वर्ष - 2, सातवाँ सप्ताह, शुक्रवार

📒 पहला पाठ : याकूब 5:9-12

9) भाइयो! एक दूसरे की शिकायत न करें, जिससे आप पर दोष न लगाया जाये। देखिए, न्यायकर्ता द्वार पर खड़े हैं।

10) भाइयो! जो नबी प्रभु के नाम पर बोले हैं, उन्हें सहिष्णुता तथा धैर्य का अपना आदर्श समझें।

11) हम उन्हें धन्य समझते हैं जो दृढ़ बने रहे। आप लोगों ने योब के धैर्य के विषय में सुना है और आप जानते हैं कि प्रभु ने अन्त में उसके साथ कैसा व्यवहार किया; क्योंकि प्रभु दया और अनुकम्पा से परिपूर्ण है।

12) मेरे भाइयो! सब से बड़ी बात यह है कि आप शपथ नहीं खायें- न तो स्वर्ग की, न पृथ्वी की ओर न किसी अन्य वस्तु की। आपकी बात इतनी हो - हाँ की हाँ, नहीं की नहीं। कहीं ऐसा न हो कि आप दण्ड के योग्य हो जायें।

📙 सुसमाचार : मारकुस 10:1-12

1) वहाँ से विदा हो कर ईसा यहूदिया और यर्दन के पार के प्रदेश पहुँचे। एक विशाल जनसमूह फिर उनके पास एकत्र हो गया और वे अपनी आदत के अनुसार लोगों को शिक्षा देते रहे।

2 फ़रीसी ईसा के पास आये और उनकी परीक्षा लेते हुए उन्होंने प्रश्न किया, “क्या अपनी पत्नी का परित्याग करना पुरुष के लिए उचित है?“

3) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया? "मूसा ने तुम्हें क्या आदेश दिया?"

4) उन्होंने कहा, “मूसा ने तो त्यागपत्र लिख कर पत्नी का परित्याग करने की अनुमति दी"।

5) ईसा ने उन से कहा, "उन्होंने तुम्हारे हृदय की कठोरता के कारण ही यह आदेश लिखा।

6) किन्तु सृष्टि के प्रारम्भ ही से ईश्वर ने उन्हें नर-नारी बनाया;

7) इस कारण पुरुष अपने माता-पिता को छोड़ेगा और दोनों एक शरीर हो जायेंगे।

8) इस तरह अब वे दो नहीं, बल्कि एक शरीर हैं।

9) इसलिए जिसे ईश्वर ने जोड़ा है, उसे मनुष्य अलग नहीं करे।"

10) शिष्यों ने, घर पहुँच कर, इस सम्बन्ध में ईसा से फिर प्रश्न किया

11) और उन्होंने यह उत्तर दिया, "जो अपनी पत्नी का परित्याग करता और किसी दूसरी स्त्री से विवाह करता है, वह पहली के विरुद्ध व्यभिचार करता है

12) और यदि पत्नी अपने पति का त्याग करती और किसी दूसरे पुरुष से विवाह करती है, तो वह व्यभिचार करती है"।


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