वर्ष - 2, नौवाँ सप्ताह, शुक्रवार

पहला पाठ : 2 तिमथी 3:10-17

10) तुम मेरी शिक्षा, आचरण, उद्देश्य, विश्वास, सहनशीलता, प्रेम और धैर्य से अच्छी तरह परिचित हो।

11) तुम जानते हो कि अन्ताखि़या, इकोनियुम और लुस्त्रा में मुझ पर क्या-क्या अत्याचार हुए और मुझे कितना सताया गया। मैंने कितने अत्याचार सहे! किन्तु ईश्वर सब में मेरी रक्षा करता रहा है।

12) वास्तव में जो लोग मसीह के शिष्य बन कर भक्तिपूर्वक जीवन बिताना चाहेंगे, उन सबों को अत्याचार सहना ही पड़ेगा।

13) किन्तु पापी और धूर्त लोग दूसरों को और अपने को धोखा देते हुए बदतर होते जायेंगे।

14) तुम्हें जो शिक्षा मिली है और तुमने जिस में विश्वास किया है, उस पर आचरण करते रहो। याद रखो कि तुम्हें किन लोगों से यह शिक्षा मिली थी और

15) यह कि तुम बचपन से धर्मग्रन्थ जानते हो। धर्मग्रन्थ तुम्हें उस मुक्ति का ज्ञान दे सकता है, जो ईसा मसीह में विश्वास करने से प्राप्त होती है।

16) पूरा धर्मग्रन्थ ईश्वर की प्रेरणा से लिखा गया है। वह शिक्षा देने के लिए, भ्रान्त धारणाओं का खण्डन करने के लिए, जीवन के सुधार के लिए और सदाचरण का प्रशिक्षण देने के लिए उपयोगी है।

17) जिससे ईश्वर-भक्त सुयोग्य और हर प्रकार के सत्कार्य के लिए उपयुक्त बन जाये।

सुसमाचार : सन्त मारकुस का सुसमाचार 12:35-37

35) ईसा ने, मन्दिर में शिक्षा देते समय, यह प्रश्न उठाया, “शास्त्री लोग कैसे कह सकते हैं कि मसीह दाऊद के पुत्र हैं?

36) दाऊद ने स्वयं पवित्र आत्मा की प्रेरणा से कहा- प्रभु ने मेरे प्रभु से कहा, तुम तब तक मेरे दाहिने बैठे रहो, जब तक मैं तुम्हारे शत्रुओं को तुम्हारे पैरों तले न डाल दूँ।

37) दाऊद स्वयं उन्हें प्रभु कहते हैं, तो वह उनके पुत्र कैसे हो सकते हैं?" एक विशाल जन समूह बड़ी रुचि से ईसा की बातें सुन रहा था।

📚 मनन-चिंतन

बाइबिल ईश्वर का वचन है, जो जीवनदायक है। यह अत्यंत आवश्यक है कि हम उस पर विश्वास करे। यह हमारे विश्वास के लिये इतना आधारभूत है कि यदि हम इसे विश्वास से अलग करे तो हमारा विश्वास ही शून्य हो जायेगा। बाइबिल ऐसी विष्वसनीय एवं समृद्ध पुस्तक है जो हर व्यक्ति, देष और परिस्थिति में प्रसांगिक एवं उपयोगी है। हम न सिर्फ इस पर मानसिक रूप से विष्वास करते हैं बल्कि इसकी शिक्षाओं को व्यवहारिक जीवन में लागू भी करते हैं। संत पौलुस कहते हैं, ’’ पूरा धर्मग्रन्थ ईश्वर की प्रेरणा से लिखा गया है। वह शिक्षा देने के लिए, भ्रान्त धारणाओं का खण्डन करने के लिए, जीवन के सुधार के लिए और सदाचरण का प्रशिक्षण देने के लिए उपयोगी है।’’

धर्मग्रंथ की व्याख्या धर्मग्रंथ से ही करना चाहिये। बाइबिल में ईशवचन का हवाला किसी बात या परिस्थिति को साबित करने, समझाने तथा उसकी सत्यता दिखाने के लिये किया गया है। येसु परमपावन ईश्वर के पुत्र तथा प्रतिज्ञात मसीहा थे, इस बात को समझाने तथा साबित करने के लिये धर्मग्रंथ में उल्लेखित भविष्यवाणियों तथा वचनों का सहारा लिया गया है।

नये विधान मे हम अक्सर हम इस वाक्य को पाते हैं, ’इस प्रकार नबी इसायस का कथन पूरा हुआ।’ आदि। ऐसे वाक्यों का उद्देश्य इस बात को दर्शाना है कि येसु धर्मग्रंथ की पूर्णता है। येसु भी धर्मग्रंथ का हवाला देते हुये बताते हुये अपने कार्यों तथा उनकी पहचान को प्रकट करते हैं, योहन 5:46 में वे कहते हैं, ’मूसा ने मेरे बारे में लिखा है।’ शैतान के प्रलोभन को अस्वीकारते समय वे ईश-वचन का हवाला देते हुये कहते हैं, ’’लिखा है अपने प्रभु-ईश्वर की आराधना करो और केवल उसकी की सेवा करो’’ (मत्ती 4:10) योहन बपतिस्ता के शिष्यों को अपनी मसीहा के रूप में पहचान को बताते हुये वे इसायाह की मसीही युग की बातों को कहते हैं, ’उस दिन बहरे ग्रन्थ का पाठ सुनेंगे और अन्धे देखने लगेंगे, क्योंकि उनकी आँखों से धुँधलापन और अन्धकार दूर हो जायेगा।’’(इसायाह 29:18)

