वर्ष - 2, बारहवाँ सप्ताह, शनिवार

पहला पाठ : शोक गीत 2:2,10-14,18-19

2) प्रभु ने निर्दयतापूर्वक याकूब के सब घरों नो नष्ट कर दिया है। उसने क्रोध के आवेश में आ कर यूदा की पुत्री के सब गढ़ों को ढा दिया है। उसने उसके राज्य और उसके शासकों को अपमानित किया और मिट्टी में मिला दिया है।

10) सियोन के नेता मौन हो कर धरती पर बैठे हैं- अपने सिर पर धूल डाले, टाट के कपड़े ओढे़। येरुसालेम की कुमारियाँ सिर झुकाये बैठी रहती हैं।

11) मेरी आँखें आँसू बहाते-बहाते बुझ गयी हैं। अपनी प्रजा की पुत्री के घाव के कारण मेरी अँतडियाँ ऐंठ रही हैं। मेरा हृदय पिघलता है, जब बालक और दुधमुँहे बच्चे नगर की गलियों में मूच्र्छित हो जाते हैं।

12) वे अपनी माताओं से पूछते हैं, “रोटी कहाँ है?“ वे घायलों की तरह नगर की गलियों में बेहोश हो जाते हैं और अपनी माता की गोद में प्राण त्याग देते हैं।

13) येरुसालेम की पुत्री! मैं तुम्हारी तुलना किस से करूँ? तुम किसके सदृश हो? सियोन की पुत्री! तुम्हें कौन बचा सकता और सान्त्वना दे सकता है, क्योंकि तुम्हारी विपत्ति समुद्र की तरह अपार हैं? तुम्हें कौन स्वस्थ करेगा?

14) तुमहारे नबियों ने तुम्हें असत्य और भड़कीले दृश्य दिखाये। उन्होंने तुम्हारा भाग्य बदलने के लिए तुम्हारा पाप प्रकट नहीं किया। उन्होंने तुम्हें व्यर्थ और भ्रामक भवियवाणियाँ सुनायीं।

18) तुम सारे हृदय से प्रभु, सियोन के रक्षक, की दुहाई दो। तुम्हारे आँसू दिन-रात नदी की तरह बहते रहें। तुम नहीं रुको, निरन्तर रोते रहो।

19) उठो, रात में चिल्लाओ। पहले पहर में अपना हृदय पानी की तरह बहा दो। अपने बच्चों के प्राण बचाने के लिए प्रभु के सामने हाथ उठा कर प्रार्थना करो। वे गलियों के नुक्कड़ों पर भूख के कारण बेहोश पड़े हैं।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 8:5-17

5) ईसा कफरनाहूम में प्रवेश कर ही रहे थे कि एक शतपति उनके पास आया और उसने उन से यह निवेदन किया,

6) ’’प्रभु! मेरा नौकर घर में पड़ा हुआ है। उसे लक़वा हो गया है और वह घोर पीड़ा सह रहा है।’’

7) ईसा ने उस से कहा, ’’मैं आ कर उसे चंगा कर दूँगा’’।

8) शतपति नें उत्तर दिया, ’’प्रभु! मैं इस योग्य नहीं हूँ कि आप मेरे यहाँ आयें। आप एक ही शब्द कह दीजिए और मेरा नौकर चंगा हो जायेगा।

9) मैं एक छोटा-सा अधिकारी हूँ। मेरे अधीन सिपाही रहते हैं। जब मैं एक से कहता हूँ- ’जाओ’, तो वह जाता है और दूसरे से- ’आओ’, तो वह आता है और अपने नौकर से-’यह करो’, तो वह यह करता है।’’

10) ईसा यह सुन कर चकित हो गये और उन्होंने अपने पीछे आने वालों से कहा, ’’मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ-इस्राएल में भी मैंने किसी में इतना दृढ़ विश्वास नहीं पाया’’।

11) ’’मैं तुम से कहता हूँ- बहुत से लोग पूर्व और पश्चिम से आ कर इब्राहीम, इसहाक और याकूब के साथ स्वर्गराज्य के भोज में सम्मिलित होंगे,

12) परन्तु राज्य की प्रजा को बाहर, अन्धकार में फेंक दिया जायेगा। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।’’

13) शतपति से ईसा ने कहा, ’’जाइए आपने जैसा विश्वास किया, वैसा ही हो जाये।’’ और उस घड़ी उसका नौकर चंगा हो गया।

14) पेत्रुस के घर पहुँचने पर ईसा को पता चला कि पेत्रुस की सास बुखार में पड़ी हुई है।

15) उन्होंने उसका हाथ स्पर्श किया और उसका बुखार जाता रहा और वह उठ कर उनके सेवा-सत्कार में लग गयी।

