वर्ष - 2, दसवाँ सप्ताह, मंगलवार

पहला पाठ : राजाओं का पहला ग्रन्थ 17:7-16

7) नदी में पानी सूख गया, क्योंकि पृथ्वी पर पानी नहीं बरसा था।

8) तब एलियाह को प्रभु की वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ी,

9) ‘‘उठो। सीदोन के सरेप्ता जाओ और वहाँ रहो। मैंने वहाँ की एक विधवा को आदेश दिया कि वह तुम्हें भोजन दिया करे।’’

10) एलियाह उठ कर सरेप्ता गया। शहर के फाटक पर पहुँच कर उसने वहाँ लकड़ी बटोरती हुई एक विधवा को देखा और उसे बुला कर कहा, ‘‘मुझे पीने के लिए घड़े में थोड़ा-सा पानी ला दो’’।

11) वह पानी लाने जा ही रही थी कि उसने उसे पुकार कर कहा, ‘‘मुझे थोड़ी-सी रोटी भी ला दो’’।

12) उसने उत्तर दिया, ‘‘आपका ईश्वर, जीवन्त प्रभु इस बात का साक्षी है कि मेरे पास रोटी नहीं रह गयी है। मेरे पास बरतन में केवल मुट्ठी भर आटा और कुप्पी में थोड़ा सा तेल है। मैं दो-एक लकड़ियाँ बटोरने आयी हूँ। अब घर जा कर उसे अपने लिए और अपने बेटे के लिए पकाती हूँ। हम उसे खायेंगे और इसके बाद हम मर जायेंगे।

13) एलियाह ने उस से कहा, ‘‘मत डरो। जैसा तुमने कहा, वैसा ही करो। किन्तु पहले मेरे लिये एक छोटी-सी रोटी पका कर ले आओ। इसके बाद अपने लिए और अपने बेटे के लिए तैयार करना;

14) क्योंकि इस्राएल का प्रभु-ईश्वर यह कहता हैः जिस दिन तक प्रभु पृथ्वी पर पानी न बरसाये, उस दिन तक न तो बरतन में आटा समाप्त होगा और न तेल की कुप्पी खाली होगी ।’’

15) एलियाह ने जैसा कहा था, स्त्री ने वैसा ही किया और बहुत दिनों तक उस स्त्री, उसके पुत्र और एलियाह को खाना मिलता रहा।

16) जैसा कि प्रभु ने एलियाह के मुख से कहा था, न तो बरतन में आटा समाप्त हुआ और न तेल की कुप्पी ख़ाली हुई।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 5:13-16

(13) ’’तुम पृथ्वी के नमक हो। यदि नमक फीका पड़ जाये, तो वह किस से नमकीन किया जायेगा? वह किसी काम का नहीं रह जाता। वह बाहर फेंका और मनुष्यों के पैरों तले रौंदा जाता है।

(14) ’’तुम संसार की ज्योति हो। पहाड़ पर बसा हुआ नगर छिप नहीं सकता।

(15) लोग दीपक जला कर पैमाने के नीचे नहीं, बल्कि दीवट पर रखते हैं, जहाँ से वह घर के सब लोगों को प्रकाश देता है।

(16) उसी प्रकार तुम्हारी ज्योति मनुष्यों के सामने चमकती रहे, जिससे वे तुम्हारे भले कामों को देख कर तुम्हारे स्वर्गिक पिता की महिमा करें।

