वर्ष - 2, बारहवाँ सप्ताह, मंगलवार

पहला पाठ :राजाओं का दुसरा ग्रन्थ 19:9b-11,14-21,31-35a,36

9) अस्सूर के राजा ने फिर से हिज़कीया के पास दूतों को भेजते हुए उस से कहा,

10) ‘‘यूदा के राजा हिज़कीया से यह कहोगेः तुम अपने ईश्वर का भरोसा करते हो, जो तुम्हें यह आश्वासन देता है कि येरुसालेम अस्सूर के राजा के हाथ नही पड़ेगा। इस प्रकार का धोखा मत खाओ।

11) तुमने सुना है कि अस्सूर के राजाओं ने सब देशों का सर्वनाश किया है, तो तुम कैसे बच सकते हो?

14) हिज़कीया ने दूतों के हाथ से पत्र ले कर पढ़ा। इसके बाद उसने मन्दिर जा कर उसे प्रभु के सामने खोल कर रख दिया।

15) तब हिज़कीया ने प्रभु से इस प्रकार प्रार्थना की: ‘‘प्रभु ! इस्राएल के ईश्वर ! तू केरूबीम पर विराजमान है। तू पृथ्वी भर के सब राज्यों का एकमात्र ईश्वर है। तुने स्वर्ग और पृथ्वी को बनाया है।

16) प्रभु! तू कान लगा कर सुन! प्रभु! तू आँखें खोल कर देख! सनहेरीब के शब्द सुन, जिनके द्वारा उसने जीवन्त ईश्वर का अपमान किया है।

17) प्रभु! यह सच है कि अस्सूर के राजाओं ने राष्ट्रों का सर्वनाश किया और

18) उनके देवताओं को जलाया है। वे देवता नहीं, बल्कि मुनष्यों द्वारा निर्मित लकड़ी और पत्थर की मूर्तियाँ मात्र थे। इसलिए वे उन्हें नष्ट कर सके।

19) प्रभु! हमारे ईश्वर! हमें उसके पंजे से छुड़ा, जिससे पृथ्वी भर के राज्य यह जान जायें कि प्रभु! तू ही ईश्वर है।’’

20) उस समय आमोस के पुत्र इसायाह ने हिज़कीया के पास यह कहला भेजा, ‘‘प्रभु, इस्राएल का ईश्वर यह कहता हैः मैंने अस्सूर के राजा सनहेरीब के विषय में तुम्हारी प्रार्थना सुनी है।

21) सनहेरीब के विरुद्ध प्रभु का कहना इस प्रकार है- सियोन की कुँवारी पुत्री तुम्हारा तिरस्कार ओर उपहास करती है। येरुसालेम की पुत्री तुम्हारी पीठ पीछे सिर हिलाती है।

31) येरुसालेम से एक अवशेष निकलेगा और सियोन पर्वत से बचे हुए लोगों का एक दल। विश्वमण्डल के प्रभु का अनन्य प्रेम यह कर दिखायेगा।

32) इसलिए अस्सूर के राजा के विषय में प्रभु यह कहता हैः वह इस नगर में प्रवेश नहीं करेगा और इस पर एक बाण भी नहीं छोड़ेगा। वह ढाल ले कर उसके पास नहीं फटकेगा ओर उसकी मोरचाबन्दी नहीं करेगा

33) वह जिस रास्ते से आया, उसी से वापस जायेगा। वह इस नगर में प्रवेश नहीं करेगा। यह प्रभु की वाणी है।

34) मैं अपने नाम ओर अपने सेवक दाऊद के कारण यह नगर बचा कर सुरक्षित रखूँगा।’’

35) उसी रात प्रभु के दूत ने आ कर अस्सूर के राजा के शिविर में एक लाख पचासी हज़ार लोगों को मारा।

36) अस्सूर का राजा सनहेरीब शिविर उठा कर अपने देश लौटा और निनिवे में रहा।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 7:6,12-14

6) ’’पवित्र वस्तु कुत्तों को मत दो और अपने मोती सूअरों के सामने मत फेंको। कहीं ऐसा न हो कि वे उन्हें अपने पैरों तले कुचलदें और पलट की तुम्हें फाड़ डालें।

12) ’’दूसरों से अपने प्रति जैसा व्यवहार चाहते हो, तुम भी उनके प्रति वैसा ही किया करो। यही संहिता और नबियों की शिक्षा है।

13) ’’सॅकरे द्वार से प्रवेश करो। चैड़ा है वह फाटक और विस्तृत है वह मार्ग, जो विनाश की ओर ले जाता है। उस पर चलने वालों की संख्या बड़ी है।

14) किन्तु सॅकरा है वह द्वार और संकीर्ण है वह मागर्, जो जीवन की ओर ले जाता है। जो उसे पाते हैं, उनकी संख्या थोड़ी है।

