वर्ष - 2, तेरहवाँ सप्ताह, शनिवार

पहला पाठ : आमोस का ग्रन्थ 9:11-15

11) ‘‘उस दिन मैं दाऊद का टूटा-फूटा हुआ घर फिर खड़ा करूँगा। मैं उसकी दरारें भर दूँगा और उसके खँडहरों का पुनर्निर्माण करूँगा। वह जैसा पहले था, उसी तरह मैं उसे फिर बनवाऊँगा।

12) तब वे एदोम के बचे हुए अंश और उन सब राष्ट्रों को अपने अधिकार में करेंगे, जो पहले मेरे कहलाते थे।’’ यह उस प्रभु की वाणी है, जो यह सब पूरा करेगा।

13) यह पुभु की वाणी है: ‘‘वे दिन आ रहे हैं, जब लुनने वाले के तुरन्त बाद हल चलाने वाला आयेगा और बोने वाले के बाद अंगूर बटोरने वाला। पहाड़ों से अंगूरी की नदियाँ बह निकलेंगी और पहाड़ियों से अंगूरी टपकती रहेगी।

14) तब मैं अपनी प्रजा इस्राएल के निर्वासितों को वापस ले आऊँगा। वे उजाड़ नगरों का पुनर्निर्माण करेंगे और उन में निवास करेंगे। वे दाखबारियाँ लगा कर अंगूरी पियेंगे और बगीचे रोप कर फल खायेंगे।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 9:14-17

14) इसके बाद योहन के शिष्य आये और यह बोले, ’’हम और फरीसी उपवास किया करते हैं। आपके शिष्य ऐसा क्यों नहीं करते?’’

15) ईसा ने उन से कहा, ’’जब तक दूल्हा साथ है, क्या बाराती शोक मना सकते हैं? किन्तु वे दिन आयेंगे, जब दुल्हा उन से बिछुड़ जायेगा। उन दिनों वे उपवास करेंगे।

16) ’’कोई पुराने कपडे़ पर कोरे कपडे़ का पैबंद पहीं लगाता, क्योंकि वह पैबंद सिकुड़ कर पुराना कपड़ा फाड़ देता है और चीर बढ़ जाता है।

17) और लोग पुरानी मशकों में नयी अंगूरी नहीं भरते। नहीं तो मशकें फट जाती हैं, अंगूरी बह जाती है और मशकें बरबाद हो जाती हैं। लोग नयी अंगूरी नयी मशकों में भरते हैं। इस तरह दोनों ही बची रहती हैं।’’

📚 मनन-चिंतन

क्या यह एक बहुत बुरा अनुभव नहीं है कि आप रेलवे स्टेशन पर समय से पहले पहुँच जाते हैं और फिर भी आप ट्रेन नहीं पकड़ पाते हैं? यह वास्तव में मेरे एक दोस्त के साथ हुआ था। वह ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन पर था। वह प्रस्थान के समय से बहुत पहले ही स्टेशन पर पहुँच गया था। अपने पास बहुत समय होने पर उसने बुक-स्टॉल जा कर एक उपन्यास खरीदा, वेटिंग रूम में बैठकर उसे पढ़ने लगा। वह पढ़ने में इतना डूब गया कि उसे ट्रेन की याद नही आयी। उस स्टेशन पर लाउडस्पीकर पर कोई घोषणा भी नही हो रही थी। ट्रेन निकल गया, लेकिन उसको पता ही नहीं चला। वह घर वापस आ गया और वह सभी लोगों के उपहास का पात्र बन गया। संत योहन बपतिस्ता के कुछ शिष्य मेरे इस मित्र की तरह थे। संत योहन ने उन्हें मसीह का स्वागत करने के लिए तैयार किया। उन्होंने उन्हें मसीह के आने की आसन्न घटना के बारे में सचेत भी किया था। मसीह के आगमन से उन्हें एक प्रकार की सतुष्टि मिल सकती थी, लेकिन वास्तव में वे उस महान घटना का आनंद नहीं ले सके। वे मसीह को पहचान नहीं पाये थे। वे लगातार उपवास करते रहे और व्यर्थ ही प्रतीक्षा करते रहे। वे उन लोगों की तरह थे जो एक शानदार भोज में उपवास कर रहे हो। वे मसीह के आगमन की घड़ी से लाभान्वित नहीं हुए, बल्कि उन्होंने येसु के उन शिष्यों की भी आलोचना की जो उन अनमोल पलों का आनंद ले रहे थे। दूसरी ओर, लूकस 2: 25-38 में हम येरूसालेम के मंदिर में प्रार्थना और उपवास के साथ मसीह के आगमन की शुभ घडी का इंतज़ार करने वाले सिमयोन और अन्ना के बारे में पढ़ते हैं। जब मसीह का आगमन हुआ, तो उनकी खुशी की कोई सीमा नहीं रही। सिमयोन प्रभु से कहने लगते हैं, “प्रभु, अब तू अपने वचन के अनुसार अपने दास को शान्ति के साथ विदा कर; क्योंकि मेरी आँखों ने उस मुक्ति को देखा है, जिसे तूने सब राष़्ट्रों के लिए प्रस्तुत किया है” (लूकस 2:29-31) इस संबंध में हमारी स्थिति किस प्रकार की है? हमें अपने आप को ईश्वर की उपस्थिति को अनुभव करने के लिए ट्यून करने और अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने की आवश्यकता है।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

Isn’t it a very bad experience that you reach the Railway Station well in time and yet you miss the train? It really happened to a friend of mine. He was at the station to catch a train. He had reached the station much before the time of departure. Finding a lot of time at his disposal he picked up a novel from the book-stall, sat in the waiting room and began to read it. He got so immersed in the reading that he missed the train. It was a silent station and so no announcement was made on the loudspeaker. He came back home and could not explain the incident to anyone without being ridiculed for the folly. Some of the disciples of St. John the Baptist were like this friend of mine. St. John prepared them for the Messiah. He alerted them about the immanent event of the coming of the Messiah. The coming of the Messiah should have brought great fulfillment to their lives, but in reality they could not really enjoy the great event. They did not recognize the Messiah. They continued to fast and wait in vain. They were like the ones who fasted at a sumptuous banquet. They not only could not benefit from the moment of the coming of the Messiah, but they also questioned the disciples of Jesus who relished those unique moments.

On the other hand, in Lk 2:25-38 we read about Simeon and Anna at the temple waiting in prayer and fasting for the coming for the Messiah. When the Messiah did arrive, their joy knew no bounds. What is our status in this regard? We need to tune ourselves to the presence of God and respond to it at every moment of our lives.

-Fr. Francis Scaria


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Praise the Lord!