वर्ष - 2, ग्यारहवाँ सप्ताह, शनिवार

पहला पाठ :दूसरा इतिहास ग्रन्थ 24:17-25

17) यूदा के नेताओं ने यहोयादा की मृत्यु के बाद राजा के पास आ कर उसे दण्डवत् किया। राजा ने उनकी बात मान ली।

18) लोगों ने प्रभु, अपने पूर्वजों के ईश्वर का मन्दिर त्याग दिया और वे अशेरा-देवियो तथा देवमूर्तियों की पूजा करने लगे। इस अपराध के कारण ईश्वर का क्रोध यूदा तथा येरुसालेम पर भड़क उठा।

19) उसने नबियों को भेजा, जिससे वे उन्हें प्रभु के पास वापस ले आयें, किन्तु लोगों ने नबियों का सन्देश सुन कर उस पर ध्यान नहीं दिया।

20) ईश्वर के आत्मा ने याजक यहोयादा क पुत्र ज़कर्या को प्रेरित किया और उसने जनता के सामने खड़ा हो कर कहा, ‘‘ईश्वर यह कहता है- तुम लोग क्यों प्रभु की आज्ञाओं का उल्लंघन करते हो? इस में तुम्हारा कल्याण नहीं है। तुम लोगों ने प्रभु को त्याग दिया, इसलिए वह भी तुम्हें त्याग देगा।"

21) इसके बाद सब लोगों ने मिल कर उसका विरोध किया और राजा के आदेश से उसे प्रभु के मन्दिर के प्रांगण में पत्थरों से मार डाला।

22) राजा योआश ने ज़कर्या के पिता यहोयादा के सब उपकारों को भुला कर उसके पुत्र ज़कर्या को मरवा डाला। ज़कर्या ने मरते समय यह कहा, ‘‘प्रभु देख रहा है और इसका बदला चुकायेगा’’।

23) वर्ष के अन्त में अमोरियों की सेना योआश पर आक्रमण करने निकली। उसने यूदा और येरुसालेम में प्रवेश कर जनता के सब नेताओं का वध किया और लूट का सारा माल दमिष्क के राजा के पास भेज दिया।

24) अरामी सैनिकों की संख्या अधिक नहीं थी, फिर भी प्रभु ने एक बहुत बड़ी सेना को उनके हवाले कर दिया; क्योंकि उन्होंने अपने पूर्वजों के प्रभु-ईश्वर को त्याग दिया था। योआश को भी उचित दंड भोगना पड़ा। जब अरामियों की सेना योआश को घोर संकट में छोड़ कर चली गयी,

25) तो उसके दरबारियों ने उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रच कर उसे उसके पलंग पर मारा; क्योंकि उसने याजक यहोयादा के पुत्र का रक्त बहाया था। वह मर गया और दाऊदनगर में दफ़नाया गया, किन्तु वह राजाओं के मक़बरे में नहीं रखा गया।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 6:24-34

24) ’’कोई भी दो स्वामियों की सेवा नहीं कर सकता। वह या तो एक से बैर और दूसरे से प्रेम करेगा, या एक का आदर और दूसरे का तिरस्कार करेगा। तुम ईश्वर और धन-दोनों की सेवा नहीं कर सकते।

25) मैं तुम लोगों से कहता हूँ, चिन्ता मत करो- न अपने जीवन-निर्वाह की, कि हम क्या खायें और न अपने शरीर की, कि हम क्या पहनें। क्या जीवन भोजन से बढ कर नहीं ? और क्या शरीर कपडे से बढ़ कर नहीं?

26) आकाश के पक्षियों को देखो। वे न तो बोते हैं, न लुनते हैं और न बखारों में जमा करते हैं। फिर भी तुम्हारा स्वर्गिक पिता उन्हें खिलाता है, क्या तुम उन से बढ़ कर नहीं हो?

27) चिंता करने से तुम में से कौन अपनी आयु घड़ी भर भी बढा सकता है?

28) और कपडों की चिन्ता क्यों करते हो? खेत के फूलों को देखो। वे कैसे बढ़ते हैं! वे न तो श्रम करते हैं और न कातते हैं।

29) फिर भी मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि सुलेमान अपने पूरे ठाट-बाट में उन में से एक की भी बराबरी नहीं कर सकता था।

30) रे अल्पविश्वासियों! खेत की घास आज भर है और कल चूल्हे में झोंक दी जायेगी। यदि उसे भी ईश्वर इस प्रकार सजाता है, तो वह तुम्हें क्यों नहीं पहनायेगा?

31) इसलिए यह कहते हुए चिंता मत करो- हम क्या खायें, क्या पियें, क्या पहनें।

32) इन सब चीजों की खोज में गैर-यहूदी लगे रहते हैं। तुम्हारा स्वर्गिक पिता जानता है कि तुम्हें इन सभी चीजों की ज़रूरत है।

33) तुम सब से पहले ईश्वर के राज्य और उसकी धार्मिकता की खोज में लगे रहो और ये सब चीजें, तुम्हें यों ही मिल जायेंगी।

34) कल की चिन्ता मत करो। कल अपनी चिन्ता स्वयं कर लेगा। आज की मुसीबत आज के लिए बहुत है।


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