया। आप लोग भी ऐसा ही करें। इसके अतिरिक्त, आपस में प्रेम-भाव बनाये रखें। वह सब कुछ एकता में बाँध कर पूर्णता तक पहुँचा देता है।” रोमियों 13:9-10 में संत पौलुस कहते हैं, “व्यभिचार मत करो, हत्या मत करो, चोरी मत करो, लालच मत करो’ -इनका तथा अन्य सभी दूसरी आज्ञाओं का सारांश यह है- अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो। प्रेम पड़ोसी के साथ अन्याय नहीं करता। इसलिए जो प्यार करता है, वह संहिता के सभी नियमों का पालन करता है।” आइए, हम प्रेम की प्राथमिकत पर ध्यान दें।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

The First Reading of Today taken from the letter of St. James 2:14-24,26 emphasises the priority of love over faith. Faith without love and concern for the needy is neither effective nor efficient. Practical love must be a priority for the disciples of Christ. In Gal 5:6, St. Paul says, “For in Christ Jesus neither circumcision nor uncircumcision counts for anything; the only thing that counts is faith working through love.” In the First Letter of St. Paul to Corinthians, St. Paul speaks at length about love in chapter 13. He establishes the priority of love over faith and hope. Love makes faith alive. The new commandment that Jesus gave us is a commandment of love. Jesus summarized all the commandments in just two commandments – love of God and love of neighbor. St. Paul tells us in Col 3:13-14, “Bear with one another and, if anyone has a complaint against another, forgive each other; just as the Lord has forgiven you, so you also must forgive. Above all, clothe yourselves with love, which binds everything together in perfect harmony.” In Rom 13:9-10 St. Paul says, “The commandments, “You shall not commit adultery; You shall not murder; You shall not steal; You shall not covet”; and any other commandment, are summed up in this word, “Love your neighbor as yourself. Love does no wrong to a neighbor; therefore, love is the fulfilling of the law.”

-Fr. Francis Scaria


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Praise the Lord!