वर्ष - 2, नौवाँ सप्ताह, मंगलवार

पहला पाठ : 2 पेत्रुस 3:12-15अ, 17-18

12) और उत्सुकता से इ्रश्वर के दिन की प्रतीक्षा करें। उस दिन आकाश जल कर विलीन हो जायेगा और मूलतत्व ताप के कारण पिघल जायेंगे।

13) हम उसकी पतिज्ञा के आधार पर एक नये आकाश तथा एक नयी पृथ्वी की प्रतीक्षा करते हैं; जहाँ धार्मिकता निवास करेगी।

14) इसलिए, प्यारे भाइयो! इन बातों की प्रतीक्षा करते हुए इस प्रकार प्रयत्न करते रहे कि आप लोग प्रभु की दृष्टि में निष्कलंक, निर्दोष तथा उसके अनुकूल हों।

15) यदि प्रभु अपनी सहनीशलता के कारण देर करते हैं, तो इसे अपनी मुक्ति में सहायक समझें, जैसा कि हमारे भाई पौलुस ने अपने को प्रदत्त प्रज्ञा के अनुसार आप को लिखा।

17) प्रिय भाइयो! मैंने आप लोगों को पहले से ही सचेत किया है। आप सावधान रहें। कहीं ऐसा न हो कि आप उन दुष्टों के बहकावे में आ कर विचलित हो जायें।

18) आप लोग हमारे प्रभु और मुक्तिदाता ईसा मसीह के अनुग्रह और ज्ञान में बढ़ते रहें। उन्हीं को अभी और अनन्त काल तक महिमा! आमेन !

सुसमाचार : सन्त मारकुस का सुसमाचार 12:13-17

13) उन्होंने ईसा के पास कुछ फरीसियों और हेरोदियों को भेजा, जिससे वे उन्हें उनकी अपनी बात के फन्दे में फँसाये।

14) वे आ कर उन से बोले, ’’गुरुवर! हम यह जानते हैं कि आप सत्य बोलते हैं और किसी की परवाह नहीं करते। आप मुँह-देखी बात नहीं करते, बल्कि सच्चाई से ईश्वर के मार्ग की शिक्षा देते हैं। कैसर को कर देना उचित है या नहीं?’’

15) हम दें या नहीं दें?’’ उनकी धूर्तता भाँप कर ईसा ने कहा, ’’मेरी परीक्षा क्यों लेते हो? एक दीनार ला कर मुझे दिखलाओ।’’

16) वे दीनार लाये और ईसा ने उन से पूछा, ’’यह किसका चेहरा और किसका लेख है?’’ उन्होंने उत्तर दिया, ’’कैसर का’’।

17) इस पर ईसा ने उन से कहा, ’’जो कैसर का है, उसे कैसर को दो और जो ईश्वर का है, उस ईश्वर को’’। यह सुन कर वे बड़े अचम्भे में पड़ गये।

📚 मनन-चिंतन

जो कैसर का है उसे कैसर को दे दो और जो ईश्वर का है उसे ईष्वर को दे दो। कैसर की चीजों को जानना सरल है, मसलन टैक्स या कर, और सांसारिक वस्तुये। लेकिन जो बात ध्यान देने योग्य हैं वह यह कि ईष्वर का क्या है? कैसर और ईश्वर की चीजों में भेद करने हम साधारणः त्रुटि कर बैठते हैं।

हमारा सारा जीवन ईश्वर का है। हमारा जीवन तथा उसके सभी दान ईश्वर के हैं। हमें ईश्वर की सुनना तथा उनकी आज्ञाओं का पालन करना चाहिये। ईश्वर की आज्ञा को मानना हमारे जीवन की सर्वोच्च प्राथमिकता है। हमें इसका पालन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी करना चाहिये। हर बार जब हम ईश-वचन के पालन में समझौता करते हैं तब हम ईश्वर से दूर होते जाते है। येसु कहते हैं, ’’वे संसार के नहीं है’’। यह सही है कि हम कैसर के संसार में रहते हैं किन्तु हम ईश्वरीय गुणों और मूल्यों के अनुसार संसार में रहते हैं। संत योहन हमें इस बात की याद दिलाते हैं, तुम न तो संसार को प्यार करो और न संसार की वस्तुओं को। जो संसार को प्यार करता है, उस में पिता का प्रेम नहीं।’’(1योहन 2:15)