📚 मनन-चिंतन

हम अपने दैनिक जीवन में अनेक निर्णय लेते है। ये सभी निर्णय हमें और हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। वास्तव में हमारा जीवन उन सभी निर्णयों का समूह है जो हम करते हैं। यदि हम किसी के जीवन का मूल्यांकन करना चाहते हैं तो हमें उन सारे निर्णयों को देखना चाहिये जो उन्होंने जीवन में किये हैं। हमें डर पर विश्वास का, उठने का या सोने का, प्रार्थना करने का नहीं करने का, संतुलित भोजन करने या नहीं करने का, ईश्वर के वचनों पर विश्वास करने या नहीं करने का जैसे सैकडों निर्णय लेने पडते हैं। हमारे पास विकल्प होते तथा उन विकल्पों में से जो उचित जान पडता है उसे चुनना पडता है। कुछ निर्णयों से आंशिक प्रभाव पडता किन्तु कुछ दूरगामी प्रभाव डालते हैं। साधारणः एक व्यक्ति लगभग 750,000 निर्णय अपने जीवनकाल में लेता है। तो हम निर्णय लेने के इतने आदि हो जाते हैं कि उनके प्रभाव के बारे में मुश्किल से सोचते हैं।

येसु हमें संकीर्ण दरवाजे को चुनने का विकल्प देते हैं। प्रारंभ में संकीर्ण द्वार दिखता नहीं है। येसु कहते हैं, ’’बिरले ही उसे पाते हैं।’’ दूसरे शब्दों में कह सकते है कि बडा दरवाजा दिखता हैं किन्तु संकीर्ण द्वार को खोजना पडता है। संकीर्ण द्वार नाम से ही इस बात को सूचित करता है कि यह एक कठिन निर्णय होगा। दूसरों के द्वारा प्रताडित होने पर उन्हें अपना दूसरा गाल भी दिखाना बहुत मुश्किल काम होता है। जो हमसे नफरत करते हैं उन्हें प्रेम करना, दूसरों की गलतियों को माफ करना, आदि बहुत ही मुश्किल काम है। लेकिन इसे तो मुश्किल होना ही है। यदि यह आसान होता तो सभी लोग इसे कर सकते थे। मुश्किल ही किसी काम को महान बनाता है। धर्मग्रंथ हमें बताता है, ’’हमें बहुत से कष्ट सह कर ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना है।’’ (प्रेरित चरित 14:22) दुनिया ईश्वर के पास पहुॅचने के लिये दूसरे अन्य आसान तरीके सुझाती है लेकिन हमें येसु की बतायी शिक्षा पर ही दृढ बने रहना चाहिये। केवल एक ही रास्ता है और येसु वह मार्ग हमें बताते हैं, ’’मार्ग, सत्य और जीवन मैं हॅू। मुझ से होकर गये बिना कोई पिता के पास नहीं आ सकता।’’ (योहन 14:6)

इसलिये ईश्वर तक पहुॅचने के लिये दूसरे अन्य मार्ग नहीं है बल्कि केवल एक ही मार्ग है और वह है येसु। यह सत्य है कि संकीर्ण मार्ग कठिन है तथा इसकी सीमायें ईश्वर वचन में स्पष्ट रूप से रेखांकित है और सारी कठिनता के बावजूद भी यही वह मार्ग है जो अंनत जीवन की ओर ले जाता है तथा जिसका हमें अनुकरण करना चाहिये।

ईश्वर कभी किसी के लिये वह मार्ग नहीं चुना तो विनाश और नर्क की ओर ले जाता है। उसे हम चुनते है। ईश्वर ने मनुष्य के लिये नर्क का निमार्ण नहीं किया वह तो शैतान के लिये बनायी गयी थी (मत्ती 25:41) ईश्वर केवल हमें विकल्प प्रदान करते हैं और उसमे ंसे चुनना हमारी स्वतंत्रता पर निर्भर करता है।

-फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल


📚 REFLECTION

Life is filled with choices. In fact, life is the sum total of choices we have made over the years. You show me your life I will know the choices you have made. We have to make a choice of faith over fear, to get up out of bed or continue; to go to church or not; to pray or not; to eat healthy or not or whether or not following and trusting God at His word is worth it etc. each day we are confronted with choices. Some have little impact, while others significantly change the course of our lives. It is said that an average person makes around 750,000 decisions in a lifetime. So, we are used to making choices but hardly realising the impact of them on our life.

The Lord asks us to make a choice to enter by the narrow gate.Initially, the narrow way isn’t seen by most. Jesus said, “There are few who find it.” In other words, unlike the wide way, the narrow way must be sought out.

The narrow gate by its names or description itself suggests that it a hard choice. It isn’t easy following the narrow way. It’s hard to turn the other cheek when someone does us wrong. It’s hard to love those who hate us. And it’s not easy not to judge or forgive others over the wrong that they have done. Of course, it is hard. It’s supposed to be hard. If it was easy everyone would do it. Hard is what makes it great. The Bible says, “Through many tribulations we must enter the kingdom of God.” (Acts 14:22)

And so, while the world promotes all these different ways to get to God, let us not be deceived. There is only one way, and Jesus tells us the way.

“I am the way, the truth, and the life. No one comes to the Father except through Me.” (John 14:6)

So, there aren’t all these different pathways to God, there is only one, and that is Jesus. Yes, the narrow way is hard, and its boundaries are clearly marked out in God’s word, but still it’s a way we must seek out and strive after, because it leads to eternal life.

God never chooses anyone to travel on the wide way that leads to destruction and hell. We choose it. God never made hell for humanity; rather hell was created for Satan and the fallen angels (Matthew 25:41). And so, God gives to us a choice, and this has always been the way of God.

-Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal


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Praise the Lord!