वर्ष - 2, तेरहवाँ सप्ताह, बुधवार

पहला पाठ : आमोस का ग्रन्थ 5:14-15,21-24

14) बुराई की नहीं, बल्कि भलाई की खोज में लगे रहो। इस प्रकार तुम्हें जीवन प्राप्त होगा और विश्वमण्डल का प्रभु-ईश्वर तुम्हारे साथ होगा, जैसा कि तुम उसके विषय में कहते हो।

15) बुराई से बैर करो, भलाई से प्रेम रखो और अदालत में न्याय बनाये रखो। तब हो सकता है कि विश्वमण्डल के प्रभु-ईश्वर यूसुफ के बचे हुए लोगों पर दया करे।

21) ’’मैं तुम्हारे पर्वों से बैर और घृणा करता हूँ। तुम्हारे धार्मिक समारोह मुझे नहीं सुहाते।

22) मैं तुम्हारे होम और नैवेद्य स्वीकार नहीं करता और तुम्हारे द्वारा चढाये हुए मोटे पशुओं के शांति-बलिदानों की ओर नहीं देखता।

23) अपने गीतों को कोलाहल मुझ से दूर करो। मैं तुम्हारी सारंगियों की आवाज़ सुनना नहीं चाहता।

24) न्याय नदी की तरह बहता रहे और धर्मिकता कभी न सूखने वाली धारा की तरह।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 8:28-34

28) जब ईसा समुद्र के उस पार गदरेनियों के प्रदेश पहुँचे, तो दो अपदूत ग्रस्त मनुष्य मक़बरों से निकल कर उनके पास आये। वे इतने उग्र थे कि उस रास्ते से कोई भी आ-जा नहीं सकता था।

29) वे चिल्ला उठे, ’’ईश्वर के पुत्र! हम से आपको क्या ? क्या आप यहाँ समय से पहले हमें सताने आये हैं?’’

30) वहाँ कुछ दूरी पर सुअरों का एक वड़ा झुण्ड चर रहा था।

31) अपदूत यह कहते हुए अनुनय-विनय करते रहे, ’’यदि आप हम को निकाल ही रहे हैं, तो हमें सूअरों के झुण्ड में भेज दीजिए’’।

32) ईसा ने उन से कहा, ’’जाओ’’। तब अपदूत उन मनुष्यों से निकल कर सूअरों में जा घुसे और सारा झुण्ड तेज़ी से ढाल पर से समुद्र में कूद पड़ा और पानी में डूब कर मर गया।

33) सूअर चराने वाले भाग गये और जा कर पूरा समाचार और अपदूत ग्रस्तों के साथ जो कुछ हुआ, यह सब उन्होंने नगर में सुनाया।

34) इस पर सारा नगर ईसा से मिलने निकला और उन्हें देखकर लोगों ने निवेदन किया कि वह उनके प्रदेश से चले जायें।

📚 मनन-चिंतन

आज के पहले पाठ के माध्यम से, नबी अमोस इस पर जोर देना चाहते हैं कि अनुष्ठान और बलिदान की तुलना में न्याय और ईमानदारी अधिक महत्वपूर्ण है। न्याय और ईमानदारी के बिना हमारे बलिदान स्वीकार्य नहीं होंगे। सूक्ति 15: 8 में हम पढ़ते हैं, "प्रभु को पापियों के बलिदान से घृणा है, किन्तु उसे धर्मियों की प्रार्थना प्रिय है।" हम कुछ धार्मिक अनुष्ठानों से अपने पाप को ढ़क नहीं सकते। हम अनैतिक रूप से धन अर्जित कर उसे कुछ प्रार्थना या भेंट के द्वारा वैध नहीं बना सकते हैं। अनुचित रूप से अर्जित धन की भेंट से प्रभु प्रसन्न नहीं होते हैं।