1 समुएल में हम राजा साउल की विफलताओं एवं पतन के बारे में सुनते हैं। साउल ईश्वर द्वारा चुना राजा था तथा ईश्वर का प्रतिनिधित्व कर रहा था। इसलिये उसे ईश्वर के निर्देषों का पालन करना चाहिये था भले ही वे चाहे कितने ही तर्कहीन और प्रसंगिक क्यों न प्रतीत होते हो। लेकिन साउल ईश्वर और संसार की बातों में अंतर देखने में विफल रहा। उसने ईश्वर की आज्ञायों से समझौता कर सांसारिक लाभ एवं हानि के गणित को अधिक महत्व दिया। इसलिये राजा के रूप में ईश्वर उसे अस्वीकार कर देते हैं।

दानिएल और उसके साथियों ने गैर-यदूहियों की खान-पान एवं जीवन शैली को अस्वीकार किया तथा अपने को शुद्ध बनाये रखा। बाद में राजा की मूर्ति की आराधना को अस्वीकार कर उन्होंने जलती भट्ठी में जलना पंसद किया। इस्राएली मरूभूमि में हमेशा ईश्वर, जिन्होंने उसे गुलामी से मुक्त किया था, की अव्हेलना कर खाने-पीने तथा भोग-विलास की वस्तुओं के पीछे भागते रहे।

धर्मग्रंथ, समाज तथा हमारे जीवन में ऐसे अनेक उदाहरण है जब हमने कैसर की वस्तुयों के लिये ईश्वरीय वस्तुओं का त्याग किया हो। येसु का अनुसरण करना कठिन, अजीब, तथा उबाऊ हो सकता है। हम ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां सुसमाचार का अनुसरण करना अप्रसंगिक होता जा रहा है। हमें दुनिया के प्रभाव तथा उसके छद्म सिद्धांतों से सर्तक रहना चाहिये। चूंकि हम इसके प्रभाव से बचने के लिये पर्याप्त कदम नहीं उठाते हैं हम पाप में पड कर दुनिया की तरफदारी करने लगते हैं। ज्यादातर लोग धीरे-धीरे समझौता करते जाते हैं और अक्सर इस प्रक्रिया को पहचान नहीं पाते हैं। कभी-कभी हम ईश्वर की बातों के साथ समझौता संसार के लिये प्रासांगिक बने रहते हैं। इस प्रकार जो ईश्वर का वह भी हम दुनियावी बातों में खर्च कर देते हैं।

-फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल


📚 REFLECTION

Give to Caesar what belongs to Caesar and give to God what belongs to God. It is easy to ascertain what belongs to Caesar i.e., taxes, in wider application it is the worldly things but what belongs to God is a matter of great concern. We make error of judgement in distinguishing these two things.

Our whole life belongs to God. we own our existence to God and every gift that life has. We ought to listen to or obey God more than anything else. Obedience to the will of God is our highest priority. We ought to live by it even in most unfriendly circumstances. Every time we compromise with the Word of God, we lose ground with God. Jesus says, “You are in the world but not of the world.” (John 17:15) It is true that we live in the world of Caesar but we live in it by the values and virtues of God.St. John reminds us, “Do not love the world or the things in the world. If anyone loves the world, the love of the Father is not in him. (1John 2:15)

In the first book of Samuel we have the narrative of the monumental failures of King Saul. Saul was supposed to be on the mission of God. He was representing God and was to follow God’s instructions no matter how irrelevant they may be. But King Saul had miserably failed to ascertain the matters of the world and of God. obedience belonged to God yet he had compromised God’s property with the earthly gains and profit. Therefore, he was duly rejected as the king. Daniel and his companions refused to bow down to the living standard of the pagan world and kept themselves undefiled. Later they preferred to be burned alive in the furnace than concede ground to the king’s demands. Israelites in the wilderness made a mess of their lives by craving for the earthly food and pleasure while failed to worship God who had brought them to freedom.

There are many examples in the Bible, in the society and even in our own lives when we sold off what belongs to God for the things of Caesar.

Following Christ may feel “too hard,” “too boring,” or just “too weird.” We live in a world where following Gospel is running the risk of being irrelevant. We need to be very cautious against the influence and the disguised principles of the world. Since we fail to adequately protect ourselves from its influence and guard ourselves against sin, we end up taking on the side of the world. But the majority of us compromise little by little. Often we don’t even realize it’s happening. We straddle the fence over here. We give slightly in another area over there. Sometimes, we even compromise with God’s holy standards in a misguided attempt to be “relevant.”

-Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal


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Praise the Lord!