वर्ष - 2, तेरहवाँ सप्ताह, मंगलवार

पहला पाठ : आमोस 3:1-8; 4:11-12

1) इस्राएलियों! सुनो! प्रभु तुम से, उस समस्त प्रजा से, जिसे वह मिस्र से निकाल लाया है, यह कहता हैः

2) "मैंने पृथ्वी के सब राष्ट्रों में से तुम लोगों को ही चुना है। इसलिए मैं तुम्हारे अपराधों के कारण तुम्हें दण्डित करूँगा।

3) "क्या दो व्यक्ति साथ-साथ यात्रा करेंगे, जब तक उन्होंने पहले से तय न कर दिया हो?

4) क्या सिंह जंगल में गरजता है, जब तक उसे शिकार न मिला हो? क्या सिंह-शावक अपनी माँद में गुर्राता है, जब तक उसे कुछ न मिला हो? क्या पक्षी पृथ्वी पर फंदे में पडता है, जब उस में कोई चारा नहीं हो?

5) क्या फन्दा ज़मीन पर से उछलता है, जब तक उस में शिकार न आया हो?

6) क्या नगर में सिंघे की आवाज सुनाई देगी और लोग डरेंगे नहीं? क्या नगर पर ऐसी विपत्ति आ सकती है, जिसे प्रभु ने वहाँ न भेजा हो?

7) क्योंकि प्रभु-ईश्वर नबियों, अपने सेवकों को सूचना दिये बिना कुछ नहीं करता।

8) सिंह गरजा है, तो कौन नहीं डरेगा? प्रभु-ईश्वर बोला है, तो कौन भवियवाणी नहीं करेगा?"

4छ11) "जिस प्रकार ईश्वर ने सोदोम और गोमोरा का सर्वनाश किया था, उसी प्रकार मैंने तुम पर विपत्ति भेजी है। तुम आग में से निकाली हुई लुआठी-जैसे बन गये थे। फिर भी तुम मेरे पास नहीं लौटे।" यह प्रभु की वाणी है।

12) "इस्राएल! इसलिए मैं तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार करूँगा। और क्योंकि मैं तुम्हारे साथ ऐसा व्यवहार करूँगा, इस्राएल! तुम अपने ईश्वर के सामने आने के लिए तैयार हो जाओ।"

सुसमाचार : मत्ती 8:23-27

23) ईसा नाव पर सवार हो गये और उनके शिष्य उनके साथ हो लिये।

24) उस समय समुद्र में एकाएक इतनी भारी आँधी उठी कि नाव लहरों से ढकी जा रही थी। परन्तु ईसा तो सो रहे थे।

25) शिष्यों ने पास आ कर उन्हें जगाया और कहा, प्रभु! हमें बचाइए! हम सब डूब रहे हैं!

26) ईसा ने उन से कहा, अल्पविश्वासियों! डरते क्यों हो? तब उन्होंने उठ कर वायु और समुद्र को डाँटा और पूर्ण शाति छा गयी।

27) इस प्रर वे लोग अचम्भे में पड कर, बोल उठे, "आखिर यह कौन है, वायु और समुद्र भी इनकी आज्ञा मानते है।"

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार में हम येसु के अपने शिष्यों के साथ नाव में यात्रा करने के वर्णन को पाते हैं। इसी दौरान तूफान तथा तेज हवायें नाव को डुबाने लगती है। शिष्य इस विपदा से घबरा जाते हैं तथा वे येसु को जो सो रहे थे को जगा कर कहते हैं, ’’प्रभु हम डुब रहें हैं क्या आपको इसकी चिंता नहीं।’’ येसु उठकर आंधी-तूफान को शांत करते हैं।

अब एक प्रश्न उठता है। जब येसु आंधी-तूफान को शांत कर सकते थे तो क्या उनको यह जानकारी नहीं थी कि तूफान भी आने वाला है! येसु निश्चित तौर पर जानते थे कि शीघ्र ही एक बडा तूफान उनका इंतजार कर रहा है। इसके बावजूद भी उन्होंने अपने शिष्यों ने इस बारे में पहले से सचेत नहीं किया। इस प्रकार वे शिष्यों को एक निश्चित तूफान की ओर ले चले।

जब हम ईश्वर का अनुसरण करते हैं तथा वहॉ जाते हैं जहॉ वह हमें ले जाना चाहता है तो हमें संघर्षों और परीक्षाओं से गुजरना पडता है। यह ईश्वर की योजना का हिस्सा होता है। ईश्वर उन सभी संघर्षों और परीक्षाओं के द्वारा हमारा निमार्ण करता तथा हमें उसकी योजना अनुसार ढालता है। वह हमारे संघर्षों के दौर के द्वारा उसकी संसार पर अपनी महिमा भी प्रकट करना चाहता है।

येसु एक उददेश्य हेतु उन्हंे तूफान का सामना करने के लिये जानबूझ कर ले चले। वे उनका विश्वास बढाना चाहते थे, वे उन्हें बताना चाहते थे कि वे कौन है! संत याकूब बताते हैं, 2) ’’जब आप लोगों को अनेक प्रकार की विपत्तियों का सामना करना पड़े, तो अपने को धन्य समझिए। आप जानते हैं कि आपके विश्वास का इस प्रकार का परीक्षण धैर्य उत्पन्न करता है। धैर्य को पूर्णता तक पहुँचने दीजिए, जिससे आप लोग स्वयं पूर्ण तथा अनिन्द्य बन जायें और आप में किसी बात की कमी नहीं रहे।’’ (याकूब 1ः2-4) ईश्वर जीवन के तूफानों के द्वारा हमें परिपक्व बनाता है जिससे हमारे विश्वास में कोई कमी न रह जाये तथा समझदार बने। जितना हम तूफानों का सामना करते हैं उतना ही येसु की उपस्थित का अहसास होता है क्योंकि वास्तव में वे तूफानों का शांत करते हैं। वे हमें सिखाते है तथा हर बार हम से पूछते हैं, क्या तुम विश्वास करते हो?’’ आईये हम भी अपने जीवन के संघर्षों सामना येसु के साथ करें।

-फादर रोनाल्ड वाँन, भोपाल


📚 REFLECTION

In today’s gospel we have the incident of the boat carrying Jesus and the disciples getting in the middle of the storm. The disciples were terrified and panicked to the point of death so in their desperation they called to the Lord, “Lord don’t you care for we are perishing!” The Lord calmed the storm and rebuked the wind.

Now a matter to be considered is, if the Lord had the power to calm the winds and storm then when he got into the boat, he definitely knew that the storm would also be coming. Lord for sure knew that a big wind and storm are on the way yet he didn’t warn the disciples. Above all why to make a journey at all if the storms are on the way? In fact he led into the storm.

As we follow where God leads us, we encounter trials and struggles, but that's part of the plan! God uses those trials to shape and mould us into the people He desires for us to become. Through these trials and struggles he wants that His glory to be revealed to the world!

Jesus led them into those storms on purpose… to grow their faith… and to help them see and understand who He really is… Yet there is another purpose for these trial.

James 1:2-4 says “…whenever you face trials of any kind, consider it nothing but joy, because you know that the testing of your faith produces endurance; and let endurance have its full effect, so that you may be mature and complete, lacking in nothing.”

God leads us into these trials so that we can become mature and complete. So that we are lacking nothing in our walk with the Lord. God continues to test us using these trials. He continues to ask time-after-time, “Do you trust Me?”

-Rev. Fr. Ronald Vaughan, Bhopal


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Praise the Lord!