16) संध्या होने पर लोग बहुत-से अपदूतग्रस्तों को ईसा के पास ले आये। ईसा ने शब्द मात्र से अपदूतों को निकाला और सब रोगियों को चंगा किया।

17) इस प्रकार नबी इसायस का यह कथन पूरा हुआ- उसने हमारी दुर्बलताओं को दूर कर दिया और हमारे रोगों को अपने ऊपर ले लिया।

📚 मनन-चिंतन

शतपति येसु को निश्चित ही जानता था। उसने येसु की शक्ति एवं अधिकार के बारे में सुना था इसलिये वह उनके पास जाता है। वह बोले गये शब्दों के प्रभाव तथा शक्ति से परिचित था। वह एक शतपति के पद पर नियुक्त अधिकारी था। उसके अधिनस्थ लोग थे। शतपति अपने अधिनस्थ लोगों को आदेश देता था तथा वे उसके आदेशानुसार काम करते थे। कोई भी उसके आदेशों की अवहेलना नहीं कर सकता था। वह जानता था जिस प्रकार उसके शाब्दिक आदेश शक्तिशाली होते है उसी प्रकार येसु यदि आदेश देंगे तो उनके शब्द भी पूरे होंगे। अपने अधिकारी पद से प्रेरणा पाकर वह जानता था कि येसु जो आध्यात्मिक स्वामी है उन सभी शक्तियों जैसे रोग, अपदूत, अभाव, मृत्यु आदि जैसी शक्तियों पर नियंत्रण रखते हैं। इसलिये उसका निवेदन केवल इतना था कि येसु अपने शब्द मात्र से उसकी आवश्यकता पूरी कर दे। येसु को शारारिक रूप से आकर बीमार व्यक्ति को देखने या छूने की आवश्यकता नहीं थी। यह बात शतपति के गहरे विश्वास की अभिव्यक्ति थी क्योंकि उसे येसु के अधिकार और प्रभुत्व की गहरी तथा व्यापक समझ थी।

उसके इस विश्वास तथा समझ ने येसु को यह कहने के लिये प्रेरित किया ऐसा विश्वास सारे इस्राएल में नहीं है। येसु ने उसे इस प्रकार क्यों महिमानवित किया? उस शतपति का सरल विश्वास एवं स्वीकारोक्ति कि येसु को सारी शक्तियों पर प्रभुत्व प्राप्त है। उसका यह विश्वास विवेकी, तर्कसंमपन्न तथा यथार्तवादी था। सरल शब्दों में उसका विश्वास इतना ही था कि येसु सब कुछ के प्रभु तथा सबकुछ कर सकते हैं। तत्कालीन यहूदियों ने सब देखते तथा जानते हुये भी इस सत्य को स्वीकारा नहीं कि येसु का जीवन तथा मृत्यु तथा उनसे जुडी सारी बातों पर अधिकार था। वे इसे हमेशा नकारते तथा विरोध करते रहे कि ईश्वर की शक्ति एवं सामर्थ्य येसु के साथ था। लेकिन इस शतपति पर विश्वास तथा कृपा प्राप्त करने के सारे गुण तथा ज्ञान मौजूद थे।

-फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल


📚 REFLECTION

Centurion definitely knew about Jesus. He had heard of Jesus’s power and authority, and so turned to Him for help. He was aware of power and authority of the spoken word. He being a centurion was an officer. He had people under him. The centurion commanded men to do things physically possible, and had the authority to make them do it in some cases with threats of punishment or discipline. No one would dare to neglect or underestimate the power and authority of his spoken words. He was a man who understood the power of authoritative commands, and who recognized that Jesus had that power.But Jesus had the authority to command things physically impossible, things beyond human capacity, diseases, demons, dead people, and the like. He understood the divine power of Jesus over sickness and diseases.

So, his request was that Jesus would speak the word only. Jesus did not have to come and see the sick man. He did not have to lay hands on him. He simply had to speak. This indicates the centurion’s tremendous faith, but it is only a tremendous faith because he considered the authority of Jesus. He believed that Jesus had so much power and authority that His word would be sufficient for the healing.

And this prompted Jesus to express His amazement at the faith of this man, a faith unequalled in Israel.What was it that Jesus found so amazing about this man’s faith? Perhaps it was the simple acceptance of Christ as the sovereign commander of life and all its aspects. Or perhaps it was the fact that it was so intelligent, so well reasoned and logical. Or in the final analysis, it may be that he simply accepted the fact that Jesus had authority. The majority of Jews did not accept that Jesus had authority over life and death, that He came in the full power of God. But this man apparently did.

-Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal


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