वर्ष - 2, चौथहवाँ सप्ताह, मंगलवार

पहला पाठ : होशेआ का ग्रन्थ 8:4-7,11-13

4) उन्होंने मेरी अनुमति लिये बिना राजाओं का अभिशेक किया। उन्होंने मुझ से पारामर्श किये बिना नेताओं को नियुक्त किया। उन्होंने अपने सोने और चांदी से अपने लिए ऐसी देवमूर्तियाँ बनायीं, जो उनके विनाश का कारण बन जायेंगी।

5) समरिया! तुम्हारी बछडे की देवमूर्ति वीभत्स है। मेरा क्रोध उन लोगों को भडक उठा है। वे बहुत समय तक अपने को निर्दोष प्रमाणित नहीं कर सकेंगे;

6) क्योंकि वह देवमूर्ति इस्राएल से आयी, किसी कारीगर ने उसे बनाया है और वह कोई देवता है ही नहीं। समारिया का वह बछड़ा टुकडे-टुकडे कर दिया जायेगा।

7) इस्राएल पवन बोता है, किन्तु वह आँधी लुनेगा। वह उस डण्ठल के सदृश है, जिस में बाल नहीं लगती और गेहूँ पैदा नहीं होता। यदि उस में गेहूँ पैदा भी होता, तो विदेशी उसे खा जाते।

11) एफ्राईम ने अपनी वेदियों की संख्या बढायी, किन्तु वे उसके लिए पाप का कारण बन गयी।

12) मैंने उसे बहुत-से नियम लिख कर दिये हैं, किन्तु उसने उन्हें किसी अपरिचित के नियम माना है।

13) वे अपनी ही इच्छा के अनुसार बलि चढाते हैं और बलिपशु का मांस खाते हैं, किन्तु प्रभु उन्हें स्वीकार नहीं करता। वह अनके अपराध याद करता है और उन्हें पापों का दण्ड देता है। वे फिर मिस्र देश जायेंगे।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 9:32-38

32) वे बाहर निकल ही रहे थे कि कुछ लोग एक गॅूगे अपदूत ग्रस्त मनुष्य को ईसा के पास ले आये।

33) ईसा ने अपदूत को निकला और वह गूँगा बोलने लगा। लोग अचम्भे में पड़ कर बोल उठे, ’’इस्राएल में ऐसा चमत्कार कभी नहीं देखा गया है’’।

34) परन्तु फ़रीसी कहते थे, ’’यह नरकदूतों के नायक की सहायता से अपदूतों को निकलता है’’।

35) ईसा सभागृहों में शिक्षा देते, राज्य के सुसमाचार का प्रचार करते, हर तरह की बीमारी और दुबर्लता दूर करते हुए, सब नगरों और गाँवों में घूमते थे।

36) लोगों को देखकर ईसा को उन पर तरस आया, क्योंकि वे बिना चरवाहे की भेड़ों की तरह थके माँदे पड़े हुए थे।

37) उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ’’फसल तो बहुत है, परन्तु मज़दूर थोड़े हैं।

38) इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज़दूरों को भेजे।’’

📚 मनन-चिंतन

प्रभु येसु के सामने प्रशंसक और आलोचक थे। ज्यादातर मामलों में, भीड़ येसु के प्रवचनों को सुन कर तथा चमत्कारों को देखकर उनकी प्रशंसा करती थी। उसी समय येसु को अपने समय के धार्मिक नेताओं की कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा। लेकिन उन आलोचनाओं का सामना करने में वे बहुत ही उदार थे। वे कभी भी भीड़ की चापलूसी से प्रभावित नहीं हुए; न ही वे यहूदी धार्मिक नेताओं की नकारात्मक प्रतिक्रियाओं के बारे में निराश थे। आलोचनाओं के सामने येसु शान्त थे। वह बस अपने पिता द्वारा बताए गए रास्ते पर चलते रहे और उन्हें प्रसन्न करने के बारे में ही सोचते रहते थे। वे पिता की इच्छा पर कायम रहे और उनकी योजनाओं को स्वीकार किया। ज्यादातर मामलों में, उन्होंने अपने आलोचको की बातों का नजरअंदाज किया। उन्होंने आलोचना के कुछ अवसरों का इस्तेमाल ईश्वर के राज्य और उसके मूल्यों के बारे में सिखाने के लिए किया। कभी-कभी उन्होंने अपने आलोचकों को उनके तर्क के विरोधाभासों को स्वयं समझने तथा सत्य को अपनाने के लिए आमंत्रित किया। हमारे लिए यह महत्वपूर्ण है कि हमारा लक्ष्य स्पष्ट रूप से निर्धारित हो और हम अपने लक्ष्य को सामने देखते हुए उसकी ओर लगातार बढ़ते रहें। हमें बाधाओं को दूर करने और कई बेकार और नकारात्मक टिप्पणियों का अनदेखा करने की आवश्यकता है। हमें सुझावों और सकारात्मक तथा रचनात्मक आलोचनाओं से लाभ उठाना चाहिए।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

Jesus had admirers and critics. In most cases, it is the crowds that admired Jesus. Jesus faced thorough criticism from the religious leaders of his time. But he was very magnanimous in facing those criticisms. He was never carried away by the flattery of the crowds; nor was he frustrated about the negative reactions of the Jewish religious leaders. Jesus was calm in the face of criticisms. He simply walked the path marked out for him by his Father and his only botheration was to please him. He kept on discerning the will of the Father and carrying out what he demanded. In most cases, he simply ignored their criticism. He used some occasions of criticism to teach people about Kingdom of God and its values. Sometimes he invited his critics to see the folly of their own reasoning and contradictions in their arguments. It is important for us to have our goal set clearly and having the goal in front we need to proceed directly towards it. We need to overcome hurdles and ignore many useless comments and negative remarks. We also need to be open to profit from suggestions and positive and constructive criticisms.

-Fr. Francis Scaria


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Praise the Lord!