सूक्ति 21: 3 में हम पढ़ते हैं, "बलिदान की अपेक्षा सदाचरण और न्याय प्रभु की दृष्टि में कहीं अधिक महत्व रखते हैं"। इसायाह 1:15 में, प्रभु कहते हैं, “जब तुम अपने हाथ फैलाते हो, तो मैं तुम्हारी ओर से आँख फेर लेता हूँ। मैं तुम्हारी असंख्य प्रार्थनाओं को अनसुना कर देता हूँ। तुम्हारे हाथ रक्त से रँगे हुए हैं”। होशेआ 6: 6 में, प्रभु स्पष्ट करते हैं, "मैं बलिदान की अपेक्षा प्रेम और होम की अपेक्षा ईश्वर का ज्ञान चाहता हूँ। " मिस्सा बलिदान की शुरुआत में की जाने वाली पश्चात्ताप की विनती इस महान तथ्य की याद दिलाती है। नबी मीकाह हमें बताते हैं कि न्याय करना, दया करना और ईश्वर के सामने विनम्रतापूर्वक चलना, हजारों मेढ़े, और तेल की दस हजारों नदियों की तुलना में प्रभु को अधिक प्रिय हैं (मीकाह 6: 6-8)।

आज का सुसमाचार हमें दर्शाता है कि ईश्वर का प्रतिरूप और उनके सदृश सृष्ट इंसान कितना भ्रष्ट बन सकता है। वह ईश्वर के साथ चलने तथा ईश्वर के ही समान पवित्र बनने के लिए बुलाया गया है। अब पाप में डूब कर वह ईश्वर की उपस्थिति से खतरा महसूस करता है क्योंकि शैतान उस पर कब्जा कर लेता है। वह मनुष्य जिसके नथनों में ईश्वर ने प्राण वायु फूंक दिया था; वह अब मौत का शिकार हो गया है और कब्रों के बीच रहना पसंद करता है। अब उसकी मूल-प्रवृत्ति मरने और मारने की है। लेकिन प्रभु हमें भरपूर मात्रा में जीवन प्रदान करते हैं। प्रभु येसु कहते हैं, “चोर केवल चुराने, मारने और नष्ट करने आता है। मैं इसलिए आया हूँ कि वे जीवन प्राप्त करें- बल्कि परिपूर्ण जीवन प्राप्त करें।”(योहन 10:10)। येसु ने शैतान की गुलामी से उन अपदूतग्रस्तों को बचाया और उन्हें ईश्वर की सन्तानों की गरिमा वापस दे दी, शैतान को उसके भाग्य - मृत्यु पर छोड़ दिया।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

Through today’s first reading prophet Amos wants to emphasise that justice and uprightness are more important than rituals and sacrifices. Without justice and uprightness our sacrifices will not be acceptable. In Prov 15:8 we read, “The sacrifice of the wicked is an abomination to the Lord, but the prayer of the upright is his delight.” We cannot cover up our sin under some rituals. We cannot unjustly amass wealth and legitimize it with some prayer or offering. The Lord is not pleased to accept an offering from the unjustly acquired wealth.

Again in Prov 21:3 we read, “To do righteousness and justice is more acceptable to the Lord than sacrifice”. In Is 1:15, the Lord says, “When you stretch out your hands, I will hide my eyes from you; even though you make many prayers, I will not listen; your hands are full of blood”. In Hos 6:6, the Lord clarifies, “For I desire steadfast love and not sacrifice, the knowledge of God rather than burnt offerings”. The Confiteor (I confess) prayer at the beginning of the Mass is a reminder to us of this great fact. Prophet Micah tells us that doing justice, loving kindness and walking humbly before our God are more pleasing to the Lord than offerings of thousands of rams, and ten thousands of rivers of oil (cf. Mic 6:6-8).

Today’s Gospel shows us how much a human being created in the image and likeness of God and called to holiness and perfection can be corrupted. The man who enjoyed the company of God initially now feels threatened by the presence of God when the devil takes possession of him. The man into whose nostrils God breathed the breath of life now has fallen prey to death and prefers to live among the tombs. He has an instinct now to kill and to be killed. God gives life in abundance. Jesus says, “The thief comes only to steal and kill and destroy. I came that they may have life, and have it abundantly” (Jn 10:10). Jesus rescued the men possessed by the devil and gave them back the dignity of the children of God, leaving the devil to its destiny – death.

-Fr. Francis Scaria


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Praise the Lord!