📚 मनन-चिंतन

नमक हमारे खाने-पीने में अत्यंत महत्वपूर्ण पदार्थ है। नमक के बिना खाना स्वादहीन रह जाता है। नमक में बहुत सारी खूबियॉ होती है जैसे परिरक्षक, लवणता, उपचारात्मक आदि जैेसे गुण। लेकिन यह सब गुण तभी कामगार या उपयोगी सिद्ध होते है जब वे किसी दूसरे तत्व के सम्पर्क में आये। जब नमक को किसी खाद्य पदार्थ पर लगाया जाता है तो वह परिरक्षक का कार्य करता है। जब खाने में डाला जाता है तो वह स्वाद बढाता है इसी प्रकार जब उसे चोटिली जगह पर लगाया जाता है तो वह चोट को ठीक करने का कार्य करता है। येसु अपने शिष्यों को पृथ्वी का नमक कहकर संबोधित हैं। लेकिन नमक के समान बिना किसी के सम्पर्क में आये इन शिष्यों का आध्यत्मिक नमक अंजान ही रह जायेगा। एकांत में नमक या इन शिष्यों की गुणवत्ता शायद ही किसी के काम आये। जब शिष्य लोगों के बीच रह कर अपनी आध्यात्मिक लवणता को अपने आचारण में ढालता है तभी उसकी लवणता का पता चलता तथा उसकी गुणवता का उपयोग होता है।

हमारे आध्यात्मिक नमक को प्रभावशाली बनाने के लिये उसे अपनी परिस्थितियों तथा कार्यप्रणाली में लागू किया जाना चाहिये। ऐसा करने से तनाव एवं दबाव की स्थिति बन जाती है क्योंकि संसार की संस्कृति और मूल्यों में आध्यात्मिक लवणता का ज्यादा महत्व नहीं होता है। कभी-कभी शायद हमारी इस आध्यात्मिकता की सराहना भी की जाती है लेकिन हमें उन सभी अवसरों के लिये तैयार रहना चाहिये जब इसका विरोध किया जाता है। जब हमारे दया, शांति तथा न्याय के कार्यों के कारण हमारी खुद की स्वतंत्रता तथा सुरक्षा खतरे में पड जाती है तब हम क्या करेंगे?

दुनिया से भाग जाना हमारी समस्याओं का उत्तर नहीं है। दुनिया मे ख्रीस्तीय लवणता के साथ जीना काफी कठिन काम है तथा येसु ने इस संभावना को स्वीकार भी किया है। लेकिन हमें सारी परिस्थितियों में अपने खारेपन को बनाये रखना चाहिये। यह संतुलन का वह कार्य है जिसे करने के लिये हम बुलाये गये है।

जब हम विनम्रता तथा ईश्वरीय समर्पण में सही संबंधों, दयालुता के कार्य, तथा शांति की स्थापना के लिये कार्य करते है तो हम लोगों के लिये आशिष बन जाते हैं। समय आने पर हमारी आध्यात्मिक लवणता को लोग महसूस करते तथा उसके प्रभाव को स्वीकारते हैं। हम अपने परिवारों, कार्यालयों, पल्लियों, समाज तथा देश में पृथ्वी के नमक तथा संसार की ज्योति है

-फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल


📚 REFLECTION

Salt is very essential to our food or eating habits. Without salt the food remains tasteless. Salt in it possesses a number of qualities such as, preservative, saltiness, healing elements etc. However, all these elements are visible and viable only when it comes in contact with other things.When salt is applied to a food items it preserves, when added to food it brings taste and when applied to a damaged portion it brings healing. Jesus calls his disciples ‘you are the salt of the earth. It truly is. But without corelating or connecting to others who will know the ‘spiritual saltiness of a disciple. In isolation it merely remains an ineffective commodity or disciple.It is when a disciple exercises his saltiness with the world,he lives in he brings its effect into reality.

To be effective, we must be involved where we work and where we live. This creates tension and pressure because the secular world with its own styles and ethos need not necessarily like us.

Sometimes practicing saltiness may yield rewards and appreciation. But we need to be prepared for the times it doesn’t. What will we do if showing mercy, making peace, or working for justice jeopardizes our position at work? Withdrawing from the world is no answer for Christians. It becomes really difficult to live in the world, and Jesus acknowledged the reality of persecution. But in our contacts with the culture, we must retain our “saltiness,” our distinctiveness.

It’s a balancing act we’re called upon to maintain. When in humility and submission to God, we work for right relations, for merciful actions, and for peace, we become as people of blessing. And sooner or later people realise this fact. We are salt and light—in the workplace, in our homes, in our church communities and in our nation.

-Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal


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Praise the Lord!