वर्ष - 2, सोलहवाँ सप्ताह, गुरुवार

पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 2:1-3,7-8,12-13

1) प्रभु की वाणी मुझे यह कहते हुए सुनाई पड़ी -

2) “जाओ और येरुसालेम को यह सन्देश सुनाओ। प्रभु यह कहता हैः मुझे तेरी जवानी की भक्ति याद है, जब तू मुझे नववधू की तरह प्यार करती थी। तू मरुभूमि में, बंजर भूखण्ड में मेरे पीछे-पीछे चलती थी।

3) उस समय इस्राएल प्रभु की अपनी पवित्र वस्तु था, उसकी फ़सल के प्रथम फल। जो उस में कुछ लेने का साहस करते थे, उन्हें दण्ड दिया जाता था, उन पर विपत्ति आ पड़ती थी।“ यह प्रभु की वाणी है।

7) में तुम लोगों को एक उपजाऊ भूमि में ले आया। मैंने तुम्हें उसके उत्तम फलों से तृप्त किया। किन्तु तुम लोगों ने उस में प्रवेश करते हुए उसे अपवत्रि कर दिया, जिससे मुझे अपनी विरासत से घृणा हो गयी है।

8) याजकों को प्रभु की कोई चिन्ता नहीं थी। संहिता के शास्त्री मेरी कोई परवाह नहीं करते थे। शासक मेरे विरुद्ध विद्रोह करते थे। नबी, बाल के नबी बन कर, ऐसे देवताओं के अनुयायी हो जाते थे, जिन से कोई लाभ नहीं।“

12) आकाश इस पर आश्चर्य करे और विस्मित हो कर काँपें।“ यह प्रभु की वाणी है।

13) “मेरी प्रजा ने दो अपराध कर डालेः उसने मुझे, संजीवन जल के स्त्रोत को त्याग दिया और अपने लिए ऐसे कुण्ड बनाये, जिन में दरारें हैं और जिन में पानी नहीं ठहरता।

सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 13:10-17

10) ईसा के शिष्यों ने आ कर उन से कहा, ’’आप क्यों लोगों को दृष्टान्तों में शिक्षा देते हैं?‘‘

11) उन्होंने उत्तर दिया, ’’यह इसलिए है कि स्वर्गराज्य का भेद जानने का वरदान तुम्हें दिया गया है, उन लोगों को नहीं;

12) क्योंकि जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा और उसके पास बहुत हो जायेगा। लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उससे वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।

13) मैं उन्हें दृष्टान्तों में शिक्षा देता हूँ, क्योंकि वे देखते हुए भी नहीं देखते और सुनते हुए भी न सुनते और न समझते हैं।

14) इसायस की यह भविष्यवाणी उन लोगों पर पूरी उतरती है- तुम सुनते रहोगे, परन्तु नहीं समझोगे। तुम देखते रहोगे, परन्तु तुम्हें नहीं दिखेगा;

15) क्योंकि इन लोगों की बुद्धि मारी गई है। ये कानों से सुनना नहीं चाहते; इन्होंने अपनी आँख बंद कर ली हैं। कहीं ऐसा न हो कि ये आँखों से देख ले, कानों से सुन लें, बुद्धि से समझ लें, मेरी ओर लौट आयें और मैं इन्हें भला चंगा कर दूँ।

16) परन्तु धन्य हैं तुम्हारी आँखें, क्योंकि वे देखती हैं और धन्य हैं तुम्हारे कान, क्योंकि वे सुनते हैं!

17) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- तुम जो बातें देख रहे हो, उन्हें कितने ही नबी और धर्मात्मा देखना चाहते थे; परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं देखा और तुम जो बातें सुन रहो, वे उन्हें सुनना चाहते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं सुना।

📚 मनन-चिंतन - 1

प्रभु येसु ने स्वर्गिक रहस्यों को स्पष्ट करने के लिए साधारण सांसारिक जीवन की कहानियों और घटनाओं का उपयोग किया। उन्होंने मछली पकड़ने, खेती, चरवाहे, निर्माण-कार्य और शासन के बारे में बात की। उन्होंने बीज, फूल, पक्षी, रोटी, दाखबारी, भोज, यात्रा आदि का जिक्र किया। जो लोग गहराई में जाने की जहमत नहीं उठाते थे, उनके लिए ये बातें सामान्य कहानियाँ और घटनाएँ थीं। लेकिन जो लोग छिपे हुए रहस्यों को सीखने में रुचि रखते थे, उनके लिए वे साधारण कहानियों में प्रस्तुत किए गए शाश्वत सत्य थे। रहस्यों को समझने के लिए कई परतें हैं। केवल उन लोगों के लिए जो इन रहस्यों को गहराई से समझने में रुचि रखते हैं, स्पष्टीकरण सार्थक होंगे। येसु द्वारा सुनाये गये दृष्टान्त और उनके स्पष्टीकरणों को सुनने वाले शिष्य भाग्यशाली थे। ईश्वरीय रहस्य अक्षय हैं। जितना अधिक आप ध्यान-मनन्‍ करते हैं, उतना ही आप समझ पाते हैं। आप जितना गहराई में जाते हैं, आपको हर बार अधिक ज्ञान मिलता है। हर बार आप सीखते हैं, तो आप महसूस करते हैं कि आपके पास सीखने के लिए बहुत कुछ है। पुराने विधान में नये विधान की घटनाओं की छाया है। नये विधान में पुराना विधान पूरा हो गया है। इसलिए येसु ने अपने शिष्यों से कहा, “धन्य हैं तुम्हारी आँखें, क्योंकि वे देखती हैं और धन्य हैं तुम्हारे कान, क्योंकि वे सुनते हैं! मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - तुम जो बातें देख रहे हो, उन्हें कितने ही नबी और धर्मात्मा देखना चाहते थे; परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं देखा और तुम जो बातें सुन रहे हो, वे उन्हें सुनना चाहते थे, परन्तु उन्होंने उन्हें नहीं सुना।” (मत्ती 13: 16-17)। ईश्वर का देहधारण इतिहास की सबसे महान तथा अनोखी घटना थी। स्वाभाविक रूप से, जिन्होंने उस घटना को देखा और महसूस किया, वे सौभाग्यशाली हैं। यह रहस्य हमारे सामने है। यह सदा के लिए महत्व रखता है। हम इस रहस्य के सामने निष्क्रिय नहीं हो सकते हैं।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

Jesus used stories and events from ordinary earthly life to elucidate heavenly mysteries. He spoke about fishing, farming, shepherding, building and governing. He referred to seeds, flowers, birds, bread, vineyards, banquets, journey and so forth. For those who did not bother to go deeper, they were ordinary stories and events. But for those who were interested in learning the hidden mysteries, they were eternal truths presented in ordinary stories. Mysteries have many layers to understand. Only for those who are interested in delving deep into these mysteries, the explanations will be meaningful. The disciples were fortunate to listen to the parables narrated by Jesus and their explanations. The divine mysteries are inexhaustible. The more you meditate, the more you grasp. The deeper you go, you find greater wisdom every time. Every time you learn, you realise that you have much more to learn. In the Old Testament we have shadows of many New Testament events. Hence the Old Testament is fulfilled in the New. That is why Jesus told his disciples, “But blessed are your eyes, for they see, and your ears, for they hear. Truly I tell you, many prophets and righteous people longed to see what you see, but did not see it, and to hear what you hear, but did not hear it.” (Mt 13:16-17). Incarnation was a unique event in history and the greatest. Naturally, those who witnessed that event and realized its significance were fortunate. We have this mystery revealed to us in history with the testimony of those who heard, saw and touched the Incarnate Word or the Word made flesh or God in human form. It has implications for all times to come. We cannot be inactive in the face of this mystery.

-Fr. Francis Scaria


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Praise the Lord!