जब महायाजक और जनता के नेता उनसे पूछते कि वे किस अधिकार से यह सब कर रहे है तो येसु स्तोत्र 118 का हवाला देते है। ’’क्या तुम लोगों ने धर्मग्रन्थ में कभी यह नहीं पढा? कारीगरों ने जिस पत्थर को बेकार समझ कर निकाल दिया था, वही कोने का पत्थर बन गया है। यह प्रभु का कार्य है। यह हमारी दृष्टि में अपूर्व है।’’ इसके द्वारा वे बताते है कि मसीहा के द्वारा ईश्वर आश्चर्यजनक एवं अप्रत्याशित चीजे करता है ताकि वे उसे देखे, पहचाने और स्वीकारे। मत्ती 2:16 में येसु स्तोत्र 8:2 से उद्धरण करते हुये बताते हैं कि ईश्वर हमारी धारणों को धराशायी कर सकते हैं, ’’क्या तुम लोगों ने कभी यह नहीं पढ़ा- बालकों और दुधमुँहे बच्चों के मुख से तूने अपना गुणगान कराया है?’’

आज के सुसमाचार में स्तोत्र 110 को आधार बनाकर येसु बताते है कि मसीहा दाउद के पहले से ही विद्यमान है, ’’प्रभु ने मेरे प्रभु ने कहा, ’तुम मेरे दाहिने बैठ जाओ। मैं तुम्हारे शत्रुओं को तुम्हारा पावदान बना दूँगा।’’ वे बुद्धिजीवियों को यह बताते हैं कि उन्हें विरोधाभासों का उत्तर देना चाहिये तथा मसीहा के बारे में नवीन रूप तथा नये सिरे से सोचना चाहिये।

इस प्रकार हम देखेते है कि धर्मग्रंथ की सहायता से येसु ने अपने जीवन के विभिन्न पहलूयों को प्रकट किया तथा उसकी सहायता से कई समस्याओं को हल भी किया। हम भी अपने जीवन में नित्य नयी नयी परिस्थितियों एवं समस्याओं का सामना करते हैं। ईश वचन हमारी सभी समस्याओं का समाधान है। सारी परिस्थितियों की व्याख्या हमें ईश वचन के प्रकाश में करनी चाहिये। हमें चाहिये कि वचन का उपयोग हम अपने व्यवहारिक जीवन में करे जिस प्रकार येसु ने किया था।

-फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल


📚 REFLECTION

The Bible, the word of God is important. It matters that we believe it. it is so basic to our faith that if we remove it from our faith life then our belief system is dead. It is a book that is totally reliable and useful for every person, in every country around the globe, no matter what his or her situation in life. We not only believe it mentally and orally but it has a lot of practical bearing in our life. St. Paul describes scripture as, “All Scripture is inspired by God and useful for refuting error, for guiding people’s lives and teaching them to be upright.”

Scripture must be interpreted with scripture. Very often in the Bible the scripture is quoted to remind or to prove or to explain or to authenticate the truth of the matter or of the situation. Jesus was the son of God and the promised Messiah and the Gospels explain this fact with the help of the prophecies foretold and recorded in the scripture.

Very often the New Testament authors use the phrases, ‘it was to fulfil the prophecy of Isaiah or etc.’ Or this was to fulfill that…’ etc. such occurrences are to prove that Jesus was the fulfillment of the scripture. Jesus himself uses scripture often and emphatically to answer or to prove his identity as the son of God and authenticate his work. In John 5:46 he would say "Moses wrote about me”, To counter temptation to wrong worship he replied to devil quoting the scripture, "For it is written ..." (Matthew 4:10, Luke 4:8)

To John the Baptist's followers instead of direct answer he pointed out what Isaiah had spoken about the messianic age, (Isaiah 34:5-6; 61) "The blind receive their sight" etc. To chief priests and elders of the people, when they questioned by what authority Jesus acted, he quoted a messianic psalm 118, “Have you never read 'The stone the builders rejected has become the capstone'? (Matthew 21:42, Mark 12:10-11) It was to show that with the Messiah God does surprising things; to challenged them to think and recognise.

In Matthew 21:16 Jesus quotes Ps. 8:2, to show how God can break our assumptions, and also to defend himself. "Have you never read 'From the lips of children and infants you have ordained praise'?" In today’s Gospel passage Jesus explains that Messiah existed before David, basing himself on Psalm 110 "The LORD said to my lord, 'sit on throne until your enemies are under your feet'". It was to reveal to the intelligentsia that they had paradoxes to answer, and to get them thinking in new ways about Messiah. St. Paul clearly sums up the usage of Scripture, “All scripture is inspired by God and useful for refuting error, for guiding people’s lives, and teaching them to be upright.”

-Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal


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Praise the Lord!